तेलंगाना राष्ट्र समिति यानी टीआरएस के राष्ट्रीय अध्यक्ष और तेलंगाना के मुख्यमंत्र के चंद्रशेखर राव चार दिनों तक हैदराबाद के बाहर थे. ओडिशा से बंगाल होते हुए दिल्ली तक का सफर तय करने के बाद केसीआर (के. चंद्रशेखर राव) बुधवार शाम को वापस हैदराबाद पहुंच गए, लेकिन, इन चार दिनों में उनकी अलग-अलग नेताओं के साथ हुई मुलाकात चर्चा का विषय रही.
चार दिन के दौरे में केसीआर ने अलग-अलग नेताओं से मुलाकात के दौरान गैर-बीजेपी और गैर-कांग्रेस एक मोर्चे को आकार देने की कोशिश की और इस मोर्चे का नाम दिया गया ‘फेडरल फ्रंट.’
सबसे पहले अपने राज्य से निकलकर उन्होंने ओडिशा का दौरा किया जहां रविवार को उनकी मुलाकात बीजेडी अध्यक्ष और प्रदेश के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक से हुई. उसके बाद केसीआर ने ओडिशा के पड़ोसी राज्य पश्चिम बंगाल का दौरा किया. कोलकाता में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से मुलाकात के बाद भी केसीआर ने फेडरल फ्रंट की जरूरत पर बल दिया. इन दोनों नेताओं के साथ मुलाकात के बाद केसीआर ने बार-बार बीजेपी और कांग्रेस का विकल्प देने के लिए देश में एक तीसरे मोर्चे की संभावना तलाशने और सभी क्षेत्रीय दलों को एकजुट होने की अपील की.
टीएमसी प्रमुख और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से मुलाकात के बाद केसीआर ने कहा था कि चर्चा अच्छी रही और आगे भी चर्चा जारी रहेगी. उन्होंने एक मजबूत योजना के साथ सबके सामने आने की बात दोहराई.
इसके बाद केसीआर दो दिनों तक दिल्ली में रहे लेकिन, इस दौरान बुधवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से उनकी मुलाकात हुई. राज्य के नए मुख्यमंत्री का पद संभालने के बाद केसीआर की यह पहली मुलाकात थी. हालांकि इस मुलाकात में किसी राजनीतिक मुद्दे पर चर्चा नहीं हुई.
केसीआर के इस मोर्चे की कोशिश को कांग्रेस ने बीजेपी को मदद करने की कोशिश बताया है. जबकि बीजेपी ने इस तरह विपक्ष के कई मोर्चे बनाने की कोशिश के बाद विपक्षी एकता पर ही सवाल खड़ा कर दिया है. बीजेपी का कहना है कि इस तरह के मोर्चे से साफ है कि राहुल गांधी विपक्षी नेताओं को एक नेता के तौर पर स्वीकार्य नहीं हो रहे हैं. बीजेपी प्रवक्त जीवीएल नरसिम्हा की बात से साफ है कि बीजेपी इस फेडरल फ्रंट की सुगबुगाहट को अपने फायदे के तौर पर देख रही है. पार्टी को लगता है कि यह फ्रंट विपक्षी एकता की कलई खोलने वाला हो सकता है.
आखिरकार केसीआर क्यों हुए हैं सक्रिय?
वक्त से पांच महीने पहले ही राज्य में विधानसभा चुनाव कराने के केसीआर के फैसले का असर दिखा. तेलंगाना में पहले तो लोकसभा चुनाव के साथ ही विधानसभा का चुनाव होना था, लेकिन, उसके पहले ही राज्य की विधानसभा भंग कर दी गई है और नवंबर-दिसंबर में ही चुनाव प्रक्रिया खत्म हो गई. केसीआर को ऐसा लगा था कि लोकसभा के साथ विधानसभा चुनाव कराने से उन्हें नुकसान हो सकता है. लेकिन, उसके पहले अगर विधानसभा चुनाव कराया जाए तो इसका फायदा उन्हें मिल सकता है.
