कर्नाटक में एचडी कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह में ऐसा नजारा देखने को मिला जिसकी उम्मीद राजनीतिक पंडितों ने भी शायद ही की हो. मंच पर सोनिया गांधी और मायावती एक दूसरे का हाथ ऐसे थामे हुई थी जैसे दो बिछड़े दोस्तों की काफी दिनों के बाद मुलाकात हो रही हो. दोनों ने एक दूसरे के कंधे पर स्नेहवश ऐसे हाथ रखा हुआ था जैसे दोनों में गहरी दोस्ती हो.
खास बात ये थी कि इस मुलाकात में कोई भी एक दूसरे पर हावी होने की कोशिश नहीं कर रहा था. दोनों के बीच दिख रही केमिस्ट्री शानदार थी और जब शपथ ग्रहण समारोह समाप्त हो गया तो पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने राष्ट्रीय लोक दल के मुखिया अजीत सिंह से अनुरोध किया वो फोटो के लिए मायावती को साथ में आने देने के लिए थोड़ी जगह दे दे जिससे कि मायावती उनके बगल में खड़ी हो सकें.
लेकिन बेंगलुरु के विधानसभा में आयोजित कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह का ये इकलौता चौंकाने वाला नजारा नहीं था. कुछ ही पल के बाद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू एक-दूसरे के साथ मंच के दूसरे कोने में साथ में खड़े नजर आए. दोनों का एक साथ खड़ा होना इसलिए मायने रखता था क्योंकि कुछ ही दिनों पहले तक दोनों एक दूसरे को देखना तक पसंद नहीं करते थे.
ऐसा इसलिए क्योंकि आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू की तेलगु देशम पार्टी और कांग्रेस एक-दूसरे के कट्टर विरोधी हैं इसके अलावा कुछ दिनों पहले तक टीडीपी एनडीए के संग खड़ी दिखती थी. लेकिन अब वहां की भी परिस्थितियां बदल रही हैं. एक तरह जहां बीजेपी टीडीपी के साथ गठबंधन तोड़ कर राज्य में अपने पैर पसारने की जुगत भिड़ा रही है वहीं दूसरी तरफ राज्य में जगन रेड्डी का वायएसआर कांग्रेस टीडीपी को चुनौती देने में जुटा हुआ है ऐसे में आंध्र प्रदेश की राजनीति में राहुल और चंद्रबाबू के इस कार्यक्रम में खींचे गए 'पिक्चर परफेक्ट' के बाद किसी तरह का बदलाव नजर आए तो कोई आश्चर्य नहीं होगा.
हालांकि मंच पर चढ़ने के दौरान चंद्रबाबू को एसपीजी कवर के बीच घिरी सोनिया और राहुल के ठीक पीछे मंच पर आने में थोड़ी असुविधा महसूस हुई लेकिन चंद्रबाबू को दिख रहे बड़े लक्ष्य के सामने उनकी ये परेशानी जल्द ही काफूर हो गयी. चंद्रबाबू भी इस बात को बखूबी समझते हैं कि दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है.
मंच के एक और कोने में सीताराम येचुरी और ममता बनर्जी एक दूसरे के सामने मैत्रीपूर्ण वातावरण में खड़े थे. ये वही ममता हैं जो एक जमाने में सीपीएम की ओर देखना तक पसंद नहीं करती थीं वो शपथ ग्रहण समारोह में सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी के साथ एक मंच पर खड़ी थीं. विपक्षी दलों के इस एकजुट मंच पर ममता को देखना मजेदार था, क्योंकि ममता बीजेपी के खिलाफ लड़ाई के लिए काफी समय से एक फेडरल फ्रंट या रीजनल फ्रंट बनाने की वकालत कर रही थीं.
ममता मंच पर मौजूद क्षेत्रीय क्षत्रपों से खुलकर मिल रही थीं और ऐसा संदेश देने की कोशिश कर रही थीं कि वो सह मेजबान की भूमिका में हैं, लेकिन इसके बाद भी उन्होंने गांधी परिवार के नजदीक जाने की कोशिश नहीं की. केवल कार्यक्रम के अंत में जब सभी नेता वापस जा रहे थे उस वक्त ममता और सोनिया गांधी फोटोग्राफरों को एक फ्रेम में दिखाई दीं और उस फ्रेम में भी सोनिया के साथ मायावती मौजूद थीं.
