अगले साल यानी 2019 को होने वाले देश के सबसे बड़े और निर्णायक चुनाव से पहले संपन्न होने वाले तीन बड़े राज्यों के चुनावों में से एक शनिवार को खत्म हो गया. जैसा कि हमें अंदाज़ा था इस चुनाव में वो सभी मसाले मौजूद थे जिसका हमें और देश की जनता को इंतज़ार था.
मसलन, राजनेताओं का एक-दूसरे पर कीचड़ उछालना, जातीय समीकरण, नेताओं का धार्मिक मठों में जाना, इतिहास की बातें करना और खुद का व्यवहार नाटकीय रखना- जिसमें थोड़ा बहुत तथ्य या सच्चाई भी मौजूद होता. इस सबके बीच में खो गया वो मौका जिसमें सार्थक चुनावी बहस और विचार-विमर्श किया जा सकता था, वो मौका जो पांच साल में एक बार आता है, वो मुद्दे जो महत्वपूर्ण होते हैं या होने चाहिए. फिर ऐसे मुद्दों की कोई कमी भी नहीं थी, इसकी समझ हमें अपनी कर्नाटक यात्रा को दौरान हुआ.
पानी की कमी बड़ी समस्या
कर्नाटक की पानी की कमी की समस्या पर ज़रा ध्यान दीजिए. इसी साल मार्च में जब दक्षिण अफ्रीकी शहर केपटाउन पानी की कमी से जूझ रहा था तब वहां की मीडिया दूसरे शहरों के भविष्य के बारे में बातें कर रही थीं. एक लेख में तो यहां तक कहा गया था कि, भारतीय शहर बेंगलुरू ऐसा शहर है जिसका हश्र जल्द ही केपटाउन जैसा हो सकता है. भारत का ये पांचवे नंबर का मेट्रो शहर पानी की समस्या से बुरी तरह से ग्रसित है. तब ऐसे में, क्या ये चौंकाने वाली बात नहीं है कि, ये शहर जब पांच साल में एक बार वोट के लिए तैयार होता है तब न तो इसके बाशिंदे और न ही इसके नेता पानी को छोड़कर सभी फिज़ूल के मसलों और मुद्दों पर चर्चा करते हैं लेकिन पानी को भूल जाते हैं?
कर्नाटक पिछले तीन साल से लगातार सूखे जैसे हालात की चपेट में है और सिद्धरमैया की सरकार का इस ओर लगभग न के बराबर ध्यान है. उनकी सरकार इस मुद्दे पर जितनी लापरवाह हो सकती है वो है. इसके विपरीत एसएम कृष्णा की सरकार ने मैसूर और उससे सटे आसपास के इलाकों में सूखे जैसे हालात का काफी बेहतर तरीके से सामना और निपटारा किया था. लेकिन यहां इस समय से ऐसा लग रहा है कि सूखे जैसी हालात से निपटने के लिए मौजूदा सरकार में मजबूत इच्छाशक्ति और लगातार की जाने वाली कोशिश की कमी है.
मैसूर और आसपास के इलाकों में गन्ना और चावल की खेती होती है, जिन्हें काफी पानी की ज़रूरत होती है, लेकिन यहां के खेत जुताई के लिए तभी तैयार हो पाते हैं जब उन्हें कावेरी नदी से पानी मिल पाता है. ऐसे में ये जरूरी हो गया है कि इन इलाकों में बारिश के पानी का संग्रहण किया जाए और ड्रिप इरिगेशन जैसी खेती की आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल कर पानी की खपत को कम किया जा सके.
अगर यहां की सरकारें ये तय कर लें कि वो किसी भी हालत में कर्नाटक पानी के मामले में आत्मनिर्भर बनाएगी और इलाके में पानी का संरक्षण करेगी, तो लोगों के साथ उनके संबंध बेहतर हो पाएंगे. पूरे कर्नाटक राज्य में जहां बढ़ती आबादी, शहरीकरण और अनेकानेक प्रकार के फसलों की खेती होती है वहां अगर सरकारें पानी के संरक्षण का प्रण कर ले और भविष्य में बेहतर माहौल बनाने का वादा करे तो मुमकिन है कि राज्य की जनता के बीच उनकी पैठ और गहरी होगी.
