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कैराना से ग्राउंड रिपोर्ट: ‘हिंदुत्व की प्रयोगशाला’ के हिंदू 2019 के लिए मायूस नहीं दिखते

जमीनी पड़ताल में एक बात साफ तौर पर दिखती है, बीजेपी के खिलाफ विपक्ष भले ही एकजुट हो जाए, जनता एकजुट नहीं है. कोई ऐसी वजह नहीं दिखती है कि कैराना उपचुनाव के नतीजों से निष्कर्ष निकालकर 2019 के लिए बीजेपी मायूस हो.

Updated On: Jun 21, 2018 10:07 AM IST

Vivek Anand Vivek Anand
सीनियर न्यूज एडिटर, फ़र्स्टपोस्ट हिंदी

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कैराना से ग्राउंड रिपोर्ट: ‘हिंदुत्व की प्रयोगशाला’ के हिंदू 2019 के लिए मायूस नहीं दिखते

इस बार की ईद अरसे बाद अच्छी गुजरी है. काफी सारे लोग आए थे. अब हमारे बीच कोई झगड़ा नहीं है. भाई-भाई के बीच झगड़ा था, जिसे हमने और हमारे नेता ने मिल बैठकर सुलझा लिया. इसी का नतीजा है उपचुनाव में गठबंधन की जीत और आप देखिएगा 2019 में गठबंधन को इससे भी बेहतर जीत हासिल होगी.

बंतीखेड़ा गांव के पूर्व प्रधान मेहबूब खान उत्साहित होकर पिछले दिनों यहां हुए उपचुनाव के नतीजों का  मर्म समझाने लगते हैं. बंतीखेड़ा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के शामली जिले के थाना भवन विधानसभा क्षेत्र का एक गांव है. कैराना लोकसभा क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले इस गांव के लोगों ने हाल के उपचुनाव में वोट डाला है.

कैराना लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद हम इस इलाके के लोगों का मूड भांपने पहुंचे थे. नतीजों के कई पहलुओं से राजनीतिक विश्लेषण के बाद हम ये जानने पहुंचे थे कि आखिर जमीनी हकीकत क्या है? क्या कैराना उपचुनाव के गठबंधन के पक्ष में आए नतीजों से 2019 में बनने वाली तस्वीर का अक्स देखा जा सकता है? क्या सच में ये जिन्ना के ऊपर गन्ना की जीत है? क्या इन नतीजों को हिंदू-मुसलमान की सांप्रदायिक राजनीति के खात्मे के बतौर देखा जाना चाहिए? क्या नए समीकरण में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट और मुसलमान सच में एकसाथ आए हैं? क्या 2019 में बीएसपी-एसपी और कांग्रेस का संभावित गठबंधन बीजेपी की जीत के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा बनने वाला है? इन सवालों के जवाब हम जमीनी हकीकत से मिलान कर समझना चाहते थे.

कैराना लोकसभा क्षेत्र में उपचुनाव के हंगामेदार नतीजों का गुबार ठंडा पड़ चुका है और ईद के जश्न का जायका बरकरार है. कैराना के मुसलमान आरएलडी की उम्मीदवार तबस्सुम हसन की जीत से उम्मीदों से भरे दिखते हैं. बीजेपी की राजनीति की ओर इशारा करते हुए बंतीखेड़ा गांव के मेहबूब खान कहते हैं, ‘साहब हमने इनकी आदतें और दिमाग को पढ़ लिया है. अब हम इन्हें जान गए हैं कि ये लूटने वाले लोग हैं. गन्ना भुगतान के लिए जुबान दे देते हैं लेकिन कुछ करते नहीं हैं. चीनी मिलों पर धरना-प्रदर्शन हुआ. गोली चल गई. मुकदमेबाजी हो गई लेकिन इन लोगों ने कुछ नहीं किया. इनके पास बताने के लिए कुछ नहीं है. ख्वाब तो ये लोग बड़े अच्छे-अच्छे दिखाते हैं लेकिन सुबह उठो तो सबके हाथ खाली ही दिखते हैं.’

