रविवार का दिन था. गुजरात के पाटन जिले के सिद्धपुर ब्लॉक में चुनावी शोर-गुल मचा हुआ था. बाहुबली, सुल्तान और जोधा-अकबर फिल्मों के रीमिक्स गानों के शोर के बीच से होता हुआ गाड़ियों का काफिला गुजर रहा था. इस काफिले में थे पाटीदार नेता हार्दिक पटेल और उनके साथी. हार्दिक की निगरानी में लगा सूट-बूट में एक स्मार्ट सिक्योरिटी गार्ड गाड़ी के बुरी तरह हिलने से नीचे गिर पड़ा लेकिन हार्दिक का काफिला आगे बढ़ गया. कुछ मिनट बाद वो गाड़ी से उतरकर मंच पर उतरे. पूरी सभा में शेर और शहंशाह का शोर मच गया.
पूरा माहौल सपनों सरीखा लगता है. साफ है कि हार्दिक पटेल को ये माहौल खूब लुभा रहा है. सभा में खूब भीड़ जुटी थी. पाटन में ज्यादातर आबादी मुसलमानों की है. वो भी बड़ी तादाद में हार्दिक की जनसभा में आए थे. इसे जनवेदना रैली का नाम दिया गया था. गुजरात में मुसलमान आम तौर पर कांग्रेस के वोटर रहे हैं. मगर इस बार पार्टी ने मुसलमानों की पूरी तरह से अनदेखी की हुई है. ऐसे में मु्स्लिम वोटरों को हार्दिक पटेल में एक उम्मीद दिखती है. हार्दिक की रैली में आए कुछ मुस्लिम युवकों ने कहा कि हम पाटन की सभी सीटें जीत रहे हैं. उनका मानना है कि पिछले कुछ चुनावों के मुकाबले इस बार हिंदुत्व का मुद्दा उतना जोर-शोर से नहीं उछाला जा रहा है.
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हैरानी की बात ये है कि जनवेदना रैली की शुरुआत ओम शांति और भारत माता की जय से होती है. रैली में वक्ताओं को इस बात का अच्छी तरह से एहसास था कि उसमें बड़ी तादाद में मुसलमान भी आए हैं. इसलिए वो पटेलों और मुसलमानों के बीच एकता की बातें करते हैं. लेकिन उनकी बातों में हिंदुत्व की झलक छुपाने से भी नहीं छुपती. हालांकि ये कोई चौंकाने वाली बात नहीं. गुजरात का सियासी और सामाजिक इतिहास देखें तो पाटीदारों का मुसलमानो से कोई लगाव नहीं रहा है. बल्कि गुजरात में सामाजिक ध्रुवीकरण के अगुवा पाटीदार ही रहे हैं. ऐसे में ये मान लेना गलत होगा कि वो रातों-रात सेक्यूलर हो गए हैं. इस बार के चुनाव में मुसलमानों की पाटीदारो से नजदीकी महज चुनावी रणनीति की वजह से है. लोगों को लगता है कि ऐसी एकजुटता से ही वो नरेंद्र मोदी से 16 बरस बाद सत्ता छीन पाएंगे. हार्दिक पटेल में उन्हें उम्मीद की किरण नजर आती है.
राजनीति का बॉबी माहॉल
सीनियर पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता प्रकाश शाह गुजरात के आज के माहौल की तुलना 1974 के गुजरात से करते हैं. वो इसे गुजरात की सियासत का 'बॉबी माहौल' बताते हैं. अपनी बात को समझाने के लिए वो जयप्रकाश नारायण से हुई बातचीत का जिक्र करते हैं. प्रकाश शाह उन दिनों को याद करके बताते हैं कि, 'जेपी ने मुझसे कहा कि मैं उस वक्त के सियासी माहौल को कैसे देखता हूं. मैंने उनसे कहा कि भारतीय राजनीति का ये बॉबी दौर है. ये वो वक्त था जब नए सितारे फिल्मी दुनिया में चमक बिखेर रहे थे. मैंने उनसे कहा कि यही बात सियासी मैदान में भी देखने को मिल रही है. नेताओं की नई पौध सामने आ रही है. जो पुराने राजनैतिक धुरंधरों को पछाड़ना चाहती है'. प्रकाश शाह कहते हैं कि जेपी उनकी बात से सहमत हुए थे.
राज कपूर की फिल्म बॉबी सितंबर 1973 में रिलीज हुई थी. वो दौर मंझे हुए कलाकारों धर्मेंद्र और अमिताभ बच्चन का था. उस वक्त धर्मेंद्र की उम्र 38 बरस और अमिताभ की 31 साल थी. लेकिन बॉबी फिल्म में 21 बरस के ऋषि कपूर और 16 साल की डिंपल कपाड़िया को लिया गया था. ये फिल्म नई पीढ़ी की थी. कहानी भी नई और कलाकार भी. फिल्म को जबरदस्त कामयाबी मिली थी. बॉबी ने बॉलीवुड पर गहरी छाप छोड़ी थी. प्रकाश शाह को उम्मीद है कि हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवानी और अल्पेश ठाकोर भी गुजरात की सियासत में ऐसी ही छाप छोड़ेंगे.
