'सारी दिल्ली यहां है, शीला दीक्षित कहां हैं?'
इसी हफ्ते गुरुवार की आधी रात जब राहुल गांधी इंडिया गेट पर हजारों लोगों के साथ कठुआ की पीड़िता और उन्नाव की रेप पीड़िता को इंसाफ दिलाने के लिए विरोध प्रदर्शन करने पहुंचे, तब एक बार फिर से छह साल पहले निर्भया के रेप और मौत के बाद के मंज़र और उससे जुड़ी यादों और नारों की यादें ताज़ा हो गईं.
हालांकि, छह साल पहले लोगों के हाथों में विरोध दर्शाने के लिए सबसे माकूल माना जाने वाला उपाय यानी मोमबत्ती सबकी हाथों में बदस्तूर अपनी मौजूदगी बनाए हुए था. तब कांग्रेस पार्टी और उनके नेता गायब थे और पूरा देश सड़कों पर उतरा हुआ था. राहुल गांधी, जो इस समय नैतिकता के नायक बने हुए हैं, तब लुटियंस के अपने बंगले की चारदीवारी के भीतर सुरक्षित आराम फरमा रहे थे. इस साल जबकि उनकी पार्टी सत्ता कोसों दूर है- और जनता के निशाने से भी, तब राहुल गांधी न सिर्फ अपने बंगले से बाहर आए हैं बल्कि उनकी हाथों में एक मोमबत्ती भी है और होठों पर उपदेश भी.
इसे मौकापरस्ती कहते हैं
इस तरह की चुनिंदा घटनाओं पर गुस्सा व्यक्त करने की नीति को परिभाषित करने के लिए एक खास शब्दावली का प्रयोग किया जाता है जिसे अंग्रेजी भाषा में, ‘ट्रैजेडी ऑपरचुनिज़्म’ कहते हैं, यानी किसी त्रासदी के वक्त मौकापरस्ती दिखाना. ये एक ऐसी सोच या व्यवहार है जिससे हमारा पूरा राजनीतिक वर्ग ग्रस्त है. हम एक ऐसा देश बन गए हैं जहां ओछी राजनीति ही हर नेता का नैतिक मापदंड बन गया है. अपने राजनैतिक फायदे के लिए ये नेता एक बहुरूपिए पाइड पाइपर की तरह हमें मानवता के आदर्शों से कोसों दूर करते जा रहे हैं. वे हमें हमारी अंतरात्मा को पीछे छोड़ने के लिए विवश करते हैं, वे हमारे बीच राजनीतिक और कट्टरपंथी अलगाव पैदा करने पर आमादा हैं.
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अपने चारों तरफ देखिए- क्या आपको कठुआ और उन्नाव की घटना पर फैली निराशाजनक शांति नजर नहीं आ रही है? आप देख पाएंगे कि कैसे हमारे आसपास फैले राजनीति के आकाश में ऐसे लोग छाए हुए हैं जो अपनी स्वार्थ, मौकापरस्ती और संदिग्ध नैतिकता का जाल फैलाए हुए हैं जिसके बलबूते पर ये हमें बर्बादी की तरफ लगातार लिए जा रहे हैं. मौजूदा मसले पर बीजेपी की चुप्पी पर काफी कुछ बोला जा चुका है, इन घिनौने रेप कांड पर पीएम मोदी के ‘मन की बात’ का सभी को इंतजार है, ऐसे में बेहतर यही है कि हम राहुल गांधी की इस त्रासदी पर की जा रही अवरसवादिता पर ही अपना ध्यान केंद्रित करें.
कितनी बार राहुल ने ऐसा विरोध किया है?
चलिए याद करते हैं कि आखिर कितनी बार कांग्रेस अध्यक्ष ने इस तरह की घटनाओं पर या जहां घटनाएं हुई हैं वैसी जगहों पर नजर आए हैं, अपनी मर्जी से भी नहीं बल्कि जनता के गुस्से को ध्यान में रखकर. चलिए याद करने की कोशिश करते हैं कि आखिर कितनी बार ऐसा हुआ है कि देश में किसी घटना को लेकर लोगों का गुस्सा उबाल पर आने के बाद वे यानी राहुल गांधी ने ऐसी घटनाओं पर धावा बोला है. हमें याद करना चाहिए कि आखिर ऐसा कितनी बार हो चुका है कि किसी बड़े मुद्दे पर गेस्ट अपियरेंस देकर वे पर्दे से पूरी तरह से गायब हो गए हैं. सिर्फ इस ताक में फिर कोई नया मुद्दा गरमाए और उनके हाथ फिर से एक नया मौका लगे.