हिंदू-मुस्लिम भाईचारे पर मुसलमानों से अलग राय रखते हैं जाट

मेहबूब खान की तरह बंतीखेड़ा गांव के बाकी के मुसलमान भी बीजेपी पर हिंदू मुसलमान के नाम पर बांटने वाली राजनीति करने का आरोप लगाते हैं. वो कहते हैं कि अब हिंदू भी समझने लगे हैं कि बीजेपी मुसलमानों का डर दिखाकर उनसे सिर्फ वोट ऐंठ रही है. इसलिए कैराना में इस बार मुसलमानों के साथ बाकी समुदाय के लोगों ने भी बीजेपी के खिलाफ वोट दिया है. हालांकि बाकी समुदाय की बात छोड़ भी दी जाए तो सवाल है कि क्या कैराना उपचुनाव के नतीजों से ये समझ लिया जाए कि 2013 में हुए मुजफ्फरनगर के दंगों के बाद जाट और मुसलमान फिर से एकसाथ आ गए हैं?

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इलाके के मुसलमान इस बात की तस्दीक करते हैं कि उनका भाईचारा पहले की तरह कायम हुआ है. मेहबूब खान कहते हैं, 'इस बार की ईद हमने मिलकर मनाई है. बीच में अड़चन भी राजनीति की वजह से पैदा हुई थी. आप इसी गांव को देख लीजिए. बंतीखेड़ा में करीब 66 फीसदी मुसलमान और 34 फीसदी हिंदू हैं. लेकिन इसके बावजूद 1955 से यहां का प्रधान मुसलमान बनता आया है. हिंदू भाई हमें वोट करते हैं. हमारा पुराना भाईचारा है.'

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शामली के कई हिस्सों में घूमने के दौरान जाटों और मुसलमानों के भाईचारे पर तकरीबन हर दूसरे मुसलमान की एक सी राय दिखी. ये लोग जाटों और मुसलमानों की चुनावी एकता की दुहाई देते नजर आते हैं. लेकिन भाईचारे को लेकर जितनी शिद्दत मुसलमानों में दिखती है, उतनी जाटों में नहीं. इलाके के जाट चुनावी नतीजों की चर्चा छेड़ते ही बीजेपी की हार की वजह के तौर पर गन्ना किसानों की बदहाली की बात करने लगते हैं, गन्ना मंत्री सुरेश राणा की कारगुजारियां बताने लगते हैं, बिजली के बढ़े दामों की शिकायत करते हैं. लेकिन जाटों और मुसलमानों की एकता की बात करने से कतराते हैं. तबस्सुम हसन की जीत का जो सीधा सपाट निष्कर्ष निकाला गया है कि जाट और मुसलमान एकसाथ आ गए हैं, इसकी पुष्टि मुसलमान करते हैं लेकिन इसी बात को दोहराने में जाट हिचकिचाते दिखते हैं.

बीजेपी से शिकायतें बहुत हैं लेकिन 2019 के लिए राय पक्की नहीं

करीब 60-65 साल के बुजुर्ग मांगे राम अपने घर के बाहर हुक्का गुड़गुड़ाते हुए कहते हैं,‘ बीजेपी से शिकायतें तो बहुत है. गन्ने को लेकर, बिजली के बढ़े हुए दामों को लेकर. लेकिन अगर ये शिकायतें दूर हो जाएं तो लोग फिर मोदीजी के पास जा सकते हैं.’ मांगे राम की बात को आगे बढ़ाते हुए उनके साथ बैठे नरेश कहते हैं कि जाति का बड़ा लीडर आएगा तो सोचना तो पड़ेगा ही. हमारे घर अजित सिंह आए, चौधरी जयंत सिंह आए. उनकी बातों से लोगों में असर तो हुआ ही. लेकिन ये 2019 में भी रहेगा इस पर वो शक जताते हैं. वो कहते हैं कि ऐसा भी नहीं है कि जाटों ने अजित सिंह के संदेश पर गठबंधन की उम्मीदवार को एकमुश्त वोट दिया हो. जाटों ने बीजेपी को भी अच्छा खासा वोट दिया है.

