राजस्थान बीजेपी अपने परम्परागत वोट बैंक के खिसकने से तो परेशान है ही, बीते एक दशक में कांग्रेस छोड़ बीजेपी के साथ जुड़े दलित वोट बैंक के वापस कांग्रेस में लौट जाने से भी मुश्किल में है. हाल ही हुए तीन उपचुनावों के नतीजों के विश्लेषण से ये सच भी सामने आया है कि दलित बीजेपी का मोह छोड़ फिर से अपनी पुरानी पार्टी कांग्रेस की तरफ लौट रहे हैं. पार्टी के सामने सवाल यह है कि ऐसा हो क्यों रहा है?
जवाब तलाशने के लिए बीजेपी के नीति-नियामक तो कवायद कर ही रहे हैं, सरकार में ऊंचे ओहदों पर बैठे अफसर भी दलितों के बदलते रुख को भांपने की कोशिश में है. सरकार की बेचैनी यह है कि दलित उत्थान की तमाम कोशिशों के बावजूद ऐसा आखिर हो क्यों हो रहा है?
शुरुआती तौर पर पार्टी को मिले फीडबैक में दलितों की नाराजगी की तीन वजह सामने आयी है. पहली वजह पांच दलितों समेत छह जनों की बर्बर हत्या का गवाह रहा 'डांगावास काण्ड'. दूसरी वजह नोखा-बीकानेर के डेल्टा मेघवाल आत्महत्या प्रकरण की सीबीआई जांच न होना. तीसरी वजह बीजेपी की ही दलित विधायक चंद्रकांता मेघवाल के साथ पुलिस अधिकारियों द्वारा थाने में बदसलूकी की घटना पर पर्दा डालने और आरोपी आईपीएस चूनाराम जाट की बीच चुनाव में दौसा के पुलिस अधीक्षक के पद पर की गई ताजपोशी.
डांगावास काण्ड ने हिलायी बीजेपी की चूल
'डांगावास काण्ड' को दलित खासकर मेघवाल मतदाताओं के बीजेपी से अलग होने की सबसे बड़ी वजह माना गया है. 14 मई 2015 को नागौर जिले के डांगावास में पांच दलितों समेत छह जनों को जमीन विवाद के चलते मौत के घाट उतार दिया गया था और दस को गंभीर रूप से घायल अवस्था में अस्पताल में भर्ती कराया गया था. स्थानीय पुलिस में जाति विशेष के दबदबे और सरकारी कारिंदों की भूमिका पर उठते सवालों के बीच सरकार ने मामले की सीबीआई को जांच भी दी और पीड़ितों को मुआवजा भी, लेकिन गुस्सा इस बात पर है कि सरकार ने एक बड़े वोट बैंक जाट समुदाय की नाराजगी के डर से दलितों के साथ हुई बर्बरता पर चुप्पी साध ली.
न सरकार का कोई मंत्री सुध लेने गया, न ही पुलिस-प्रशासन ने इतनी बड़ी घटना पर गंभीर कार्रवाई की. दलित चिंतक भंवर मेघवंशी दलितों के गुस्से की वजह सत्ता में बैठे नेताओं के चरित्र को बताते हैं. वो कहते हैं 'बीजेपी के दलित नेता इतने जघन्य मामले में भी चुप्पी साधे रहे, वहीं आरोपियों के पक्ष में सरकार के एक मंत्री अजय सिंह किलक जातीय गोलबंदी के साथ-साथ सरकार पर भी दबाव बनाते दिखे.
मेघवंशी के मुताबिक 'इस मामले में विपक्षी दल कांग्रेस की चुप्पी भी हैरान करने वाली थी. विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष रामेश्वर डूडी तो जातीय प्रभाव में चुप रहे ही, पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट ने भी पीड़ित दलितों की सुध नहीं ली. अलबत्ता पूर्व सीएम अशोक गहलोत ने अस्पताल जाकर पीड़ितों का हाल जरूर पूछा.'