लोकसभा में मोदी बनाम बाकी दलों का मुकाबला होगा, लेकिन, उसके पहले के माहौल में ही केसीआर ने चुनाव कराकर अपनी कुशल रणनीति का परिचय दिया. तेलंगाना में पहले से भी बड़ी बहुमत से जीत दर्ज करने के बाद अब केसीर अपने राज्य में और राज्य के बाहर भी 2019 के चुनाव से पहले एक मजबूत राजनेता के तौर पर उभर कर सामने आए हैं.
तेलंगाना में कांग्रेस को मात देकर केसीआर ने फिर से सरकार बनाई है. उनकी राजनीति कांग्रेस की विरोध की ही रही है, लिहाजा, अब उनकी कोशिश उन क्षेत्रीय दलों को साथ लेकर चलने की है जो राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस के साथ गठबंधन में सीधे तौर पर जाने से कतरा रहे हैं या फिर यूं कहें कि इन क्षेत्रीय दलों को मोदी विरोध के नाम पर राहुल का नेतृत्व स्वीकार नहीं है.
क्या साथ आएंगे ममता-पटनायक ?
गौरतलब है कि टीएमसी प्रमुख ममता बनर्जी पहले भी विपक्षी एकता के लिए यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी से अगस्त महीने में ही मुलाकात कर चुकी हैं. ममता बनर्जी ने 19 जनवरी 2019 की कोलकाता की रैली के लिए सोनिया गांधी और राहुल गांधी को भी न्योता दिया है. इस दिन ममता बनर्जी विपक्षी एकता को दिखाकर नरेंद्र मोदी के खिलाफ मोर्चा खोलने की तैयारी करती दिखेंगी. ममता की इस रैली में विपक्षी दलों का जमावड़ा लगेगा जिसे ममता बनर्जी की खुद के कद को बढ़ाने की कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है.
ऐसे में कांग्रेस के खिलाफ जाकर एक अलग मोर्चा और वो भी चुनाव से पहले बनाने के केसीआर की कवायदों पर ममता का ‘मूव’ देखने वाला होगा. संभावना यही है कि ममता बनर्जी चुनाव से पहले इस तरह के फ्रंट में शामिल न हों. लेकिन, चुनाव बाद के लिए वो विकल्प खुला रखना चाहेंगी. उन्होंने पहले भी साफ कर दिया है कि अभी केवल बीजेपी के खिलाफ मोर्चा बनाकर सभी विपक्षी दलों को एक साथ एक मंच पर आने की बात होगी, प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार तो लोकसभा चुनाव बाद ही तय होगा.
ममता बनर्जी के सामने सबसे बड़ी समस्या राज्य में गठबंधन के दौरान कांग्रेस और लेफ्ट को सीटें देने को लेकर है. हो सकता है कि ममता बनर्जी कांग्रेस के लिए कुछ सीटों पर मान भी जाएं, लेकिन, क्या ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल में लेफ्ट के लिए अपने राज्य में कुछ सीटें छोड़ेगी और क्या लेफ्ट-टीएमसी का गठबंधन संभव है. यह एक बड़ा सवाल है. यही वजह है कि ममता भी अभी अपनी रैली की तैयारियों में लगी हुई हैं, जिसके बाद ही वो अपना पत्ता खोलना चाहेंगी.
ममता बनर्जी की कोशिश राज्य में ज्यादा से ज्यादा सीटों पर जीत दर्ज कर चुनाव बाद सरकार बनाने में अपनी बड़ी भूमिका साबित करने की है. खंडिट जनादेश की सूरत में ममता बनर्जी प्रधानमंत्री पद की मजबूत दावेदार भी हो सकती हैं. ऐसे में ममता बनर्जी की तरफ से केसीआर के फेडरल फ्रंट में शामिल होने की बात फिलहाल बेमानी लगती है.