राज्य भर में घूमने के दौरान हमें ये बार-बार एहसास हुआ कि वहां के मतदाताओं को एक खास तरह से संबोधित किया जा रहा है. अगर हम ये कहें कि उनके साथ कूटनीति के तहत अलग तरह का व्यवहार किया जाता है तो ये गलत नहीं होगा. टेक्नोलॉजी और डाटा का खुलकर इस्तेमाल किया जा रहा है, इसकी मदद से मतदाताओं के साथ किए जाने वाले संवाद को बढ़ाया चढ़ाया जा रहा है, जिससे एक राजनीतिक धुंध की चादर का निर्माण किया जा रहा है, ताकि लोगों का ध्यान असल मुद्दों से हटाकर दूसरी तरफ कर दिया जाए.
उदाहरण के तौर पर जिस तरह से पानी के मुद्दे को चुनावी बहस में शामिल किया गया हम उसे देख सकते हैं. बेंगलुरु से ठीक बाहर आते हुए और मैसूर की तरफ बढ़ते हुए, आप खेतों में धान और गन्ने की फसल की खेती होते हुए देख सकते हैं. ये इलाका राज्य के शुगरकेन बेल्ट यानी गन्ने का क्षेत्र भी कहलाता है, जहां चीनी का उत्पादन बड़े पैमाने पर होता है. इसके बावजूद यहां पानी की काफी कमी है. कावेरी नदी जो यहां के लोगों के सामाजिक-आर्थिक जीवन की धुरी है वो लगभग पूरी तरह से सूख गई है.
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एक ऐसे राज्य में जहां की खेती काफी विविध है, वहां तकनीक का काफी अच्छे से इस्तेमाल किया जा सकता है. वहां के लोग टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल कर खेती के लिए पानी का काफी बेहतर इस्तेमाल कर सकते हैं. इसके साथ-साथ वहां के हरित इलाके के संरक्षण को लेकर भी काफी विचार-विमर्श किया जा सकता है और कई तरह के कदम भी उठाए जा सकते हैं, जैसे कि बारिश के पानी के संरक्षण के लिए ढांचों का निर्माण किया जा सके.
बेंगलुरु और आसपास के शहरों में पानी का स्तर काफी नीचे जा चुका है, जो चिंता विषय बन गया है. आसपास के इलाकों में जंगल के इलाके भी लगातार कम होते जा रहे हैं, इसके लिए हमें टिंबर के माफियाओं का शुक्रगुजार होना चाहिए. अवैध तरीके से किया जाने वाला रेत का खनन भी एक ऐसा मुद्दा है जो उन लोगों को लगातार परेशान कर रहा है जिन्हें इन्हें काफी ऊंची कीमत में इसे खरीदना पड़ रहा है. जिस तरह से लोगों को अपनी जरूरत के लिए भी रेत नहीं मिल पा रही है और स्थानीय विधायकों मदद से उनका अवैध खनन हो रहा है उससे यहां के लोगों में काफी गुस्सा व्याप्त है. यहां ये बताना जरूरी है कि इनमें से ज्यादातर विधायक कांग्रेस पार्टी के हैं.
बेंगलुरू से टुमकूर जाने के रास्ते में हमने हाईवे का रास्ता पकड़ा, उसपे चलते हुए हम चित्रदुर्गा और चेन्नागेरे के इलाकों से गुजरे. इन इलाकों से गुजरते हुए हमें बहुत ही सुंदर और शांत देहात नजर आया, जिसमें बीच-बीच में कहीं-कहीं पर छोटी-छोटी पहाड़ियां भी दिख गईं. लेकिन इनमें से ज्यादातर पहाड़ियां हमें बंजर दिखीं क्योंकि जिसतरह से यहां बिना सोचे-समझे पेड़ों और जंगल को काटा गया है उससे ये इलाका पर्यावरण के स्तर पर काफी नाजुक दिखा. यहां के छन्नागिरी से जेडीयू के उम्मीदवार और कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री जेएच पटेल के बेटे महिमा पटेल के मुताबिक, ‘वे यहां एक ऐसे आंदोलन के साथ जुड़े हुए थे जो इलाके में जंगलों की पुनर्स्थापना के काम में लगा था. यहां के जंगल इलाके में औद्योगिक विकास के कारण पूरी तरह से नष्ट हो गए थे.’
