पिछले तीन सालों के दौरान दलितों पर छिटपुट हमलों और सुप्रीम कोर्ट के SC/ST एक्ट के तहत केस में तुरंत गिरफ्तारी पर रोक लगा देने से, विपक्षी दलों और सियासी समीक्षक मिल-जुलकर एक बेयकीनी नतीजे पर पहुंचने का एलान कर रहे हैं. इन सब का कहना है कि दलितों के खिलाफ हिंसा और सुप्रीम कोर्ट के रुख से साफ है कि बीजेपी को दशा-दिशा देने वाला आरएसएस दलित विरोधी है. इसकी वजह ये है कि संघ में ब्राह्मणों की तादाद ज्यादा है और इसके अगुवा भी वही हैं.
सोमवार को राहुल गांधी ने निजी तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दलित विरोधी करार दिया. इसके लिए राहुल ने अजीबो-गरीब तर्क दिया. राहुल ने कहा कि बीजेपी के सांसद ही मोदी को दलित विरोधी कहकर चिट्ठी लिख रहे हैं. सियासी फायदे के लिए विपक्ष का मोदी, बीजेपी और संघ पर कोई भी आरोप लगाना ठीक है. लेकिन जिस तरह से राजनीतिक विश्लेषक इस आरोप के समर्थन में कूद पड़े हैं, उससे लगता है कि ये आरएसएस की छवि खराब करने की कोशिश है. जब मोदी अपनी पार्टी के नेताओं को दलितों के घर में रात गुजारने को कहते हैं तो ये सियासी पंडित इसे चुनावी चाल कहकर खारिज कर देते हैं.
ऐसे बयान और निचोड़ से साफ होता है कि इन लोगों को संघ के हिंदू एकता के मिशन की समझ ही नहीं है. ऐसे लोगों के लिए जरूरी है कि वो संघ के अतीत के सफर में झांकें. संघ के बारे में छपी पहली किताब, 1951 की 'मिलिटेंट हिंदुइज्म इन इंडियन पॉलिटिक्स: ए स्टडी ऑफ आरएसएस' में लेखक जे.ए. कुरन ने संघ के संस्थापक डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार और दलित नेता डॉक्टर बी.आर अंबेडकर के बीच 1936 में हुई दिलचस्प बातचीत का जिक्र किया है.
कुरन ने लिखा है कि, 'जब 1936 में मशहूर दलित नेता और कानून मंत्री डॉक्टर अंबेडकर ने मकर संक्रांति पर आयोजित संघ के कार्यक्रम की अध्यक्षता की, तो अंबेडकर ने कार्यक्रम में मौजूद संघ के प्रमुख डॉक्टर हेडगेवार से पूछा कि क्या संघ के सभी सदस्य ब्राह्मण हैं? डॉक्टर हेडगेवार ने इसके जवाब में डॉक्टर अंबेडकर से कहा कि जब संघ के स्वयंसेवक नए सदस्यों की भर्ती के लिए संघ की विचारधारा का प्रचार करते हैं, तो वो सभी ब्राह्मण हैं. जब वो रोजाना की वर्जिश करते हैं, तो वो क्षत्रिय यानी योद्धा हैं. जब वो संघ के लिए पैसे के लेन-देन का काम करते हैं, तो वो वैश्य हैं. और जब वो संघ की शाखाओं मे साफ-सफाई का काम करते हैं तो वो शूद्र हैं.'
दूसरे शब्दों में डॉक्टर हेडगेवार ने ये बताया कि हिंदू समाज में जिन चार वर्णों का जिक्र है, संघ उनके बीच की दीवार ढहाने का काम कर रहा है. संघ का मकसद ये बताना है कि जाति का कोई मतलब नहीं.
