जब आप बैंगलोर से मैसूर के रास्ते से गुजरते हैं, तो राम नगर के पास कुछ पहाड़ियां मिलती हैं. ये वही जगह है जहां पर बॉलीवुड की मशहूर फिल्म शोले की शूटिंग हुई थी. यही जगह है जहां गब्बर सिंह के रोल में अमजद खान ने अपना बेहद मशहूर डायलॉग बोला था, 'कितने आदमी थे?'
ये डायलॉग अपने शब्दों की वजह से कम और बोलने के अंदाज की वजह से ज्यादा मशहूर हुआ था.
जैसे-जैसे कर्नाटक में विधानसभा चुनाव का माहौल गर्म हो रहा है, उसमें ये डायलॉग सियासी माहौल में गूंजता हुआ मालूम हो रहा है. मैसूर इलाके में मुकाबला त्रिकोणीय लग रहा है. कांग्रेस, बीजेपी और जनता दल सेक्युलर (जेडी एस) अपने-अपने नेताओं की टोली को बचाने के लिए हर मुमकिन कोशिश कर रहे हैं. ये सभी पार्टियां अपने कार्यकर्ताओं की जमकर हौसलाअफजाई कर रहे हैं, ताकि वो दूसरी पार्टियों को प्रचार के मोर्चे पर मात दे सकें.
मैसूर इलाके में कुल 29 सीटें आती हैं. ये सीटें या तो कांग्रेस या फिर जेडी एस का किला मानी जाती रही हैं. पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवेगौड़ा इसी इलाके से ताल्लुक रखते हैं. ऐसा माना जाता है कि वो ताकतवर वोक्कालिगा समुदाय के बीच अच्छी पकड़ रखते हैं. माना जा रहा है कि देवेगौड़ा के बेटे और पूर्व मुख्यमंत्री एच डी कुमारस्वामी, त्रिशंकु विधानसभा की सूरत में किंगमेकर बनकर उभर सकते हैं. मगर शर्त ये है कि वो मतदाताओं के बीच अपनी पकड़ बनाए रखें.
सवाल ये है कि क्या कुमारस्वामी वोटरों को लुभाकर अपने पाले में रखने में कामयाब होंगे?
मैसूर में कांग्रेस और जेडी एस, दोनों ही बेहद ताकतवर सियासी दल हैं
जब आप इस इलाके का दौरा करते हैं, तो साफ दिखता है कि मैसूर में कांग्रेस और जेडी एस, दोनों ही बेहद ताकतवर सियासी दल हैं. ऐतिहासिक वजहों से यहां कांग्रेस अभी भी कई जातियों के वोटरों के बीच मजबूत पकड़ रखती है. पुरानी पीढ़ी के लोगों के जेहन में आज भी इंदिरा गांधी की यादें बसती हैं. लोगों को लगता है कि वो इंदिरा के कर्जदार हैं. और मुख्यमंत्री के तौर पर नाकाम रहे सिद्धारमैया भी इस इलाके में बड़ी सियासी हस्ती हैं.
अपने पूर्ववर्ती एस एम कृष्णा (जो बाद में बीजेपी में शामिल हो गए थे) के मुकाबले, सिद्धरमैया पूरी तरह सियासत में रमे हुए नेता हैं. वो हर वक्त राजनीति को केंद्र में रखकर ही सोचते और कुछ भी करते हैं. कर्नाटक में बीजेपी के ताकतवर होने के साथ ही सिद्धरमैया के लिए कर्नाटक के जातीय विरोधाभासों के हिसाब से ध्रुवीकरण के राजनीतिक दांव खेलने जरूरी हो गए, ताकि वो अपना वोट बैंक मजबूत कर सकें. यही वजह थी कि सिद्धारमैया ने लिंगायतों को हिंदुओं से अलग धर्म का दर्जा देने का दांव चला.
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अब चूंकि कर्नाटक की सामाजिक अर्थव्यवस्था जातियों के हजारों समीकरणों के इर्द-गिर्द घूमती है, तो, सिद्धरमैया सियासी और जातिगत समीकरणों में तालमेल बिठाकर अपनी सियासी जमीन मजबूत करने में पूरी ताकत लगा रहे हैं. इसका मकसद हिंदुत्व की चुनौती से पार पाना है. सामाजिक पहलू की बात करें, तो वो एक बड़ी चुनौती से निपटने के लिए छोटे-छोटे कारगर दांव कर्नाटक में खेल रहे हैं. अल्पसंख्यकों, पिछड़ों और दलितों की अहिंदा (AHINDA) जुगलबंदी ऐसी ही मजबूत सियासी रणनीति है, जो गुजरात की 'खाम' (KHAM) या यूपी की 'मजगर' (MAJGAR) जैसी मजबूत लगती है.