कैराना लोकसभा क्षेत्र में कुल पांच विधानसभा सीटें आती हैं- कैराना, थानाभवन, शामली, गंगोह और नकुड़. इस लोकसभा क्षेत्र में बड़ी आबादी मुसलमानों की है और प्रभावशाली जाति जाटों की. कैराना लोकसभा सीट पर करीब 17 लाख वोटर्स हैं. इनमें 5 लाख मुस्लिम, 4 लाख पिछड़ी जाति (जाट, गुर्जर, सैनी, कश्यप, प्रजापति और अन्य शामिल) और करीब ढाई लाख वोट दलितों के हैं. इसमें डेढ़ लाख वोट जाटव दलित के हैं और 1 लाख के करीब गैरजाटव दलित मतदाता हैं. 3 लाख के करीब अकेले गुर्जर समुदाय है. इसमें हिंदू और मुस्लिम दोनों गुर्जर शामिल हैं.

शामली के बंतीखेड़ा गांव के लोग

शामली के बंतीखेड़ा गांव के लोग

आरएलडी और समाजवादी पार्टी के साथ बीएसपी समर्थित उम्मीदवार तबस्सुम हसन के पक्ष में कई जातियों का समीकरण काम कर रहा था. आरएलडी ने जाटों को एकजुट किया, एसपी के नाम पर मुसलमान साथ थे, गुर्जर मुस्लिम उम्मीदवार के नाम पर गुर्जरों के साथ आने की बात की जा रही थी, और बीएसपी के संदेश पर दलित समुदाय गठबंधन के साथ खड़ा था. सवाल है कि इतनी बड़ी जातीय गोलबंदी होने के बावजूद सिर्फ 44 हजार वोटों से जीत के क्या मायने निकाले जाएं?

जाटों ने बड़ी संख्या में बीजेपी को वोट किया

60-65 साल की उम्र के कृष्णपाल किसान हैं लेकिन यहां की राजनीति पर बारीक पकड़ रखते हैं. वो कहते हैं, ‘ गठबंधन की उम्मीदवार तबस्सुम हसन के पक्ष में करीब 70 फीसदी यानी तकरीबन साढ़े नौ लाख वोटर्स का मजबूत गठजोड़ था. जबकि जातीय समीकरण के हिसाब से बीजेपी के पक्ष में सिर्फ 30 फीसदी वोटर्स आए थे. इस आंकड़े के हिसाब से डेढ़ लाख वोटों से जीत होनी चाहिए थी. लेकिन जीत मिली सिर्फ 44 हजार वोटों से. इसका मतलब है कि जाटों का वोट बीजेपी को गया. शामली और कैराना से साढ़े बारह हजार वोटों से बीजेपी आगे रही. दोनों विधानसभा सीटों पर साठ फीसदी जाटों ने बीजेपी को वोट दिया है.’ वो जोर देकर कहते हैं कि गठबंधन की तरफ से पूरी कोशिश किए जाने के बाद भी बड़ी संख्या में जाट बीजेपी के साथ हैं.

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हालांकि सिर्फ जीत के मार्जिन कम होने की पीछे सिर्फ एक ही वजह नहीं है. इलाके के लोग बताते हैं कि कुछ मुसलमान रोजे की वजह से बाहर नहीं निकले. इसलिए उनकी वोटिंग नहीं हो पाई, जो पहले 80-90 फीसदी हुआ करती थी. एससी समुदाय के लोगों ने खुलकर वोट नहीं किया. जबकि जाटों ने बीजेपी के पक्ष में खुलकर वोट किया है. कृष्णपाल कहते हैं कि इस इलाके के बच्चे अभी तक मुजफ्फरनगर दंगों के मुकदमों में फंसे हैं. जाट सोचते हैं कि सीएम साहब उनके बच्चों के ऊपर लगे मुकदमों को हटवा देंगे. इस वजह से भी बीजेपी को वोट दे रहे हैं.