असल में डॉक्टर हेडगेवार ये बताना चाह रहे थे कि जाति का मतलब व्यवसाय से है. हर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र एक हिंदू है. हर हिंदू ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र हो सकता है. वो जो काम करता है, उससे उसका वर्ण तय होता है. कुछ लोगों के लिए कुरन का लिखा ये दिलचस्प किस्सा जाति व्यवस्था के समर्थन वाला लगेगा. वो ये कह सकते हैं कि हिंदू समाज की परंपरागत जाति व्यवस्था का हेडगेवार ने बड़ी चतुराई से समर्थन किया था (क्योंकि अगर कोई ब्राह्मण चाहे तो वो शूद्र का काम कर सकता है. मगर किसी शूद्र के लिए ब्राह्मण का काम करना नामुमकिन है). लेकिन हेडगेवार के बयान से हमें ये पता चलता है कि संघ देश की जाति व्यवस्था को किस तरह देखता-समझता है.
कुरन का ये दस्तावेज काफी रिसर्च के बाद उस वक्त तैयार किया गया था, जब संघ अपने शुरुआती दौर से गुजर रहा था. इसकी विचारधारा की बुनियाद रखी जा रही थी. कुरन ने साफ लिखा है कि संघ के सभी कार्यक्रमों में समाज के हर तबके को जोड़ने की कोशिश हो रही थी, ताकि हिंदुओं को एकजुट किया जा सके. आरएसस के हिंदू एकता के इस प्रोजेक्ट में शुरुआत से ही दलितों का अहम रोल था. शुरुआती दौर में संघ ने मध्य प्रदेश, पंजाब, और उत्तर प्रदेश के दलित युवाओं को अपनी ओर आकर्षित किया था. इसकी बड़ी वजह यही थी कि संघ में जाति के नाम पर भेदभाव नहीं होता था.
जब अयोध्या में विवादित ढांचा ढहाए जाने के एक साल बाद विश्व हिंदू परिषद ने अयोध्या की हनुमान गढ़ी में सभा की थी, तो उसके मंच पर हिंदू देवी-देवताओं के साथ डॉक्टर अंबेडकर की भी तस्वीर लगाई गई थी. ये बिना कारण नहीं था. संघ ने हमेशा से ही अंबेडकर को प्रमुख दलित नेता और दलित उत्थान के प्रतीक के तौर पर अहमियत दी. संघ की शाखाओं में हर सुबह होने वाली प्रार्थना में अंबेडकर के योगदान का जिक्र किया जाता है. यही वजह थी कि विश्व हिंदू परिषद के उस वक्त के अध्यक्ष अशोक सिंघल की अगुवाई में तमाम नेता वाराणसी में अंतिम संस्कार कराने वाले डोम राजा के घर गए थे.
हिंदुओं को एकजुट करने के अपने मिशन के दौरान आरएसएस ने भारतीय समाज की जाति व्यवस्था की चुनौती से अपने तरीके से निपटने की कोशिश की है. ब्राह्मणवादी संगठन होने का ठप्पा झेल रहे संघ में हमेशा से सवर्ण जाति के लोगों की ज्यादा दिलचस्पी रही है. दबे-कुचले वर्गों ने संघ से जुड़ने में कम ही दिलचस्पी दिखाई है. लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि संघ ने पिछड़े और दलित वर्गों के बीच पैठ बनाने की लगातार कोशिश की है.
आज के दौर में ये बात इसलिए अहम हो जाती है क्योंकि कुछ राजनीतिक पंडित और बुद्धिजीवी, सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ दलित संगठनों के छिटपुट विरोध का हवाला देकर संघ को दलित विरोधी साबित करने में जुटे हैं. संघ को लेकर ऐसी सोच रखना और उसका प्रचार करना इन लोगों की नीयत में खोट और पूर्वाग्रह को दिखाता है.
हम बीजेपी के पहले के सियासी अवतार जनसंघ से लेकर आज की बीजेपी के दौर की मिसाल ले सकते हैं. जनसंघ को सामाजिक रूप से ऊंचे तबके के लोगों की पार्टी कहा जा सकता था. जनसंघ में खास तौर से ब्राह्मणों और बनियों का वर्चस्व था. लेकिन आज की तारीख में बीजेपी में ओबीसी नेताओं की तादाद बहुत ज्यादा है. इनमें खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी हैं, जो संघ की विचारधारा के कट्टर अनुयायी हैं. चौंकाने वाली बात ये है कि ज्यादातर ओबीसी नेता कट्टर हिंदुत्व वाली विचारधारा के समर्थक हैं. इनके मुकाबले श्यामा प्रसाद मुखर्जी या अटल बिहारी वाजपेयी नरमपंथी लगते हैं.
