2019 के आम चुनावों में एनडीए और यूपीए से अलग एक तीसरा गठबंधन भी स्वरूप लेता दिख रहा है. हालंकि उत्तर प्रदेश को छोड़ किसी अन्य प्रदेश में इन दलों में सीटों का तालमेल अब तक नहीं हो पाया है. इस गठबंधन को तीसरा मोर्चा तो कहना ठीक नहीं होगा, क्योंकि इसके कुछ साथी एक राज्य में साथ हैं, तो दूसरे राज्य में एक दूसरे के विरोधी. इस तीसरे गठबंधन का भी एक ही नारा है 'मोदी हटाओ' यानी मुद्दा वही जो यूपीए का है.
बात करें इस गठबंधन के स्वरूप की तो यह सबसे उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में ज्यादा ताकतवर दिख रहा है. वैसे तो इस मोर्चे का असर केरल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा तक है, लेकिन इसके नेता गाहे-बगाहे एक दूसरे का विरोध करते रहते हैं. इस गठबंधन के सामने सबसे बड़ी चुनौती प्रधानमंत्री पद के लिए चेहरे की है. इन पार्टियों में किस पार्टी का नेता गठबंधन का प्रधानमंत्री चेहरा होगा या ये कांग्रेस के पीएम फेस को सपोर्ट करेगें, यह अभी तक साफ नहीं हो पाया है.
किस राज्य में गठबंधन का क्या स्वरूप
'मोदी हटाओ' के नाम पर बना यह मोर्चा उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा मजबूत दिखता है. उत्तर प्रदेश में गैर-कांग्रेस और गैर-बीजेपी सभी महत्वपूर्ण दल यहां एक साथ हैं. मायावती की बहुजन समाज पार्टी, अखिलेश की समाजवादी पार्टी, अजित सिंह का राष्ट्रीय लोक दल, निषाद पार्टी, पीस पार्टी जैसे कई छोटे दल गठबंधन का हिस्सा है. हालांकि अजित सिंह की पार्टी राष्ट्रीय लोकदल के साथ सीटों का ऐलान अभी नहीं हुआ है.
उधर पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी इस गठबंधन का चेहरा हैं. ममता 'मोदी हटाओ मोर्चा' में सबसे आगे हैं, लेकिन अपने सबसे मजबूत जनाधार वाले राज्य पश्चिम बंगाल में वह लेफ्ट और कांग्रेस के साथ सीटों का तालमेल करने को तैयार नहीं है. केरल में भी असली लड़ाई लेफ्ट और कांग्रेस के बीच है, लेकिन दिल्ली की राजनीति में दोनों का एजेंडा एक ही है.
बात करें आंध्र प्रदेश और तेलंगाना की तो एनडीए से बाहर होने के बाद चंद्रबाबू नायडू समय-समय पर इस मोर्चे के मंच पर आकर मोदी विरोधी आवाज को बुलंद करते रहे हैं. तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव की टीआरएस भी यूपीए और एनडीए से बाहर हैं, लेकिन उन्हें मोदी विरोधी मोर्चे का हिस्सा नहीं कहा जा सकता है. केसीआर ने बीच में अपना अलग मोर्चा बनाने की कोशिश भी, लेकिन उनकी ये कोशिश किसी मुकाम तक नहीं पहुंच पाई.
कितनी सीटों पर है इस गठबंधन का असर
बात करें इस गठबंधन के राजनीतिक प्रभाव की, तो इसका असर 543 लोकसभा सीटों में 200 से ज्यादा पर है. 80 सीटों वाले उत्तर प्रदेश में एसपी-बीएसपी तो 42 सीटों वाले पश्चिम बंगाल में टीएमसी और लेफ्ट, 25 सीटों वाले आंध्र प्रदेश और 17 सीटों वाले तेलंगाना में टीडीपी-टीआरएस, 20 सीटों वाले केरल में लेफ्ट, 21 सीटों वाले ओडिशा में बीजू जनता दल यानी कुल 205 लोकसभा सीटों पर इस गठबंधन के साथियों का सीधा असर है. वहीं इन पार्टियों के सीधे प्रभाव वाले राज्यों के पड़ोस में भी इनके असर को ले लें तो यह आंकड़ा 220 से 225 तक पहुंच जाता है.
एक क्यों नहीं हो सकते ये राजनीतिक दल
भले ही इस गठबंधन में शामिल राजनीतिक दल अक्सर एक मंच पर दिखते हों, लेकिन इनमें मतभेद उससे कहीं ज्यादा है और मतभेद का सबसे बड़ा कारण प्रधानमंत्री की कुर्सी है. यही वह कारण है कि 'मोदी हटाओ' का नारा देने के बाद भी ये पार्टियां कांग्रेस के साथ नहीं जा रही हैं. उत्तर प्रदेश से जहां गठबंधन बीएसपी सुप्रीमो मायावती को पीएम बनना चाहता है, वहीं टीएमसी ममता को पीएम के रूप में देखना चाहती है.
टीडीपी अध्यक्ष चंद्रबाबू नायडू कई बार अपने बयानों से इशारों-इशारों में प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी पेश कर चुके हैं. वहीं केसीआर ने जिस तरह पिछले दिनों गठबंधन बनाने के लिए देश भर में यात्राएं की, उसके बाद उनके दावे को लेकर अटकलें लगनी शुरू हो गई हैं. इस मोर्चे में लेफ्ट और नवीन पटनायक ही ऐसे चेहरे हैं, जिन्होंने अब तक पीएम पद के लिए अपनी दावेदारी पेश नहीं की है.
इस गठबंधन के स्वरूप को देखकर एक बात तो तय है कि चुनाव के बाद इस गठबंधन का महत्व बढ़ने वाला है. इस गठबंधन का महत्व जितना बढ़ेगा उतना ही इनमें मतभेद बढ़ेंगे और ऐसे में बिना नेता के बन रहे इस गठबंधन को एक रखना सबसे बड़ी चुनौती होगी.
(न्यूज18 के लिए अनिल राय की रिपोर्ट)
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