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कांशीराम ने अपना घर छोड़ा था, मायावती ने उनके आदर्श छोड़ दिए...

दलित समाज का मायावती से यह अपेक्षा रखना कि वे कांशीराम के पदचिह्नों पर चलेंगी, अस्वाभाविक नहीं है

Updated On: Apr 16, 2017 08:14 AM IST

Naveen Joshi

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कांशीराम ने अपना घर छोड़ा था, मायावती ने उनके आदर्श छोड़ दिए...

अपने भाई आनंद कुमार को बहुजन समाज पार्टी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और पार्टी में अपने बाद नंबर दो की हैसियत देने के लिए मायावती की काफी आलोचना हो रही है. विरोधी दल ही नहीं, दलित आंदोलन से जुड़े कई पुराने नेताओं ने भी इस कदम के लिए उनकी आलोचना की है.

बीएसपी मुखिया मायावती ने शुक्रवार को अंबेडकर जयंती पर लखनऊ में आयोजित रैली में यह घोषणा की. उन्होंने यह शर्त जरूर रखी है कि आनंद कुमार कभी विधायक, सांसद, मंत्री या मुख्यमंत्री नहीं बनेंगे. हां, वे अपना रियल एस्टेट बिजनेस चलाने और घर वालों को राजनीति में लाने के लिए स्वतंत्र होंगे.

विपक्षी नेता इस कारण आलोचना कर रहे हैं कि अब तक मायावती खुद दूसरे दलों पर परिवारवाद को बढ़ाने का आरोप लगाती रही हैं.

दलित आंदोलन के लिए छोड़ा घर 

कांशीराम के पुराने साथियों और कई दलित नेताओं ने इसलिए उनकी निंदा की है कि कांशीराम ने दलित आंदोलन के प्रति पूर्ण समर्पण के लिए अपने परिवार से सारे संपर्क तोड़ लिए थे. कांशीराम ने मायावती को अपना राजनीतिक वारिस बनाया था और उनसे अपने काम को आगे ले जाने की उम्मीद की थी.

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इस प्रसंग में यह जानना समीचीन होगा कि दलित आंदोलन को व्यापक रूप देने और ‘बामसेफ’ और ‘डीएस-4’ जैसे संगठनों के जरिए बहुजन समाज पार्टी को खड़ा करने वाले कांशीराम का अपने परिवार और संपत्ति के बारे में क्या सोचना था और उन्होंने किया क्या था.

सन् 1978 में बामसेफ (बैकवर्ड एंड माइनॉरिटीज कम्युनिटीज एम्प्लॉई फेडरेशन) को संगठन का औपचारिक रूप देने के बाद कांशीराम ने पुणे में अपनी नौकरी छोड़ दी थी और पूरी तरह दलित आंदोलन के लिए समर्पित हो गए.

परिवार से दूर रहने की ली थी भीष्म प्रतिज्ञा

Kanshiram

तभी उन्होंने तय कर लिया था कि अब अपने परिवार से भी कोई ताल्लुक नहीं रखेंगे. उन्होंने कई प्रतिज्ञाएं की और अपने घर वालों को बताने के लिए लंबी चिट्ठी लिखी थी.

दलित मामलों के अध्ययेता प्रोफेसर बदरीनारायण ने अपने पुस्तक ‘कांशीराम: लीडर ऑफ दलित’ में एक उद्धरण दिया है. जिसमें कांशीराम की बहन सबरन कौर के हवाले से बताया गया है कि कांशीराम ने कभी घर न लौटने, खुद का मकान न बनाने और दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों के घरों को ही अपना घर मानने की शपथ ली थी.

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उन्होंने अपने संबंधियों से कोई नाता नहीं रखने, किसी शादी, जन्मदिन समारोह, अंत्येष्टि आदि में भाग न लेने और बाबा साहब अंबेडकर का सपना साकार करने तक चैन से न बैठने की कसम खायी थी.

कांशीराम की चिट्ठी पढ़कर माता बिशन कौर बहुत परेशान हुईं थीं और बेटे को मनाने पुणे भागीं. उन्होंने कांग्रेस के एक दलित विधायक की बेटी से कांशीराम का विवाह तय रखा था. दो महीने तक साथ रह कर वे कांशीराम को मनाती रहीं. फिर हारकर बहुत दुख के साथ वापस लौट आईं.

