येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री बनाने में कर्नाटक के राज्यपाल और बीजेपी की थुक्का-फजीहत और फिर सुप्रीम कोर्ट के दखल से आनन-फानन में विश्वास मत पाने में उनके नाकाम हो जाने से कांग्रेस-जेडीएस सत्ता के करीब तो पहुंच गए मगर इससे उनके आपसी रिश्तों पर दबाव भी बढ़ गया है. यूं भी जेडीएस अध्यक्ष और पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा तथा कांग्रेस के रिश्ते अब तक कोई मधुर नहीं रहे हैं. देवगौड़ा परिवार का पिछली दो बार कांग्रेस से मोहभंग हो चुका है मगर न जाने विधि के किस विधान के तहत दोनों को बार-बार एक-दूसरे का मुंह जोहना पड़ता है!
सेकुलरिज्म के झंडाबरदार दोनों ही दलों के कंधों पर अब कर्नाटक की जनता के विश्वास को बरकरार रखने के लिए गहरी आपसी समझबूझ से सरकार चलाने की जिम्मेदारी है. इन्हें धूप-छांव के शिकार रहे आपसी रिश्तों तथा स्वार्थों और अहंकार को ताख पर रख कर आगे बढ़ना होगा. क्योंकि माना यह जा रहा है कि कर्नाटक की गठबंधन सरकार से ही 2019 के आम चुनाव के लिए पूरे देश में विपक्षी गठबंधन का अंकुर फूटेगा.
तीनों पार्टियों का आपस में रहा है अजीब इतिहास
देवगौड़ा के छोटे बेटे और जनता दल-सेकुलर के प्रदेश अध्यक्ष एच डी कुमारस्वामी की सदारत में जेडीएस-कांग्रेस गठबंधन सरकार द्वारा 23 मई को संविधान की शपथ लेकर कामकाज संभालने की घड़ी मुकर्रर हुई है. बीजेपी को 104 सीट जिता कर मुख्यमंत्री बनने के बावजूद येदियुरप्पा और आठ विधायकों का जुगाड़ करके बहुमत सिद्ध नहीं कर पाए. इस तरह उन्हें कुमारस्वामी के कारण दूसरी बार मुख्यमंत्री की कुर्सी से हाथ धोना पड़ा है. इस बार वे महज दो दिन ही मुख्यमंत्री रह पाए. हालांकि वे पहली बार मुख्यमंत्री भी कुमारस्वामी के समर्थन से ही बने थे.
येदियुरप्पा को 2007 में पहली बार मुख्यमंत्री बनवा कर जेडीएस ने महज सात दिन बाद ही समर्थन वापस लेकर उनकी सरकार गिरा दी थी. इस बार कांग्रेस द्वारा कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री मंजूर करके गठबंधन सरकार बनाने का पासा नतीजे आते-आते ही फेंक देने के कारण येदियुरप्पा और बीजेपी की दाल नहीं गल पाई. येदियुरप्पा ने सदन में अपने भाषण में हालांकि अटल बिहारी वाजपेयी की नकल की कोशिश की जैसा 1996 में अपनी 13 दिन की सरकार गिरने पर उन्होंने संसद में किया था. उनसे पहले चौधरी चरण सिंह की भी अल्पसंख्यक- अल्पकालिक सरकार संसद का मुंह देखे बिना ही 1979 में गिर गई थी.
बहरहाल कर्नाटक की नई सरकार को तलवार की धार पर चलना पड़ेगा. विपक्षी बीजेपी, 224 विधायकों के सदन में 104 विधायकों के साथ सरकार का जीना हराम करने के साथ ही हर समय उसे तोड़ने की फिराक में रहेगी. ऊपर से अपने 38 विधायकों के मुकाबले गठबंधन सहयोगी कांग्रेस के 78 विधायकों का बोझ भी मुख्यमंत्री कुमारस्वामी की गर्दन को झुकाए रखेगा. ऐसे में यदि कुमारस्वामी और उनके पिता देवगौड़ा को कांग्रेस की किसी भी हरकत से उसका खुद से पिछला सलूक याद आ गया तो चुनावी वायदे पूरे करने के बजाए गठबंधन आपसी खींचतान का शिकार होकर ही न रह जाए.
देवगौड़ा ने रोते हुए कांग्रेस को कोसा था
कांग्रेस से देवगौड़ा का मन पहली बार 1997 में खट्टा हुआ. साल 1996 में बीजेपी की 13 दिन चली सरकार के इस्तीफे के बाद सपा, जनता दल, वाममोर्चा आदि सहित तीसरे मोर्चे को कांग्रेस ने बाहर से समर्थन देकर देवगौड़ा के नेतृत्व में संयुक्त मोर्चा सरकार बनवा दी थी.
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प्रधानमंत्री पद के लिए देवगौड़ा की उम्मीदवारी का समर्थन तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष एवं पूर्व प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव ने किया था. राव को 1996 के आम चुनाव में सत्ता छिनने पर देर-सवेर पार्टी अध्यक्ष पद छोड़ना पड़ा. उनकी जगह 1997 में कांग्रेस के कोषाध्यक्ष सीताराम केसरी को सोनिया गांधी के समर्थन से कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया . केसरी ने फौरन देवगौड़ा को 'निकम्मा' बता कर उनका पत्ता साफ किया और पूर्व कांग्रेसी आईके गुजराल को प्रधानमंत्री बनवा दिया. इस बात से देवगौड़ा इतने आहत हुए कि संसद में अपने विदाई भाषण में निकम्मा शब्द को 'निकमा' दोहराते-दोहराते वे रो ही दिए थे. उन्होंने कहा था कि कांग्रेस उन्हें पिछड़ी जाति का होने के कारण बरदाश्त नहीं कर पाई और उसे, इसकी कीमत जरूर चुकानी पड़ेगी.
