लोकतांत्रिक देशों में कानून और राजनीति के बीच एक अजीब सा रिश्ता होता है जिसे हमेशा तय सिद्धांतों के आधार पर समझाया नहीं जा सकता.
पिछले दिनों कर्नाटक में जो कुछ भी हुआ वह इसी का एक उदाहरण है. भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत कम संख्या वाली पार्टी अगर अपना बहुमत साबित कर लेती है तो वह सरकार बना सकती है.
सरकार और राज्यपाल के पास अपना विवेक होना बेहद जरूरी है. अधिकारों के गलत इस्तेमाल को कम करने और रोकने के लिए संविधान में कई प्रावधान हैं. हालांकि वे इतने प्रभावशाली नहीं हैं कि ताकत के मनमाने इस्तेमाल पर काबू पा सकें.
परिपक्व लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में ऐसी प्रथाओं का पालन किया जाता है जो संवैधानिक कानून का हिस्सा बन चुकी हैं. संवैधानिक संस्थाएं इन कानूनों का पालन करने के लिए बाध्य होती हैं. एक स्वतंत्र न्यायपालिका के पास जुडिशियल रिव्यू का अधिकार होता है. विवेकाधीन अधिकारी जब फैसले लेने के दौरान इन व्यवस्थाओं का पालन नहीं करता तो न्यायपालिका दखल दे सकती है. ऐसा ही कर्नाटक में हुआ.
अब सवाल उठता है कि क्या यह संभव है कि ऐसे संवैधानिक नियम बनाए जाएं जिनका, त्रिशंकु विधानसभा बनने की स्थिति में, पालन करना राज्यपाल के लिए अनिवार्य हो? बेशक यह संभव है. हालांकि कोई भी व्यवस्था राज्यपाल के विवेकाधिकार पर रोक नहीं लगा सकती है.
त्रिशंकु विधानसभा बनने की स्थिति में करते हैं राज्यपाल
त्रिशंकु विधानसभा बनने की स्थिति में बोम्मई जजमेंट का पालन किया जाता है. इसके तहत राज्यपाल को सरकार बनाने के लिए उस पार्टी को न्योता देना होता है जिसके पास सबसे ज्यादा निर्वाचित सदस्यों का समर्थन होता है. यह एक मजबूत सिद्धांत है जिसका पालन किया जाना चाहिए.
लेकिन समस्या तब शुरू होती है जब पार्टियां चुनाव से पहले या नतीजों के बाद दूसरी पार्टियों से जोड़-तोड़ कर बहुमत हासिल करती हैं. क्या चुनाव से पहले या नतीजों के बाद के गठबंधन के लिए अलग-अलग मानक होने चाहिए? या फिर क्या गठबंधन समान एजेंडा पर आधारित है या यह सिर्फ सत्ता हासिल करने का आसान तरीका है? इन सवालों का जवाब ढूंढने के लिए राज्यपाल को अपने विवेक का इस्तेमाल करना होता है और फिर उन्हें एक ऐसा फैसला लेना होता है जो संविधान और लोकतंत्र की भावना के अनुकूल हो.
इसके लिए वह राजनीतिक पार्टियों, कानूनी जानकारों से सलाह ले सकते हैं और अन्य लोकतांत्रिक देशों में जिन व्यवस्थाओं का पालन होता है उन्हें अपना सकते हैं. इस संबंध में पूरी तरह अपने विवेकाधिकार का इस्तेमाल कर पाना न संभव है और न ही वांछनीय. क्योंकि बाद में क्या स्थिति बनेगी इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता है. इसका एक ही रास्ता है कि राज्यपालों की नियुक्ति समझदारी से हो और अतिरिक्त संवैधानिक हस्तक्षेप से बचा जाए.
अब समय आ गया है कि हम इस बात पर विचार करें कि क्या राज्यपाल का पद बनाए रखना जरूरी है. इस पद की वजह से हाल के दिनों में कई ऐसे विवाद हुए हैं जिनसे बचा जा सकता था. उनके पास मौजूद अधिकारों को देखते हुए इस पद को बनाए रखने के लिए कोई तर्क नहीं दिया जा सकता है.अब राज्यपाल की जिम्मेदारियों को स्पीकर, चुनाव आयोग या राज्य के हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को सौंपने पर भी विचार किया जा सकता है.कुछ भी हो जाए राजनीति के लिए कोई भी भारत में लोकतंत्र की हत्या नहीं कर सकता है.
भारत की जनता यानी हमारे पास पूरी ताकत है और यदि गेंद हाथ से निकलती नजर आती है तो हम खेल रोक भी सकते हैं. सत्ता में आने और बने रहने के लिए नेता चाहे जितनी गंदी राजनीति कर लें, संविधान और लोकतंत्र को बचाए रखने के लिए एक सतर्क मीडिया और निर्भीक न्यायपालिका जनता के साथ है.
(प्रोफेसर एनआर माधव मेनन की न्यूज 18 के लिए रिपोर्ट)
(लेखन नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया यूनिवर्सिटी (NLSIU) के फाउंडर डायरेक्टर हैं. कानूनी शिक्षा के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए उन्हें पद्मश्री से भी सम्मानित किया जा चुका है. यह उनकी व्यक्तिगत राय है.)
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