हालांकि प्रकाश शाह ये भी कहते हैं कि उन्हें अभी ये नहीं पता कि ये तीनों नेता लंबे दौर के सियासी खिलाड़ी साबित होंगे या नहीं.
अभी दिख जाती है अनुभवहीनता
हार्दिक पटेल जिस तरह गुजरात में दर-दर घूम रहे हैं, उससे उनका बचकानापन साफ झलकता है. हार्दिक के काफिले में महंगी एसयूवी शामिल होती हैं. जाहिर है कि किसी भी उभरते नेता के लिए ये गाड़ियां जुटाना मुश्किल काम है. लेकिन हार्दिक पूरी बेशर्मी से अपनी दौलत, शोहरत और ताकत की नुमाइश करते हैं. सेक्स टेप को लेकर उनका रवैया डोनल्ड ट्रंप से मिलता जुलता लगा.
इसमें कोई दो राय नहीं कि गुजरात की राजनीति इस वक्त अजीब उठा-पटक के दौर से गुजर रही है. मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस को अपनी ताकत से ज्यादा हार्दिक, जिग्नेश और अल्पेश पर भरोसा है. जमीनी स्तर पर कांग्रेस के पास ताकतवर वोट बैंक है. फिर भी पार्टी हार्दिक, जिग्नेश और अल्पेश की अगुवाई में चुनाव मैदान में है.
गुजरात में चुनावी मुकाबला हमेशा से ही दो पार्टियों के बीच रहा है. इसीलिए चुनाव में जाति, धर्म, शहरी और ग्रामीण वोटरों की राजनीति के दांव खेले जा रहे हैं. ऐसे में कांग्रेस का कद सीमित ही रह गया है. यकीन जानिए पिछले कुछ सालों कांग्रेस का ये सबसे बेवकूफाना तजुर्बा है.
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आप गुजरात की सड़कों से, गलियों से, शहरों से और ग्रामीण इलाकों से गुजरें, तो एक बात एकदम साफ नजर आती है. लोग बीजेपी और इसके नेताओं से नाराज हैं. शायद मतदाताओं ने बीजेपी से कुछ ज्यादा ही उम्मीदें पाल ली थीं. लेकिन, ये नाराजगी मोदी के प्रति भयंकर गुस्से में तब्दील होती नहीं दिखती. आज भी उन्हें मोदी पर भरोसा है. हां, वो बीजेपी के राज्य स्तरीय नेताओं से नाखुश हैं. उसकी वजह स्थानीय नेताओं का अहंकार है, जिनका जमीनी सच्चाई से कोई वास्ता नहीं.
गुजरात की सियासत पर नजर रखने वाले आप को बताएंगे कि बीजेपी से नाराजगी का लोगों के मोदी के प्रति प्यार से कोई वास्ता नहीं. 2002 के बाद से मोदी की लोकप्रियता की वजह से ही बीजेपी चुनाव दर चुनाव कामयाबी हासिल करती आई है. इस चुनाव में भी हालात कुछ खास बदले हुए नहीं नजर आते. ये चुनाव भी बीजेपी के बजाय मोदी की प्रतिष्ठा से जोड़कर ही देखा जा रहा है.
मोदी खुद को गुजरात का बेटा कहते हैं. अब वो देश के प्रधानमंत्री हैं. ऐसे में ये चुनाव गुजराती अस्मिता का सवाल भी बन गया है. गैर पटेल और गैर मुस्लिम वोटर अभी भी बीजेपी के खेमे में नजर आते हैं.
ऐसे में कांग्रेस का सियासी प्रयोग अजीब लगता है. जैसे कि कांग्रेस ने राहुल गांधी के जनेऊधारी हिंदू होने का जोर-शोर से प्रचार किया. ऐसे में कांग्रेस से सेक्यूलर वोटर तो दूर ही भागेगा. राहुल गांधी का हिंदुत्व वाली पहचान पर जोर देना ये बताता है कि गुजराती समाज में हिंदुत्व ने कितनी गहरी जड़ें जमा ली हैं.
आज पाटीदार भले ताकत की नुमाइश कर रहे हों. मगर उनका आरक्षण का आंदोलन दलितों और पिछड़ों को आरक्षण के खिलाफ ही शुरू हुआ था. पाटीदार धर्म के मामले में दूसरे समुदायों से ज्यादा कट्टर माने जाते हैं. ये बात पाटीदार आंदोलन के दौरान हुई सांप्रदायिक हिंसा से साफ होती है.
इन बातों के मद्देनजर कांग्रेस का अपने परंपरागत वोट बैंक के बजाय उन समुदायों को एकजुट करने पर जोर देना अजीब ही है, जो एक-दूसरे के विरोधी रहे हैं. इससे तो कांग्रेस विरोधी वोट बैंक के एकजुट होने का खतरा है.
हो सकता है कि बॉबी फिल्म की तरह ही गुजरात के सियासी थिएटर के नए किरदार हार्दिक, जिग्नेश और अल्पेश सनसनी तो पैदा कर लें. मगर, कोई बड़ा सियासी बदलाव वो कर पाएंगे, ये पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता. ये तय है कि उनकी लोकप्रियता एक नई सियासत को जन्म नहीं देने वाली.
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