जब बाबरी मस्जिद ढहाई गई तो बीजेपी के सबसे बड़े नेता ओबीसी जाति से आने वाले कल्याण सिंह थे. मध्य प्रदेश के सीएम शिवराज सिंह चौहान हिंदुत्व विचारधारा के समर्थक हैं, जो समाज और राजनीति के बारे में संघ की बुनियादी सोच को दिखाता है. इनके मुकाबले वाजपेयी, आडवाणी और भैरों सिंह शेखावत ने अक्सर राजनीतिक मजबूरी या जरूरत के लिए संघ की विचारधारा से इतर जाने की कोशिश की थी.
पिछले कुछ चुनावों में, खास तौर से 2014 के आम चुनाव और 2017 के यूपी विधानसभा के चुनाव में और गुजरात के पिछले चार विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने दलितों के बीच काफी पैठ बढ़ाई है. पार्टी में दलितों की नुमाइंदगी भी काफी बढ़ गई है. इसके सांसदों और विधायकों में इस तबके के नेताओं की अच्छी खासी तादाद है.
केसरिया संगठनों की कमी ये है कि इनमें से अब तक कल्याण सिंह या नरेंद्र मोदी जैसा कद्दावर दलित या आदिवासी नेता नहीं निकला है. लेकिन इस बात की अनदेखी नहीं की जा सकती कि पिछले कुछ सालों में बीजेपी ने संघ की विचारधारा में तपे कई युवा एससी/एसटी नेताओं को बढ़ावा दिया है. जैसे नरेंद्र मोदी के रूप में बीजेपी को एक हिंदूवादी ओबीसी नेता मिला है, वैसे ही आगे चलकर कोई कट्टर दलित नेता भी बीजेपी की अगुवाई करे, तो अचरज नहीं होना चाहिए, भले ही वो वक्त अभी दूर दिख रहा हो.
1979 में जब चरण सिंह ने प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के खिलाफ बगावत की, तो उस वक्त सूचना-प्रसारण मंत्री रहे लालकृष्ण आडवाणी उन्हें मनाने गए. तब चरण सिंह ने कहा, 'अरे आडवाणी, तुम तो एक सिंधी हो, तुम्हें नहीं पता कि भारत की राजनीति में जाति की कितनी अहमियत है. अगर तुम पार्टी की विचारधारा से भटकोगे तो संघ तुम्हें निकाल फेंकेगा. मगर यही वाजपेयी ने किया, तो उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा'. आडवाणी को चरण सिंह ये समझा रहे थे कि वाजपेयी ब्राह्मण हैं, इसलिए संघ उनकी अनदेखी नहीं कर सकता. जबकि अगर आडवाणी से गलती होगी, तो उन्हें पार्टी से बाहर कर दिया जाएगा, क्योंकि वो सिंधी हैं.
आडवाणी के लिए चरण सिंह की ये भविष्यवाणी 2005 में सच साबित हुई, जब उन्होंने पाकिस्तान दौरे में जिन्ना को सेक्यूलर कहा. उन्हें किनारे लगा दिया गया. लेकिन, 9 साल बाद चरण सिंह की दूसरी भविष्यवाणी को गलत साबित करते हुए ओबीसी नेता नरेंद्र मोदी बीजेपी की तरफ से प्रधानमंत्री बने, जिन्हें संघ का पूरा समर्थन हासिल था.
अगर हम आरएसएस के इतिहास और इसके लंबे सफर को देखें, तो एक दलित नेता बंगारू लक्ष्मण पहले ही बीजेपी के अध्यक्ष हो चुके हैं. आगे चल कर अगर कोई दलित बीजेपी नेता पीएम बनता है, तो इससे हिंदू एकता का संघ का प्रोजेक्ट ही पूरा होगा. संघ को इस नुस्खे से कोई ऐतराज नहीं होगा. लेकिन, जो लोग दलितों के छिटपुट विरोध प्रदर्शन को हिंदुत्व के लिए चुनौती के तौर पर देखकर खुशी मना रहे हैं, उन्हें शायद आने वाले तूफान का अंदाजा नहीं है.
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