'सृष्टि से पहले सत नहीं था, असत भी नहीं था, आकाश भी नहीं था.' कहते हुए पंडित नेहरू ने 'भारत एक खोज' के तहत सब कुछ ढूंढ लिया. पर देश में गॉड पार्टिकल की तरह बिखरे सारे 'महापुरुषों' को ढूंढने में नाकाम ही रहे.
मुफ्त वाई-फाई सुविधा पाकर पूरा देश आज अपने-अपने महापुरुषों को ढूंढने में जुटा है.
गुमशुदा महापुरुष इतिहास, दंत-कथा, मान्यताओं से निकाले जा रहे हैं. कुछ जीवाश्म के आधार पर गढ़े जा रहे हैं. जाति-धर्म और दल के खाके फिट किए जा रहे हैं.
कुछ के नाम पर पार्क, चौराहे, बाजार और शहरों का नामकरण हो रहा है. कुछ के नाम पर सम्मेलन बुलाया जा रहा है. किसी की विशालकाय प्रतिमा स्थापित हो रही है... किसी के नाम पर सरकारी योजनाएं जारी हो रही हैं. हर कोई अपने स्तर पर अपने महापुरुष को स्थापित करने पर तुला है.
परिवार नियोजन नहीं होने से महापुरुषों की संख्या भी देश की जनसंख्या की तरह विस्फोटक रूप लेती जा रही है. महापुरुषों के चक्कर में देश मैडम तुसाद का म्यूजियम बनता जा रहा है.
सता पर्रिवर्तन के साथ महापुरुषों का कद भी बढ़-घट रहा है. सत्ताधारियों की नजरें इनायत होने से कोई गिनीज बुक में जगह पा रहा है तो कोई गुमनामी की गर्त में जा रहा है. इस धक्कापेल में कुछ महापुरुषों के अस्तित्व पर ही खतरा मंडरा रहा है... अब इसकी गारंटी नहीं रही कि कौन कब तक महापुरुष बना रहेगा.
जाति-धर्म की खाई दिनों दिन बढ़ रही है
महापुरुषों के बीच जाति और धर्म की खाई भी दिनों दिन बढ़ रही है. जातिगत सम्मेलनों में लोगों को जाति के महापुरुष से अपडेट किया जा रहा है. लोगों को जानकारी दी जा रही है कि जयप्रकाश नारायण, सुभाषचंद्र बोस, लालबहादुर शास्त्री, विवेकानंद कायस्थ थे.
महात्मा गांधी वैश्य थे और तिलक, चंद्रशेखर आजाद, दयानंद सरस्वती, सावरकर अमुक गोत्र के बाह्मण थे.
महापुरुषों की फेहरिस्त का आलम यह है कि अब सरकार चाहे जितनी योजनाएं लाए, ट्रेनें चलाए. नाम तलाशने के लिए माथापच्ची नहीं करनी पड़ रही.
महापुरुषों को अपना घोषित करने के लिए मारामारी, छीना-झपटी हो रही है. सभी एक-दूसरे के दावे को गलत और सियासी फायदे के लिए बता रहे हैं. तू-तू मैं-मैं के बीच अपने महापुरुषों का महिमामंडन और दूसरों के महापुरुषों का चरित्र हनन हो रहा है.
जिस रावण और नाथूराम गोडसे को कल तक खलनायक बताया जाता रहा. उसी गोडसे और रावण को भोपाल के माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के शोधपत्र में महापुरुष बता दिया गया.
जिस पाकिस्तानी जनरल परवेज मुशर्रफ को करगिल युद्ध के लिए जिम्मेदार माना गया. उसी मुशर्रफ को जबलपुर की तीसरी क्लास की नैतिक शिक्षा की किताब में महापुरुष बता दिया गया. हाईटेक युग में मुद्दों की तरह महापुरुष भी हाईजैक हो रहे हैं.
महापुरुष भी काम आधा-अधूरा छोड़कर क्यों चले जाते हैं
महापुरुषों ने जीवन से जुड़े जितने रास्ते नहीं बताए उससे अधिक उनके नाम पर मार्ग बन रहे हैं. देशवासी कंफ्यूज हैं कि कौन सा मार्ग अपनाऊं और किस राह पर चलूं. हर जगह यही आग्रह हो रहा है कि अमुक महापुरुष ने जो अमुक काम अधूरा छोड़ा था उसे पूरा करना है.
जनता समझ नहीं पा रही है कि सरकार की तरह महापुरुष भी काम आधा-अधूरा छोड़कर क्यों चले जाते हैं. फिलहाल पुराने महापुरुष ही इतना सारा काम छोड़कर गए हैं कि कई पीढ़ियां तो इसी में खप जाएंगी. नए महापुरुषों के काम को अगर छोड़ भी दिया जाए तो.
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बनारस के अवधी गुरु तो इन्हीं महापुरुषों से प्रभावित होकर जीते जी ही खुद की मूर्ति स्थापित करने की सोच रहे हैं. उन्हें लग रहा है कि मूर्ति स्थापित हो गई तो बड़े इत्मीनान से टेंशन फ्री होकर मर सकेंगे और युगों-युगों तक ख्याति भी रहेगी.
इतिहास में रूचि रखने वाले पंडित गजोधर त्रिपाठी महापुरुषों की बढ़ती संख्या से असमंजस में हैं. बचपन में संस्कृत के अध्यापक ने प्रथम पुरुष, मध्यम पुरुष, उत्तम पुरुष के चक्कर में हथेली सुजा दी थी. सो जवानी तक पुरुष शब्द से परहेज ही करते रहे. लेकिन हाल के दौर में मुफ्त वाईफाई की सुविधा में वह भी महापुरुष ढूंढने में लगे हैं.
दिमाग में महाभारत सी क्यों मची है
समर स्पेशल प्लान की समय सीमा में ही कुछ लोग अन्य महापुरुषों को अपना बना लेना चाहते हैं... असमंजस में हैं किसको जोड़ें, किसको छोड़ें. भारी उहापोह में हैं जोड़े तो कितने को जोड़ें और मौजूदा विकास पुरुषों का क्या करें. साथ ही इनकी वंशबेल में नए-नए पुत्र भी अवतरित हो गए हैं.
कोई दत्तक पुत्र है तो कोई जैविक पुत्र, तो कोई मानस पुत्र, तो कोई धरती पुत्र. लिहाजा इतने पुरुषों और पुत्रों को लेकर दिमाग में महाभारत सी मची है.
धन्यवाद है सीएम योगी आदित्यनाथ का, जो स्कूलों में महापुरुषों की जयंती पर छुट्टियां खत्म कर दी. वर्ना इन महापुरुषों के महिमामंडन में भावी पीढ़ियों का भविष्य की छुट्टी होनी तय थी.
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