लेकिन चुनाव के शोर-शराबे और में इनमें से किसी भी एक मुद्दे पर न तो कोई बातचीत की गई न ही चुनाव प्रचार के दौरान उसपर कुछ भी कहा गया. ये एक ऐसा चुनाव प्रचार था जिसमें हर तरफ बस आक्रमक शाब्दिक हमले किए गए जो मूल रूप से सांप्रदायिक हुआ करते थे. अगर कोई नेता वोक्कालिगस के बारे में बातें करता था तो कोई लिंगायत या कुरुबा समुदाय का मुद्दा उछाल देता था. और जनता में से हर कोई अपने नेताओं की इन आंडबरपूर्ण चर्चा को बड़े ही ध्यान से सुन रहा होता था. लोगों में खासतौर पर सिद्धरमैया के मास्टर स्ट्रोक को लेकर चर्चा थी कि, कैसे उन्होंने लिंगायत समुदाय को अलग और अल्पसंख्यक धर्म का दर्जा देने की घोषणा करके मास्टर स्ट्रोक खेला है. लेकिन दूसरी तरफ जानकार और विशेषज्ञ इस बात की चर्चा कर रहे थे कि कैसे बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने छोटी और पिछड़ी जातियों के समूह को अपनी तरफ कर लिया था. इनमें से कई ओबीसी और अनुसूचित जाति और जनजाति समूह से आते थे.
चुनाव के दौरान जिन मुद्दों की अनदेखी की गई:
सरकारी कामकाज की बारीक पड़ताल
कर्नाटक चुनाव प्रचार के दौरान ये देखने को मिला कि जैसे-जैसे प्रचार अपने चरम पर पहुंच रहा था, वैसे-वैसे चुनावी बहस पीछे यानी भूतकाल की तरफ जा रही थी. जैसे- के. थिमैय्या की बात हुई फिर भगत सिंह की- लेकिन राज्य के भविष्य के बारे में कोई भी कुछ भी बोलने से बच रहा था. ये कि राज्य के दोनों मुख्य विपक्षी पार्टियां राज्य को किस तरह से विकास के मार्ग पर आगे लेकर जाएंगी, उनका प्लान ऑफ एक्शन विकास को लेकर क्या है?
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कर्नाटक में जिस तर्ज पर शहरीकरण हो रहा है उसे अराजकता से ज्यादा कुछ कहा नहीं जा सकता है, जहां भू-माफिया और भ्रष्ट रियल स्टेट डेवेलपर्स को खुली छूट दे दी गई है. अगर कोई भी दल राज्य में शहरीकरण को लेकर एक पुख़्ता सोच और योजना लेकर सामने आती तो लोगों के बीच उनकी अच्छी पैठ बन पाती. लेकिन, चुनावी घोषणापत्रों की भीड़ में सरकारी कामकाज, गवर्नेंस और विकास को लेकर कुछ भी अच्छा और ठोस नहीं कहा गया.
पुराना ट्रैक रिकॉर्ड
कांग्रेस ने राज्य में पूरे पांच साल तक राज किया है, जबकि यहां की दूसरी दावेदार बीजेपी ने न सिर्फ इस राज्य में पहले भी अपनी सरकार चलाई है बल्कि केंद्र में भी उसकी सरकार को आए चार साल पूरे हो गए हैं. इसके बावजूद ऐसा लगता है कि दोनों ही पार्टियों को सार्वजनिक मंच पर से सार्थक बहस में शामिल होने से या तो डर लगता है या उन्हें शर्म आती है. वे एक दूसरे पर तंज तो कस रहे थे, नीचा दिखाने की भी कोशिश कर रहे थे लेकिन जहां बात वाद-विवाद करने या अपनी सरकार की कामयाबियों को गिनाने की आती तो दोनों ही मुंह छिपा लेते.
