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Assembly Election Results: जनता ठान ले तो बड़े नेता के खिलाफ किसी मामूली उम्मीदवार को भी जिता दे

शिवराज चौहान का करीब 13 साल का राज-पाट चलाना, इस आत्मविश्वास को जन्म दे गया कि वो अजेय हैं. वो अपने पैरों तले से खिसकती जा रही सियासी जमीन, ख़ास तौर से ग्रामीण इलाकों में, का अंदाज़ा ही नहीं लगा सके.

Updated On: Dec 13, 2018 08:37 AM IST

Ajay Singh Ajay Singh

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Assembly Election Results: जनता ठान ले तो बड़े नेता के खिलाफ किसी मामूली उम्मीदवार को भी जिता दे

बार-बार होने वाले चुनावों के चक्र से उकताए भारतीय वोटर ने एक नए चलन का आविष्कार किया है. इसे हम 'लैंपपोस्ट इलेक्शन' या 'बिजली के खंभे' वाला चुनाव कहते हैं. इस नाम का मतलब ये है कि अगर जनता ठान ले, तो वो किसी बड़े से बड़े प्रत्याशी के मुक़ाबले किसी 'चूं चूं के मुरब्बे' को भी इलेक्शन जिता सकती है. किसी असाधारण नेता के मुक़ाबले बिजली के खंभे को भी भारी मतों से विजयी बना सकती है, हमारे देश की जनता.

हालांकि, पिछले कुछ चुनावों से लैंपपोस्ट इलेक्शन के जुमले को लोगों ने भुला सा दिया था. जाति और संप्रदायों के समीकरणों और पूर्वाग्रहों की देश की राजनीति की दशा-दिशा तय करने में अहम भूमिका हो गई थी. भारत के सियासी मानचित्र में अंदरूनी तौर पर कई दरारें खिंच गई थीं.

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1980 के दशक में राजीव गांधी के बाद से नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय परिदृश्य में बेहद ताक़तवर होकर उभरने तक, देश के चुनाव स्थानीय मुद्दों का टकराव बन कर रह गए थे. किसी भी दल की संगठनात्मक क्षमता की अहमियत चुनाव में दोयम दर्जे की बात बन गई थी.

लेकिन, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव के नतीजों को देखें, तो, ऐसा लगता है कि लैंपपोस्ट इलेक्शन का जुमला एक बार फिर से जी उठा है. ख़ास तौर से मध्य प्रदेश के बारे में ये बात तो और पक्के तौर पर कही जा सकती है. मध्य प्रदेश में बीजेपी और संघ परिवार बेहद ताक़तवर संगठन मशीनरी होने का दावा करता है. जो एक ही राजनीतिक लक्ष्य की प्राप्ति के मक़सद से काम करती है. उस मध्य प्रदेश में बीजेपी की हार, भारतीय राजनीति की समझ बढ़ाने वाला सबक़ है.

क्या है सियासी चलन?

राजस्थान में बीजेपी की हार का ज़्यादातर ठीकरा वसुंधरा राजे के सिर फोड़ा जा रहा है. राजस्थान में बीजेपी की हार के लिए एक और बात जो ज़िम्मेदार बताई जा रही है, वो है पिछले 25 सालों से यहां का सियासी चलन. जिसमें जनता हर बार, सरकार बदल देती है. एक बार कांग्रेस तो, अगली बार बीजेपी को मौक़ा देती आई है. वसुंधरा राजे ने निज़ाम में नए प्रयोग किए, लेकिन उनका अहंकारी बर्ताव और अलग-थलग रहना हार का कारण बना. वो जनता से कट सी गई थीं.

वहीं, छत्तीसगढ़ में 15 साल राज करने वाले रमन सिंह आराम से बैठकर चौथी बार जीतने की उम्मीद पाले हुए थे. रमन सिंह इस मुगालते में जी रहे थे कि उन्हें हराना नामुमकिन है.

लेकिन, मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह की बेचैनी साफ़ दिखती थी. वो अपनी सियासी ज़मीन बचाने के लिए लगातार ख़ूब भाग-दौड़ करते आए थे. संघ परिवार के सभी घटक इस काम में शिवराज की जी-जान से मदद करते थे. मध्य प्रदेश के तमाम इलाकों में संघ परिवार के संगठन की कई दशकों से मजबूत पकड़ रही है. फिर भी शिवराज सिंह चौहान, कमजोर संगठन और नेतृत्वविहीन कांग्रेस से मात खा गए. मध्य प्रदेश में बीजेपी पिछले 15 साल से सत्ता में थी. फिर भी ऐसे हालात क्यों बन गए?

बीजेपी का अहंकार पड़ा भारी

इस सवाल का एक जवाब तो स्पष्ट है-बीजेपी का अहंकार. लंबे समय से राज करने का ये सबसे बड़ा दुष्परिणाम था. शिवराज चौहान का करीब 13 साल का राज-पाट चलाना, इस आत्मविश्वास को जन्म दे गया कि वो अजेय हैं. वो अपने पैरों तले से खिसकती जा रही सियासी जमीन, ख़ास तौर से ग्रामीण इलाकों में, का अंदाज़ा ही नहीं लगा सके.