वो ये भी जोड़ते हैं कि 2019 तक मुकदमें नहीं भी खत्म हुए तब भी बीजेपी की तरफ लोग जरूर जाएंगे. इसके पीछे वो दो अहम वजहें गिनाते हैं. पहली- गुंडागर्दी खत्म हुई है. दूसरी- मुलायम सिंह और बाद में अखिलेश यादव की वजह से मुस्लिम समाज का जो प्रभाव था, वो बीजेपी के आने की वजह से कम हुआ है. इस असर को यहां का प्रभावशाली हिंदू तबका सकारात्मक नजरिए से देखता है. जहां तक जाट और मुसलमानों के एकसाथ आने की बात है तो ये अवसरवादी फैसला है, जिसका जमीन पर ज्यादा असर नहीं है.

बंतीखेड़ा गांव के किसान

बंतीखेड़ा गांव के किसान

आरएलडी का प्रभाव भी इस इलाके में पहले जैसा नहीं है. एक बात जो यहां के लोगों से बात करने पर पता चलती है कि इस चुनाव में अजित सिंह के बेटे जयंत चौधरी का असर ज्यादा अच्छा रहा. चुनाव में जयंत चौधरी ने 100 से ज्यादा रैलियां कीं. जाट समाज की नई पीढ़ी के साथ बड़े-बुजुर्ग भी उनकी तारीफ करते हैं. अखिलेश और जयंत चौधरी की वजह से ही गठबंधन की भूमिका तैयार हुई. कई लोगों को उनमें अच्छी संभावना नजर आती है.

बीजेपी के खिलाफ विपक्ष एकजुट, जनता नहीं...

अमरपाल एक किसान हैं. शामली शहर के बाहर वो अपनी खेती वाली जमीन पर सिंचाई करते दिख जाते हैं. वो कहते हैं कि उनके पिताजी आरएलडी के सपोर्टर हैं लेकिन मैं बीजेपी के साथ हूं. बीजेपी के पक्ष में वो स्थानीय मुद्दों से ज्यादा देश दुनिया की बातें करने लग जाते हैं. मसलन पाकिस्तान को जवाब दिया है, दुनिया में नाम रोशन किया है, विदेशों में भारत की साख बढ़ाई है. हालांकि गन्ना का सवाल आते ही कह उठते हैं कि अभी तक हमारी फसल का भुगतान नहीं हुआ है. लेकिन इसके लिए वो गन्ना मंत्री सुरेश राणा को जिम्मेदार मानते हैं. अमरपाल की तरह इस इलाके के कई किसानों ने बातचीत में गन्ना के मुद्दे के लिए पूरी तौर पर सुरेश राणा को जिम्मेदार माना. स्थानीय नेता के फेल होने की बात कहके लोग बीजेपी का बचाव करते दिखते हैं.

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कैराना ने पिछले 5 वर्षों में नफरत और सियासत के कई रंग देखे हैं. 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों की आग इस इलाके में भी फैली थी. दंगों में जाटों और मुसलमानों के बीच भरोसे की दीवार धराशायी हो गई. 2016 में कैराना को हिंदुत्व की प्रयोगशाला बनाया गया. इस इलाके से हिंदुओं के पलायन के मुद्दे को उछाला गया. इसे उत्तर प्रदेश का कश्मीर बताया गया. 2014 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनाव में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण ने नतीजों को बीजेपी के पक्ष में किया. 2018 के उपचुनाव में भी हिंदुओं के पलायन से लेकर एएमयू में जिन्ना की तस्वीर को लेकर बवाल रहा. लेकिन बीजेपी को विपक्ष की एकजुटता के आगे घुटने टेकने पड़े. हालांकी जमीनी पड़ताल में एक बात साफ तौर पर दिखती है, बीजेपी के खिलाफ विपक्ष भले ही एकजुट हो जाए, जनता एकजुट नहीं है. कोई ऐसी वजह नहीं दिखती है कि कैराना उपचुनाव के नतीजों से निष्कर्ष निकालकर 2019 के लिए बीजेपी मायूस हो.

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