कर्नाटक में सिद्धरमैया, ध्रुवीकरण की सबसे बड़ी ताकत बन गए हैं
कुल मिलाकर सामाजिक गठजोड़ की ये रणनीति सिद्धरमैया ने अपनी सामाजिक पृष्ठभूमि से सीखी है. लेकिन कई बार ऐसा भी होता है कि जब ऐसी रणनीति पर बहुत ज्यादा जोर लगाया जाए, तो दांव चलने वाले पर ही उल्टा पड़ जाता है. इस वक्त कर्नाटक में सिद्धरमैया, ध्रुवीकरण की सबसे बड़ी ताकत बन गए हैं. ठीक उसी तरह जैसे अयोध्या आंदोलन के वक्त उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की हैसियत थी. आप पूरे राज्य में एक बात सुन सकते हैं कि, 'अगर सिद्धरमैया का बस चले तो वो हिंदुओं की सामाजिक हैसियत का ही सफाया कर दें'. इसमें कोई दो राय नहीं कि खुसर-फुसर वाली बीजेपी-संघ की मशीनरी की ये रणनीति आग को भड़का रही है.
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हालांकि, कांग्रेस के मुकाबले मैसूर इलाके में बीजेपी उतनी मजबूत नहीं है. इसकी बड़ी वजह पार्टी की अंदरूनी लड़ाई है. वर्ष 2014 में और उससे पहले भी पार्टी की अंदरूनी कलह की वजह से कर्नाटक में बीजेपी के सबसे बड़े नेता बी एस येदियुरप्पा को हाशिए पर धकेल दिया गया था. ऐसा करने वालों में बीजेपी के वो नेता थे, जो आडवाणी, सुषमा स्वराज और अनंत कुमार के करीबी थे. इसके बाद येदियुरप्पा ने अपनी अलग पार्टी बना ली. नतीजा ये हुआ कि पूरे कर्नाटक में ही बीजेपी हाशिए पर चली गई.
इसीलिए बीजेपी के रणनीतिकारों ने येदियुरप्पा की ताकत को पहचाना और उन्हें मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया. पूरे राज्य में लगे बीजेपी के पोस्टरों में येदियुरप्पा को मोदी और अमित शाह से ज्यादा तरजीह दी जा रही है, ताकि बीजेपी में उनकी नंबर 1 की हैसियत का संदेश जनता तक पहुंचाया जा सके. येदियुरप्पा, कर्नाटक में किसानों और लिंगायत समुदाय के बहुत ताकतवर नेता हैं. उनकी इसी सियासी ताकत की मदद से, मैसूर की 29 में से करीब एक तिहाई सीटों पर बीजेपी, कांग्रेस को कड़ी टक्कर दे पा रही है.
जनता दल सेक्युलर 'शोले' के सिंड्रोम की सबसे ज्यादा शिकार है
मगर, कुमारस्वामी की अगुवाई वाला जनता दल सेक्युलर ही वो पार्टी है जो, 'कितने आदमी थे?' के सिंड्रोम की सबसे ज्यादा शिकार है. कभी मैसूर इलाके को एच डी देवेगौड़ा परिवार का गढ़ कहा जाता था. कुमारस्वामी, उसी विरासत की सियासत पर दावा करते रहे हैं. वो राज्य की राजनीति में किंगमेकर बनने के लिए इस इलाके में अपनी ताकत के ही भरोसे हैं. अहम बात ये है कि कुमारस्वामी ने खुद को इस बात के लिए तैयार कर लिया है जिसके हाथों में सत्ता की चाबी होगी. अपनी इस राजनीतिक आकांक्षा को पूरा करने के लिए, वो 30-40 सीटें जीतने के लिए ही पूरा जोर लगा रहे हैं, ताकि अपने सियासी प्लान पर अमल कर सकें.
मगर, मैसूर के चुनावी समीकरण को अगर कोई बात बिल्कुल सटीक तरीके से बयां करती है, तो वो शोले फिल्म का एक और डायलॉग है. जो जेलर के रोल में असरानी ने कहा था, 'आधे इधर जाओ, आधे उधर जाओ. बाकी मेरे साथ आओ'. ऐसा कहते वक्त जेलर को ये ख्याल ही नहीं रहा कि उसके साथ चलने के लिए कोई बचा ही नहीं था.
एच डी कुमारस्वामी की रणनीति में ये जोखिम सबसे बड़ा है.
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