उधर, नवीन पटनायक की राजनीति पहले से भी गैर-कांग्रेस की रही है. बीजेपी के साथ पहले वो एनडीए का हिस्सा रह चुके हैं. लेकिन, पिछले दो चुनावों से नवीन पटनायक के खिलाफ बीजेपी ने मोर्चा खोल रखा है. बीजेपी की रणनीति में इस वक्त ओडीशा का भी अहम रोल है जहां से पार्टी इस बार लोकसभा की ज्यादा सीटों के साथ-साथ विधानसभा में भी बीजेडी को मात देकर सरकार बनाने का दावा कर रही है. ऐसे में नवीन पटनायक का बीजेपी और कांग्रेस दोनों के साथ जाना फिलहाल संभव नहीं दिख रहा है.
ओडीशा में लोकसभा चुनाव के साथ ही विधानसभा का भी चुनाव होना है. ऐसे में नवीन पटनायक अकेले ही चुनाव में उतरना चाहेंगे. ऐसे में फेडरल फ्रंट में उनके शामिल होने की संभावना ज्यादा दिख रही है. लेकिन, वो भी चुनाव बाद अपना विकल्प खुला रखना चाहेंगे.
क्या होगा मायावती-अखिलेश का?
हालाकि पहले केसीआर की एसपी और बीएसपी के सुप्रीमो अखिलेश यादव और मायावती से भी मुलाकात की बात की जा रही थी. लेकिन, दो दिनों के दिल्ली दौरे में उनसे मुलाकात संभव नहीं हो सका. बीएसपी की तरफ से तो कुछ नहीं कहा गया, लेकिन, एसपी अध्यक्ष अखिलेश यादव ने साफ कर दिया कि वो हैदराबाद जाकर केसीआर से मुलाकात करेंगे. अखिलेश ने केसीआर के प्रयासों की तारीफ भी की.
Samajwadi Party Chief, Akhilesh Yadav: Efforts to bring all parties together have been ongoing for many months; I congratulate Telangana Chief Minister for working in this direction. He has been trying to bring together a federal front, I’ll go to Hyderabad to meet him. pic.twitter.com/Z5Mk2bTdKP
— ANI (@ANI) December 26, 2018
अखिलेश यादव को विधानसभा चुनाव के बाद से ही कांग्रेस का साथ पसंद नहीं आ रहा है. मध्यप्रदेश में एक विधायक द्वारा कांग्रेस की सरकार को समर्थऩ देने के बावजूद उसे मंत्री पद नहीं मिलने से अब वो नाराज हो गए हैं. अखिलेश यादव के बयानों और उनकी राजनीति से साफ है कि किसी भी कीमत पर लोकसभा चुनाव से पहले वो कांग्रेस के साथ गठबंधन नहीं करना चाहेंगे. ऐसे में हो सकता है कि वो केसीआर के फेडरल फ्रंट के साथ चले जाएं.
लेकिन, ऐसा करना अकेले उनके लिए भी संभव नहीं होगा. क्योंकि, बीएसपी सुप्रीमो मायावती की सहमति भी जरूरी होगी. सूत्रों के मुताबिक, यूपी में अखिलेश-मायावती और अजीत सिंह ने मिलकर चुनाव लड़ने का फैसला कर लिया है, जिसका ऐलान खरमास बाद कभी भी किया जा सकता है. अखिलेश की तरह मायावती भी कांग्रेस को साथ लेने के लिए तैयार नहीं हैं.
ऐसे में अखिलेश और मायावती दोनों मिलकर ही तय करेंगे कि केसीआर के साथ एक नए फेडरल फ्रंट में जाएं या नहीं. हो सकता है कि चुनाव से पहले फेडरल फ्रंट एक नया आकार ले ले, जिसमें एसपी-बीएसपी भी शामिल हो जाएं. कांग्रेस के साथ चुनाव से पहले समझौता नहीं कर अखिलेश-मायावती अपना बार्गेनिंग पावर बरकरार रखना चाहते हैं.
फिलहाल केसीआर अचानक सक्रिय हुए हैं. उनके साथ कितने लोग आएंगे और फेडरल फ्रंट का स्वरूप क्या होगा, अभी कहना जल्दी होगा, क्योंकि जिस मकसद से केसीआर ने चार दिन का दौरा किया था उस मकसद में उन्हें अपेक्षित सफलता मिलती नहीं दिख रही है. लेकिन, केसीआर की कोशिश ने कांग्रेस को परेशान कर दिया है.
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