जैसे- उदारहण के लिए देखें तो, कांग्रेस पार्टी लगातार अपने चुनाव प्रचार के दौरान अपने समर्थकों या मतदाताओं जो कि ज्यादातर शहरी क्षेत्र से आते हैं और काफी बातूनी थे उन्हें ये बताने में लगी थी कि केंद्र की चार साल पुरानी बीजेपी सरकार के पास दिखाने कोई कामयाबी है ही नहीं. इस सवाल ने उन लोगों के बीच जरूर एक तनाव पैदा किया जो जाति और सांप्रदायिक बिंदु पर काफी बंटे हुए थे. दूसरी तरफ- कांग्रेस के आरोप के बाद बीजेपी ये बताने में लग गई कि कांग्रेस पार्टी ने पिछले छह दशकों में राज्य और देश का कितना बेड़ा गर्क किया है.
सामाजिक विघटन
हालांकि, कर्नाटक को भारत की आईटी पावर का इंजन कहा जाता है, लेकिन सिद्धरमैया ने जिस तरह से यहां डिवाईड एंड रूल की राजनीति की, उससे ये राज्य, सालों पहले लालू यादव के राज वाला बिहार दिखने लगा है. उन्होंने जिस तरह से एक जाति को दूसरी जाति के खिलाफ़ खड़ा किया, उसे देखकर ऐसा लग रहा था कि मानो सिद्धरमैया बिहार के इस नेता यानी लालू यादव से काफी प्रभावित हैं. ये सब करते हुए वे ये भी भूल गए कि लालू यादव के स्टाईल की राजनीति करने वालों को कितना नुकसान उठाना पड़ सकता है.
ज्यादा वोट पाने की जुगत लगाते हुए सिद्धरमैया ने राज्य के लिंगायत समुदाय को अल्पसंख्यक धर्म का दर्जा देने का ऐलान तो कर दिया, लेकिन वे ये नहीं देख पाए कि राज्य के जो पढ़े-लिखे और विकासशील कन्नडिगा समुदाय के बीच जो भावना सबसे ज्यादा प्रबल होती जा रही थी वो ये था कि, ‘हमें जल्द से जल्द सिद्धरमैया से बचाया जाए.’
संकीर्णता-प्रांतीयता
ऐतिहासिक और सांस्कृतिक तौर पर ये देखा गया है कि एक राज्य के तौर पर कर्नाटक ने हमेशा से प्रांतीयता और संकीर्णता से दूरी बनाकर कर रखी है. उसने अपने यहां किसी भी तरह संकीर्णता, सामाजिक, जातिगत और कट्टरपंथ के आधार पर किसी तरह की दूरी या अलगाव को जगह नहीं दी
है. कर्नाटक ने हमेशा से राजनीतिक पथ और संवाद का चुनाव किया है, जो आगे चलकर देश को चलाने वाली राष्ट्रीय राजनीति से मिल जाती है. इस बार के चुनावों में ऐसा पहली बार देखा गया है कि कैसे कुछ स्वार्थी तत्व जानबूझ कर पूरी ताकत के साथ इस कोशिश में लगे थे कि वे राज्य और राज्य की राजनीति को उपराष्ट्रवाद की तरफ लेकर जाने में लगी थी. हालांकि, एक राजनीतिक हथियार के तौर पर ये उन राज्यों में फेल हुई है जहां क्षेत्रीय दल मजबूत स्थिती में रहे हैं. सिद्धरमैया ने वोट की खातिर जो चाल चली है वो हो सकता है कि लंबी लड़ाई में राज्य की जनता के साथ किया गया सबसे बड़ा अन्याय साबित हो.
(यह लेख Governance Now के 1-15 मई के संस्करण में छप चुका है)
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