दलित अधिकार केंद्र के निदेशक सतीश कुमार इस प्रकरण में कांग्रेस की भूमिका से संतुष्ट नहीं हैं. सतीश कहते हैं 'इतनी बड़ी घटना में विपक्ष में रहते हुए कांग्रेस की चुप्पी हैरान करने वाली थी, लेकिन सत्ताधारी बीजेपी को सबक सिखाने के लिए कांग्रेस की जीत के सिवाय उपाय भी नहीं.' दलितों की यह नाराजगी उस सूरत में काबिले गौर है, जबकि सीबीआई द्वारा 'डांगावास काण्ड' के कई आरोपियों की गिरफ्तारी की जा चुकी है. दलित चिंतक मेघवंशी कहते हैं 'यह आधा सच है. सच तो यह है कि कई आरोपी गिरफ्त से बाहर हैं और उन पर दबाव बनाने के लिए उनकी सम्पति भी कुर्क नहीं हो रही.'
दलित विधायक से हुई बदसलूकी ने भी दिखाया असर
अजमेर से थोड़ी ही दूर घटी 'डांगावास' की बर्बर घटना ने उप चुनाव में अजमेर सीट पर बीजेपी की हार में बड़ी भूमिका अदा की. उधर, मांडलगढ विधानसभा के उपचुनाव में रामगंजमंडी विधायक चंद्रकांता मेघवाल का मुद्दा कांग्रेस के लिए संजीवनी साबित हुआ. भंवर मेघवंशी कहते हैं 'मांडलगढ़ से रामगंजमंडी ज्यादा दूर नहीं, लिहाजा वहां की दलित विधायक के साथ पुलिस द्वारा थाने में की गयी बदसलूकी का मामला सोशल मीडिया में बीजेपी के खिलाफ एक बड़ा अभियान बना. दलितों ने व्हाट्सएप पर ग्रुप बनाए और सरकार को सबक सिखाने के मैसेज वायरल कर दिए. मांडलगढ़ में कुल मतदाताओं का लगभग आधा हिस्सा एससी/एसटी मतदाताओं का है.
गुस्सा इस बात पर था कि सत्ताधारी दल की दलित और महिला विधायक के साथ हुई इस घटना को भी सरकार ने ज्यादा तवज्जो नहीं दी. पहले उस वक्त के पुलिस अधीक्षक सवाई सिंह गोदारा को कोटा से भी अपेक्षाकृत बड़ी जगह बीकानेर जिले का एसपी बनाया फिर दुर्व्यवहार के आरोपी दूसरे आईपीएस चूनाराम जाट को बीच चुनाव दौसा के पुलिस अधीक्षक का अहम जिम्मा दे दिया.
दलित अधिकार केंद्र से जुड़े सतीश कुमार कहते हैं 'दलित विधायक से बदसलूकी के आरोपी चूनाराम जाट को दौसा एसपी के पद पर लगा बीजेपी शायद अलवर की मुंडावर और दूसरी विधानसभा सीटों पर प्रभावी जाट वोट बैंक (एक लाख से ज्यादा मतदाताओं) को मैसेज देने के मूड में थी, लेकिन यह मैसेज उलटा चला गया और अलवर सीट पर बड़ा असर रखने वाले करीब चार लाख मतदाता बीजेपी को सबक सिखाने की मुद्रा में आ गए.
भंवर मेघवंशी सतीश कुमार की बात को मुहावरे वाले अंदाज़ में समझाते हैं 'दौसा में दलित महिला के साथ बदसलूकी के आरोपी पुलिस अधिकारी की नियुक्ति को दलितों ने जले पर नमक के अंदाज में लिया और सोशल मीडिया से ऐसी बयार बही कि बीजेपी अलवर ही नहीं , पूरे राजस्थान में दलित गुस्से की शिकार बन गई.'