जीवनभर हर कसम निभाई कांशीराम ने

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तस्वीर: यूट्यूब

बाद की घटनाएं गवाह हैं कि कांशीराम ने अपनी सारी कसमें निभाईं. राखी बंधवाना तो दूर, वे अपनी बहन की शादी में भी शामिल नहीं हुए. न ही उसकी अचानक मृत्यु पर गए.

बड़े बेटे होने के बावजूद वे अपने पिता की चिता को अग्नि देने नहीं गये. संपत्ति अर्जित करने का तो सवाल ही नहीं था. नौकरी छोड़ने के बाद वे अपने बकाया भत्ते लेने भी दफ्तर नहीं गए थे.

कांशीराम का पूरा जीवन दलितों की आजादी और उनके अधिकारों के लिए जबर्दस्त संघर्ष और त्याग का उदाहरण है. मायावती से भी उन्होंने ऐसी ही अपेक्षा की थी, जब यह कहा था कि मेरी दिली तमन्ना है कि मेरी मृत्यु के बाद मायावती मेरे कामों को आगे बढ़ाएंगी.

कांशीराम ने मायावती क्यों चुना था उत्तराधिकारी?

मायावती के समर्थक

तस्वीर: पीटीआई

मायावती ने भी अपने शुरुआती दौर में दलित आंदोलन के लिए कम संघर्ष नहीं किया. कांशीराम ने यूं ही उन्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित नहीं किया था.

बदरीनारायण की उसी किताब में कांशीराम को एक जगह यह कहते हुए बताया गया है, ‘मायावती ने उत्तर प्रदेश में साइकिल से घूम-घूम कर जिस तरह बहुजन समाज पार्टी का संदेश जनता तक पहुंचाया है उसे मैं कभी नहीं भूल सकता. वह भी ऐसे समय में जबकि बीएसपी के चुनाव जीतने के आसार दूर-दूर तक नहीं थे. इस लड़की ने बुलंदशहर से बिजनौर तक साइकिल चलाई और लगातार मेरे साथ बनी रही. अगर उसने इतनी मेहनत नहीं की होती तो मैं बीएसपी को इतना आगे ले जाने में सफल नहीं हुआ होता.’

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मायावती कांशीराम का बहुत सम्मान करती रही हैं. बीमारी के लंबे दौर में मायावती ने उनकी बहुत सेवा की. जब कांशीराम के परिवार ने उनके इलाज और देखभाल का जिम्मा जबरन खुद लेना चाहा तो अदालत ने भी मायावती का ही साथ दिया था. कांशीराम की चिता को अग्नि मायावती ने ही दी थी.

यह सब देखते हुए दलित समाज का मायावती से यह अपेक्षा रखना कि वे कांशीराम के पदचिह्नों पर चलेंगी, अस्वाभाविक नहीं है.

अब बदल गई हैं कांशीराम की मायावती

mayawati

सन् 2017 की मायावती वो नहीं हैं जिसकी तारीफ के पुल कांशीराम बांधते थे. साइकिल चलाकर दलित समाज में घुलना-मिलना वे कब का छोड़ चुकीं. अब उनके पास आलीशान बंगले हैं. वे ऊंची चहारदीवारियों के भीतर रहती हैं. उन पर अपार दौलत जमा करने के आरोप लगते रहते हैं.

मायावती के भाई आनंद कुमार पर भी बेहिसाब कमाई करने के आरोप हैं. उनके खिलाफ जांच चल रही है. नोटबंदी के बाद उनके खाते में बड़ी रकम जमा होने की खबरें आई थीं.

उसी भाई को, जो बताते हैं कि बीएसपी का प्राथमिक सदस्य तक नहीं था, बहुजन समाज पार्टी का दूसरे नंबर का मुखिया घोषित करके मायावती ने स्वाभाविक ही आलोचनाओं को न्योता दिया है.

कांशीराम के जीवन मूल्य बताते हैं कि वे इस फैसले को कतई पसंद नहीं करते.

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