इन रोचक नजारों के बीच कर्नाटक के मुख्यमंत्री एचडी कुमारास्वामी और उप मुख्यमंत्री जी परमेश्वरन का शपथ ग्रहण समारोह संपन्न हुआ. इस समारोह के माध्यम से विपक्षी दलों ने अपनी एकता और एकजुटता का प्रदर्शन किया और ये संदेश देने की कोशिश की, उनका एकमात्र मकसद है 2019 के चुनावों में मोदी और बीजेपी को पटखनी देने का, और इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए वो एकजुट होकर तैयार हैं.
कर्नाटक विधानसभा के लॉन में आयोजित हुए इस कार्यक्रम में पहुंचने वाले दिग्गजों के नामों पर जरा एक नजर डालिए- सोनिया गांधी, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी, पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा, शरद पवार, मायावती, अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव, सीताराम येचुरी, चंद्रबाबू नायडू, अरविंद केजरीवाल, ममता बनर्जी, शरद यादव, और अजित सिंह समेत कई अन्य नेतागण. लेकिन एकजुटना प्रदर्शन के बावजूद अभी तक ये तय नहीं हो सका है कि कैसे एक दूसरे की धुरविरोधी पार्टियां एक-दूसरे के साथ खड़ी दिखाई दे सकेंगी.
जैसे आंध्र प्रदेश में कांग्रेस और टीडीपी और पश्चिम बंगाल में सीपीएम और टीमएमसी एक दूसरे के कट्टर विरोधी हैं. लेकिन हाल के दिनों में जिस तरह से कुछ राज्यों में ऐसा हुआ है उससे ऐसा संभव होना आश्चर्यजनक तो प्रतीत नहीं ही होता है. जैसे उत्तर प्रदेश में धुर विरोधियों मायावती और अखिलेश का मिलना, कर्नाटक में कांग्रेस और जेडीएस का साथ और बिहार में कुछ समय के लिए ही सही, जेडीयू और आरजेडी का एक साथ आना ये बताने के लिए काफी है कि राजनीति में असंभव कुछ भी नहीं है.
इन सभी को जब मोदी-शाह वाली बीजेपी की ताकत से टकराने के बाद अपने राजनीतिक अस्तित्व पर खतरा महसूस हुआ तब इन्होंने अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धताओं में बदलाव किया और एक-दूसरे के नजदीक जाने का फैसला लिया.
इस शक्ति प्रदर्शन से टीआरएस के के. चंद्रशेखर राव, बीजेडी के नवीन पटनायक एआईएडीएमके और डीएमके ने खुद को दूर ही रखा. लगातार विभिन्न मुद्दों पर मोदी सरकार को घेरने वाली एनडीए की सहयोगी शिवसेना भी इस आयोजन से दूर रही. कई बार विपक्ष से ज्यादा तेज आवाज के साथ सरकार को घेरने वाली शिवसेना सरकार में होकर भी उसके साथ नहीं है लेकिन इसके बावजूद भी उसे विपक्षी खेमे से न्योता नहीं मिल रहा है.
बेंगलुरु से आ रही तस्वीरे बीजेपी खेमे में थोड़ी हलचल मचा रही हैं. बीजेपी के रणनीतिकार इस बात से चिंतित हैं कि अगर क्षेत्रीय दल अपनी अपनी दुश्मनी भुलाकर एक हो जाएं तो निश्चित रूप से वो चुनावी गणित में बीजेपी पर भारी पड़ सकते हैं. लेकिन इसके बाद भी अखिल भारतीय पार्टी के रूप में तब्दील हो चुकी भारतीय जनता पार्टी को ज्यादा निराश होने की जरूरत है नहीं.