डेल्टा प्रकरण ने भी किया दलितों को नाराज
दलितों की नाराजगी डांगावास और चंद्रकांता मामले में सरकार के रवैये से ही नहीं. बीकानेर में दलित छात्रा डेल्टा मेघवाल की आत्महत्या से जुड़े मामले की सीबीआई जांच नहीं होने से भी है. इस मामले में न्याय की मांग के साथ कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी तो दिल्ली से बाड़मेर पहुंच गए, लेकिन सरकार के मंत्री नहीं. आरोप है कि बलात्कार से आहत हो डेल्टा ने आत्महत्या की थी, लेकिन कॉलेज प्रबंधन के रसूखात पीड़िता के दर्द पर इतने भारी पड़े कि सीबीआई जांच की मांग नक्कारखाने में तूती की तरह दबकर रह गयी. बीते उप चुनावों में दलितों की नाराजगी की एक वजह डेल्टा प्रकरण भी रहा.
दलित चिंतक भंवर मेघवंशी कहते हैं 'डेल्टा का मामला दलित ही नहीं महिला स्वाभिमान से भी जुड़ा है, लेकिन सरकार के आला अफसर इस सच को समझकर सही कार्रवाई नहीं कर पाए. यहां तक कि सीबीआई भी नहीं.'
कभी बीजेपी तो कभी कांग्रेस की गफलत में फंसे दलित
दलितों के अधिकारों के लिए सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ताओं के मुताबिक बीजेपी को हराने के लिए कांग्रेस का समर्थन उनकी मजबूरी है, प्राथमिकता नहीं. ऐसा इसलिए क्योंकि राजस्थान में इन दो दलों के बीच ही सत्ता की चाबी बदलती है, तीसरा और कोई विकल्प नहीं है. मायावती की बहुजन समाज पार्टी ने पूर्वी राजस्थान के रास्ते शेखावाटी तक अपनी दस्तक भी दी, लेकिन उसके बैनर पर जीते विधायक बसपा छोड़ कांग्रेस सरकार बचाने के लिए कुछ इस तरह पार्टी से भागे कि घटना के नौ साल बाद भी बीएसपी खोया हुआ आत्मविश्वास हासिल नहीं कर पाई.
सतीश कुमार दलित अधिकारों की पैरवी करते हुए राजनितिक मजबूरी कुछ इस तरह जताते हैं 'दलितों ने कांग्रेस में अपनी उपेक्षा से आहत हो, बीजेपी की राह पकड़ी थी. लेकिन, सरकार ने इस बदलाव को ज्यादा अहमियत नहीं दी. अब बीजेपी को हराने के लिए दलितों के पास एक ही विकल्प है कांग्रेस. क्योंकि, तीसरे मोर्चे का राजस्थान में कोई वजूद ही नहीं.'
सरकार का सामाजिक न्याय मंत्रालय दलित कल्याण की कई योजनाएं गिना रहा है. लेकिन सतीश कुमार कहते हैं. '2012 के बाद राजस्थान में दलित उत्पीड़न रोकने के लिए बनी निगरानी एवं सतर्कता समिति की राज्य स्तरीय समिति की बैठक तक नहीं हुई, जबकि कानूनन हर छह महीने में ये बैठक होनी चाहिए.'
जाहिर है नाराजगी की वजह एक दो नहीं ,कई हैं. सत्ताधारी बीजेपी इन सभी कारणों को समझ उनके निदान के मूड में है. लेकिन ,सरकार के हर संभव प्रयास दलित मतदाताओं का मूड बदल पाएंगे यह कहना मुश्किल है. खासकर इसलिए क्योंकि एक साल में ही विधानसभा और लोकसभा चुनाव होने हैं, और इतने से वक्त में मतदाताओं को मोह लेना असंभव भले न हो, मुश्किल जरूर है.
(न्यूज़18 के लिए श्रीपाल शक्तावत की रिपोर्ट)
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