तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता की बीमारी और फिर निधन पर लोगों में उपजे उन्माद को देखकर दुनिया हतप्रभ होगी.
इस बात को समझाना वास्तव में मुश्किल है कि तमिलनाडु के लोगों की जिंदगी में वे कितने गहरे तक बसी हुई हैं. यह कैसे बताया जाए कि उनकी बीमारी और निधन से उपजी पीड़ा को लोग बरदाश्त नहीं कर पा रहे, जो उन्हें पूजते और सराहते हैं.
जनता में ऐसा उन्माद तब देखा गया था जब जॉन एफ कैनेडी को गोली लगी थी, जब मार्टिन लूथर किंग की हत्या हुई थी और जब इंदिरा गांधी को जान से मार दिया गया था.
ये सभी हिंसा का शिकार हुए थे. इसीलिए इन त्रासदियों पर इतनी पीड़ा उभर कर सामने आई.
जयललिता का मामला अलग है. उनकी तबीयत लंबे समय से खराब चल रही थी और इसके सुधरने की गुंजाइश जो दिन-ब-दिन कम होती जा रही थी. इसी भय और आशंका ने दरअसल त्रासदी की शक्ल लेना शुरू कर दिया है. यही बात अन्नाद्रमुक की इस नेता के जरदबस्त प्रभाव का संकेत देती है, जिन्हें लोगों ने तकरीबन ईश्वर जैसा दिया था.
यही वजह है कि उनकी बीमारी के दौरान पिछले 75 दिनों में राजकाज तकरीबन ठप रहा और किसी ने भी उनका उत्तराधिकारी होने का दावा जताने की हिम्मत नहीं की है. हालत यह है कि कैबिनेट की बैठकों में उनकी कुर्सी पर उनकी तस्वीर रखकर कार्यवाही होती रही. यहां तक कि उनकी सबसे करीबी और भरोसेमंद रहीं शशिकला को भी हकीकत का सामना करने की हिम्मत नहीं हो रही.
इन हालात को और बल इसलिए मिला है क्योंकि उनकी सेहत के बारे में राज्य सरकार ने खतरनाक चुप्पी ओढ़े रखी. अस्पताल से उनके स्वास्थ्य संबंधी बुलेटिन भी जारी नहीं किए गए. गोपनीयता की इस चादर ने अफवाहों, अटकलों और अनिश्चय को जन्म दिया जो लोकतांत्रिक ताने-बाने के लिहाज से ठीक नहीं है.
लोगों को अपने चुने नेता की सेहत का हाल जानने का हक है, खासकर उस नेता का जिसे वे इतनी प्रतिष्ठा से देखते हैं. उनकी मेडिकल स्थिति पर जिस तरीके से गोपनीयता का परदा डाला गया है, उस पर सवाल बनते हैं और उठाए भी जाने चाहिए लेकिन समूची कैबिनेट का अस्पताल में डेरा डाले रहना कोई वफादारी का संकेत नहीं है. वफादारी तब दिखती जब गुज़रे दो महीने से ज्यादा वक्त में सरकार के लोग अपना काम ज्यादा होशियारी से करते रहते.
जयललिता जनता के लिए एक प्रतीक हैं. दशकों तक अपने लोगों के लिए निस्वार्थ सेवा और देखभाल ने उन्हें इस दरजे तक पहुंचाया है. इसलिए कहा जा सकता है कि उनके बाद कतार में खड़े नेताओं ने अगर यही काम जारी रखा होता तो आज अपने काम की उपेक्षा करने का आरोप उनके ऊपर इतनी आसानी से नहीं लग पाता.
लगता है कि ऐसे हालात में केंद्र ने काफी निर्णायक कार्रवाई की है और पर्याप्त पुलिसबल व अर्धसैन्य बलों की तैनाती एक सराहनीय कदम है जो यह सुनिश्चित करने के लिए है कि कोई भी अप्रिय घटना न घटने पाए.
जयललिता के जाने के बाद का रास्ता काफी लंबा होगा और इस अंतर को भरने के लिए युवाओं को आगे आना होगा. यह काम सामूहिक रूप से हो या किसी अन्य तरीके से, लेकिन एक बात तो तय है कि पार्टी को चीजें अपने हाथ में लेनी होंगी और राज्य को वापस पटरी पर लाकर जयललिता को सही श्रद्धांजलि देनी होगी.
जयललिता की जैसी शख्सियत और प्रतिष्ठा है, जैसी उदारता और आवेग का एक भाव उनमें निहित था. वे कभी नहीं चाहतीं कि उनके शहर और सूबे पर कोई जख्म लगे या फिर जज्बात की कोई लहर उसकी आबादी को आहत कर जाए.
वक्त आ चुका है कि उनकी जगह लेने वाले किसी शख्स को खोजा जाए, सरकार की गतिविधियों में तेजी लाकर मौजूदा राजनीतिक अस्थिरता का खात्मा किया जाए.
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