पहला ये कि चुनाव केवल सामान्य गणित तो है नहीं जहां केवल हिसाब किताब जोड़ कर फैसला ले लिया जाए. चुनाव तो नेताओं को लोगों से संबंध जोड़ने की कला पर भी निर्भर करते हैं. जैसे एक इंदिरा गांधी के 1971 का स्लोगन 'वो कहते हैं कि इंदिरा हटाओ जबकि मैं कहती हूं कि गरीबी हटाओ' और नरेंद्र मोदी का 2014 का 'अच्छे दिन' और 'अबकी बार मोदी सरकार' नारा आम लोगों से सीधा जुड़ गया.
दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य ये है कि बेंगलुरु के मंच पर मौजूद विरोधी दलों के नेता दूसरी पार्टी को दूसरे राज्यों में मदद करने की हैसियत में हैं नहीं, जैसे समाजवादी पार्टी कर्नाटक में या आरजेडी आंध्र प्रदेश में एक दूसरे की कैसे मदद कर सकती है. कांग्रेस और सीपीएम की जरूर राष्ट्रीय स्तर पर कुछ पकड़ है लेकिन इस बात को अखिलेश यादव से अच्छा कौन समझा सकता है कि कांग्रेस के साथ यूपी के विधानसभा चुनाव लड़ने का उन्हें फायदा हुआ था या नुकसान.
तीसरी बात, विपक्ष के लिए 'कहीं का ईँट कहीं का रोड़ा, भानुमति ने कुनबा जोड़ा' वाली कहावच चरितार्थ हो रही है क्योंकि उनके पास 2019 में लोगों को वैकल्पिक सरकार देने के लिए न तो कोई कार्यक्रम है और न ही किसी तरह की नीति. इन लोगों को एकजुट होने की सबसे बड़ी वजह ये है कि कहीं न कहीं उनके राजनीतिक अस्तित्व पर सवाल उत्पन्न हो गया है और वो अपने आप को मनोवैज्ञानिक तौर पर दिलासा देने के लिए एक दूसरे का हाथ थाम कर बचने का रास्ता ढ़ूंढ़ रहे हैं. इन सबका एक ही मंत्र है और वो है मोदी विरोध या बीजेपी विरोध ऐसे में आम लोग 2019 में प्रधानमंत्री के खिलाफ इनके नकारात्मक ऐजेंडे को कितनी गंभीरता से लेंगे, ये बड़ा सवाल है.
चौथी बात, बेंगलुरु की विधानसभा में जमा हुए विपक्षी दलों ने अपनी एकजुटता का प्रदर्शन तो किया लेकिन उनमें से कोई भी नेता ऐसा नहीं है जिसे सभी लोग अपना लीडर मान सके. राहुल गांधी लचीले नहीं है और वो क्षेत्रीय दलों के नेताओँ के साथ बेहतर सामंजस्य स्थापित करने में सफल नहीं रहे हैं. हां सोनिया गांधी वहां पर आसानी से मंच पर चहलकदमी कर रही थीं और विपक्षी दलों के नेताओं के साथ बेझिझक बातचीत कर रही थीं. यहां तक जब सोनिया गांधी और मायावती आपस में बात कर रही थीं तो राहुल वहां शांति से खड़े थे. उनसे मिलने के लिए क्षेत्रीय नेताओं में बहुत आकर्षण भी नहीं देखा गया. वैसे राहुल गांधी की लीडरशिप पर '2019 में प्रधानमंत्री' के बयान के बाद और ऊंगलियां उठने लगी हैं. इसकी बानगी कांग्रेस को कर्नाटक चुनाव परिणाम में देखने को भी मिल गयी.
पांचवीं बात, पिछले साल 3 जून 2017 को भी विपक्षी एकता का प्रदर्शन करते हुए कई विपक्षी नेता डीएमके के वरिष्ठ नेता करुणानिधि का 94वें जन्मदिवस पर चेन्नई में एकत्रित हुए थे. उस समय भी ये कहा गया कि ये राष्ट्रपति और उपराष्ट्रति चुनावों से पहले विपक्षी दलों का बड़ा गठजोड़ बन गया है लेकिन इस गठजोड़ की हवा कैसे निकली इसको पूरा देश जानता है. इसके तुरंत बाद ही नीतीश कुमार ने बिहार में महागठबंधन से अलग होने का फैसला लिया और एक बार फिर से बीजेपी के साथ मिल कर राज्य में सरकार बना ली.
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