इंडिया गेट पर हाथ में मोमबत्ती लेकर किया गया उनका विरोध प्रदर्शन, पूर्व में किए गए उनके कई विरोध प्रदर्शनों और गेस्ट अपियरेंस की एक ताजा कड़ी भर है. कठुआ बलात्कार कांड को हुए तीन महीने हो गए हैं, ये एक ऐसी घटना थी जिसने जनवरी महीने में लंबे समय तक पूरे जम्मू-कश्मीर में अशांति फैला रखी थी. ये भी हर कोई जानता है तब जब इस घटना का विरोध हो रहा था तब उनकी अपनी ही पार्टी के कई नेता, बीजेपी और पैंथर्स पार्टी के अन्य नेताओं के साथ मिलकर जम्मू में आरोपियों को बचाने की कोशिश कर रहे थे.
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तब राहुल गांधी कहां थे? इस पूरे दरम्यान उन्होंने एक सुखद शांति ओढ़ते हुए जम्मु और कठुआ में हुए इन हैवानियत और बेशर्म घटनाओं को पूरी तरह से नजरअंदाज किया. उन्होंने अपनी ही पार्टी के नेताओं-कार्यकर्ताओं को आरोपियों के समर्थन में प्रदर्शन करने के लिए न डांटा न कोई सजा दी. उन्होंने कठुआ रेप पीड़िता के साथ हुई बर्बरता के बारे में न संसद में बात करने की कोशिश की न संसद से बाहर, कहीं किसी एक मंच पर भी नहीं. लेकिन अब जबकि इस मुद्दे पर पूरा देश सड़कों पर उतर रहा है तब वे भी नींद से जाग गए हैं और एक बार फिर अपने चिर-परिचत अंदाज में प्रतिक्रिया देने की कोशिश रहे हैं, ऐसी खानापूर्ति वाली प्रतिक्रिया जो उनकी ट्रेडमार्क या पहचान बन गई है.
प्रदर्शन का हिस्सा बनने वाला नेता
आप ऐसे किसी राजनेता को क्या नाम देना चाहेंगे जो एजेंडा बनाता नहीं है बल्कि उसका अनुसरण करता है? आप ऐसे पार्टी अध्यक्ष को क्या कहना चाहेंगे जो किसी विरोध प्रदर्शन की अगुवाई नहीं करता है बल्कि आम जनता की तरह का उस प्रदर्शन का हिस्सा भर बन जाता है? आप एक ऐसे युवा व्यक्ति को क्या कहेंगे जिसकी कुंद पड़ी भावुकता तभी चौंकती है जब भारत की जनता सड़कों पर उतर जाती है? ऐसे व्यक्ति को राहुल गांधी कहा जाता है.
वे ऐसा एक नहीं बार-बार करते रहे हैं. इससे पहले भी वे भट्टा परसौल पहुंचे थे, जेएनयू गए थे, हैदराबाद और राजस्थान के गोपालगढ़ भी पहुंचे थे जहां मेवाती मिओस का संहार हुआ था, किसी और के नहीं अशोक गहलौत के इशारे पर. ये वही अशोक गहलोत हैं जो संयोग से गुरूवार के प्रदर्शन के दौरान राहुल गांधी के साथ-साथ चल रहे थे, सिर्फ यहां नहीं वे हर उस जगह राहुल के साथ होते हैं जहां वे विरोध जताने जाते हैं और फिर उनसे किनारा कर लेते हैं.
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याद करिए कि कैसे रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद राहुल ने कितना शोर मचाया था, मानव संसाधन विकास मंत्री पर कितने तेज हमले किए थे, लेकिन जब उसी मुद्दे पर संसद में बहस हो रही थी तब वे गायब थे. ये भी याद कर लीजिए कि अपनी सरकार के उस बिल को उन्होंने कैसे गुस्से में फाड़ दिया था, जिसमें अपराधी ठहराए हुए नेताओं को चुनाव लड़ने से रोकने की बात कही गई थी, तब उन्होंने लालू प्रसाद यादव से हाथ मिला लिया था, वो लालू यादव जिन्हें कथित तौर पर इस बिल के न बन पाने का सीधा फायदा मिलता.
राहुल गांधी को बेशक इस बात का अधिकार हासिल है कि वे त्रासदियों पर राजनीति करें, घटनास्थलों पर पहुंचे, चीखे-चिल्लाएं गुस्सा दिखाएं और विरोध प्रदर्शन भी करें, ये उनका जनतांत्रिक अधिकार है. लेकिन, उनके साथ दिक्कत ये है कि ऐसा करते हुए भी वे एक नेता की तरह बर्ताव नहीं करते, उनका बर्ताव बस एक ऐसे मौकापरस्त की तरह होता है जो किसी सजे हुए मंच पर अपना भूमिका निभाने आया है.
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