इसकी बड़ी वजह, ग्रामीण इलाकों की बुरी आर्थिक स्थिति और माफिया का आतंक था. ऐसा लगता है कि शिवराज सिंह चौहान इस मुगालते में थे कि सामाजिक कल्याण पर खर्च बढ़ाने के अपने पुराने टोटकों से वो कुछ खास जातियों के वोटरों को साध लेंगे और ये चुनाव भी जीत जाएंगे. पहले जहां शिवराज चौहान के सामाजिक कल्याण पर किए गए निवेश से बहुत से गरीबों का भला हुआ. लेकिन, इन सरकारी योजनाओं से गरीबों को उतना फायदा नहीं हुआ, जितना इन योजनाओं ने भ्रष्टाचार को जन्म दिया.

चौहान को अपने अजेय होने का किस कदर यकीन था, ये बात पूरे सूबे में इस बात से साफ दिखती थी कि प्रचार के हर बैनर-पोस्टर पर शिवराज के साथ उनकी बीवी साधना सिंह की तस्वीर नजर आती थी. ऐसा पहली बार देखा गया था कि किसी चुनाव के प्रचार में मौजूदा मुख्यमंत्री के साथ उनकी पत्नी की तस्वीर दिखी हो.

Shivraj Singh

ऐसी विसंगति से भरा चुनाव प्रचार बिल्कुल ही अनैतिक था. हालांकि ये सियासी नजरिए से किया गया था. भारतीय राजनीति में परिवार को सार्वजनिक जीवन से दूर ही रखा जाता है. लेकिन, शिवराज चौहान खुलकर इस अनकहे सिद्धांत का उल्लंघन कर रहे थे. ये सियासी दिलेरी तब और अनैतिक लगने लगती है, जब आप राजधानी भोपाल के सियासी हलकों में ये खुसर-फुसर सुनते हैं कि सूबे का राज-पाट चलाने में मुख्यमंत्री जी के घर से बहुत दखलंदाजी होती थी.

शहरों में नहीं हुआ पूरा विकास

हालांकि, हमारे कहने का ये मतलब नहीं है कि शिवराज सिंह चौहान, मध्य प्रदेश में लचर हुकूमत चला रहे थे. बल्कि, शिवराज चौहान को तो, एक मजबूत निजाम चलाने का श्रेय दिया जाना चाहिए. वो एक ऐसी सरकार के मुखिया थे, जिसके राज में लोगों का रहन-सहन बहुत बेहतर हुआ. मसलन, जब शिवराज सिंह चौहान सत्ता में आए, तो मध्य प्रदेश की सड़कों की हालत बहुत बुरी थी.

15 साल पहले मध्य प्रदेश में बिजली का हाल भी बुरा था. ग्रामीण इलाकों में बुनियादी ढांचा न के बराबर था. शहरी इलाकों की विकास दर भी डांवाडोल ही थी. इसमें कोई शक नहीं कि मध्य प्रदेश ने पिछले पंद्रह सालों में शहरी विकास और ग्रामीण इलाकों की तरक्की में लंबी छलांग लगाई है. ये 'बीमारू' राज्य के दर्जे से खुद को आजाद कराने में कामयाब हुआ. आज अनाज उत्पादन में मध्य प्रदेश काफी आगे निकल गया है.

लेकिन, इस बार के चुनाव के नतीजों से साफ है कि ये कामयाबियां किसी भी काम नहीं आई हैं. खुद मुख्यमंत्री शिवराज चौहान की विश्वसनीयता पर लगे दाग की वजह से आखिरकार जनता उनके लंबे राज-पाट से उकता सी गई.

शिवराज सिंह चौहान ने पिछले चुनावों की तरह इस बार भी सामाजिक कल्याण पर खर्च बढ़ाने के नुस्खे पर जरूरत से ज्यादा भरोसा किया. वो 'माई के लाल' जैसे नारों से वोटर को इस बार लुभाने में नाकाम रहे. दलितों के साथ खड़े रहने की उनकी पुरजोर कोशिश, सियासी कारोबार में घाटे का दांव साबित हुई. लोग ओछी बातों से उकता गए और बीजेपी सरकार के विकास कार्य को अपना हक समझा, न कि सरकार की बांटी हुई खैरात. जाहिर है कि शिवराज चौहान में कोई सियासी नयापन नहीं बचा था और वो चौथी बार चुनाव जीतने के लिए पुराने नुस्खों के भरोसे थे.

इन बातों के बावजूद मध्य प्रदेश मे बीजेपी की वैसी बुरी गत नहीं हुई, जैसी पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ में हुई. इसका श्रेय मध्य प्रदेश में पार्टी के बेहद ताकतवर संगठन को दिया जाना चाहिए. ये संगठन न केवल मजबूत है, बल्कि नतीजों से ये भी साफ है कि इसने विपक्ष का मजबूती से मुकाबला भी किया. लेकिन, नतीजों ने ये साफ कर दिया है कि केवल मजबूत संगठन के बूते पर कोई चुनाव नहीं जीता जा सकता.

मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजों का सबसे बड़ा सियासी सबक ये है कि-भले ही किसी पार्टी के पास जमीनी स्तर पर मजबूत संगठन क्यों न हो, जनता ने अगर ठान लिया है, तो वो बड़े से बड़े नेता के खिलाफ किसी खंभे को भी वो देकर जिता सकती है.

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