देवगौड़ा कर्नाटक के मुख्यमंत्री का पद छोड़ कर प्रधानमंत्री बने थे लेकिन प्रधानमंत्री बनने के बाद पुनर्मूषक यानी फिर से राज्य के मुख्यमंत्री कैसे बनते! देवगौड़ा के पिछले 21 साल इसी उहापोह में बीते हैं. इसलिए उनकी टीस बेहद गहरी है. उसके बावजूद वे अपने बेटे को मुख्यमंत्री बनाने की खातिर तीसरी बार कांग्रेस का दामन थाम रहे हैं.
कर्नाटक में देवगौड़ा ने अपने जनता दल का कांग्रेस से गठबंधन पहली बार 2004 में किया था. तब एस.एम. कृष्णा की सदारत में पांच साल कर्नाटक में शानदार सरकार चलाने के बावजूद मतदाता ने विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 65 सीटों पर समेट दिया था. बेंगलुरु को सिलिकॉन वैली की तरह साइबर सिटी बनाने में कृष्णा का ही मुख्य हाथ था. तब देवगौड़ा का जनता दल सेकुलर 58 और बीजेपी 79 सीट पर चुनाव जीती थी.
बीजेपी की किसी भी दक्षिणी राज्य में तब तक की यह सबसे बड़ी जीत थी. उसके बावजूद जनता दल का समर्थन न मिलने पर वह सरकार बनाने से महरूम हो गई थी. लंबी सौदेबाजी के बाद आखिरकार राज्य में कांग्रेस के धरमसिंह के नेतृत्व में जेडीएस के साथ गठबंधन सरकार बनी जिसमें सिद्धारमैया उपमुख्यमंत्री थे. यह कर्नाटक की पहली गठबंधन सरकार थी. लेकिन देवगौड़ा के बेटे एच.डी कुमारास्वामी की मुख्यमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा ने सरकार को कार्यकाल पूरा नहीं करने दिया.
कुमारास्वामी की महात्वकांक्षा को बीजेपी झेल नहीं पाई थी
कुमारास्वामी ने 2006 में ही देवगौड़ा से नूरा कुश्ती के तहत अपनी ही पार्टी तोड़कर 46 विधायकों के साथ बीजेपी के 77 विधायकों के सहारे मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली. इसके बावजूद कुमारास्वामी की महत्वाकांक्षा को बीजेपी झेल नहीं पाई. गठबंधन सरकार अक्टूबर 2007 में गिर गई. इसके बाद मई 2008 में हुए विधानसभा के मध्यावधि चुनाव में बीजेपी ने बहुमत से सरकार बनाई. उसमें कांग्रेस के 73 तथा जेडीएस के 28 विधायक चुने गए.
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कुमारास्वामी ने 2008 में बीजेपी की सरकार बनने के बाद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मुलाकात करके गिले-शिकवों को रफा-दफा कर दिया. उन्होंने 2010 के अक्टूबर में बीजेपी के 14 विद्रोही और पांच निर्दल विधायकों को मिलाकर कांग्रेस और जेडीएस की गठबंधन सरकार बनाने की कोशिश में कांग्रेस आलाकमान को भी पटा लिया था. लेकिन मुख्यमंत्री येदियुरप्पा ने आखिरी दम तक जोर लगाया और बेलारी के खनन माफिया रेड्डी बंधुओं की मदद से अपनी सरकार बचाने में कामयाब रहे.
इस तरह कांग्रेस से अनेक बार संबंध बिगाड़ के बावजूद देवगौड़ा पिता-पुत्र की जोड़ी उसके साथ ही हाथ भी मिलाते रहे हैं. यूपीए सरकारों को भी जेडीएस समर्थन देता रहा है. अब उसी समीकरण का फायदा उठाकर कुमारास्वामी फिर से कर्नाटक के मुख्यमंत्री की गद्दी पर बैठने जा रहे हैं. कांग्रेस को भी बीजेपी और मोदी-अमित शाह को मुंहतोड़ जवाब देने के लिहाज से यह रास आ रहा है.
वैसे भी मोदी-शाह के लिए कर्नाटक की जीत का स्वाद तो कुमारास्वामी को मुख्यमंत्री बनाने का धोबीपाट मारकर कांग्रेस फीका कर ही चुकी है. कुल मिलाकर देखना यही है कि जेडीएस-कांग्रेस की सरकार अपनी स्थिरता पर चौबीस घंटे लटकने वाली मोदी-शाह की तलवार से कैसे निपटेगी? तब यदि कांग्रेस और जेडीएस को अपनी सारी शक्ति अपने विधायकों को सत्ता की रेवड़ियां बांट कर उन्हें जोड़े रखने पर ही लगानी पड़ी तो सरकार काम कब करेगी?
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)
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