हाल फिलहाल के दिनों में याद नहीं पड़ता कि कानून-मंत्री के तौर पर किसी मंत्री ने खुलकर सुप्रीम कोर्ट जैसी सर्वोच्च संस्था के बारे ऐसे कड़े लहजे में बातचीत की हो जितना मौजूदा कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने पिछले दो दिनों में किया है. रविशंकर प्रसाद ने अपने विचार एससी/एसटी (प्रिवेंशन ऑफ एट्रॉसिटीज) एक्ट के संबंध में सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले पर व्यक्त किया है.
हालांकि, उन्होंने ये भी साफ किया है कि उनके विचार देश के कानून मंत्री की हैसियत से कम बल्कि कानून के विद्यार्थी होने के नाते ज्यादा है. लेकिन इससे ये तय नहीं किया जा सकता कि देश की मीडिया उनके विचारों को किस तरह से जनता तक पहुंचाती है या प्रसारित करती है.
प्रसाद ने सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले पर जो गुस्सा जाहिर किया है (आमतौर पर आधिकारिक परिपाटी ये रही है कि सरकारें कभी भी सुप्रीम कोर्ट के किसी भी फैसले पर सार्वजनिक तौर पर अपनी नाराजगी जाहिर नहीं करती हैं, फिर चाहे उन्हें कोर्ट का फैसला मान्य लगता हो या न लगता हो) वो उनका निजी मत है या कानून के विद्यार्थी होने के नाते है, इससे लोग कम ही सहमत होंगे. अगर वो दिन में कई-कई बार एक ही मुद्दे पर जो इस समय काफी ज्वलंत माना जा रहा है, उसके बारे में अनेकानेक मंचों से अपना मत जाहिर करते रहेंगे, तो जाहिर है इसे सरकार की सोच माना जाएगा. आखिरकार सरकार ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा एससी/एसटी एक्ट पर दिए गए आदेश पर किसी भी तरह की औपचारिक प्रतिक्रिया देने से पहले अच्छा खासा वक्त भी तो लिया है.
भारत बंद पर भी सही रुख नहीं अपना पाई सरकार
सोमवार को जैसे ही देशभर में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ दलित समुदाय ने भारत बंद आह्वान किया है, वैसे ही सरकार के कई मंत्रियों और बीजेपी के कई वरिष्ठ नेताओं ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर अपनी आपत्ति और संशय जाहिर करना शुरू कर दिया था. इन सभी लोगों ने देश के दलित समुदाय की सुरक्षा के प्रति अपनी चिंता रखनी भी शुरु कर दी थी. ये चिंता खासकर देश के उत्तरी और पश्चिमी राज्यों की तरफ से ज्यादा रखी जा रही थी.
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पूरे घटनाक्रम के दौरान सरकार बचाव की मुद्रा में थी. ये साफ तौर पर देखा जा रहा था कि सरकार न सिर्फ दबाव में है बल्कि चिंतित भी, वो किसी भी हालत में खुद को दलित विरोधी के तौर पर दिखाना नहीं चाहती थी. एक के बाद एक सत्ताधारी पार्टी के कई नेता ये बताने और समझाने की जुगत में लग गए कि पीएम मोदी की अगुवाई में मौजूदा सरकार ने किस तरह से पिछले चार साल में इस समुदाय की तरक्की के लिए काम किया है और बाबा साहब के सम्मान की रक्षा करते हुए उसकी दोबारा स्थापना की है.
ये एक ऐसा मुद्दा है जिसका कई राजनीतिक और सामाजिक असर होगा, लेकिन मामला तब और ज्यादा बिगड़ गया जब सुप्रीम कोर्ट ने सरकार की उस याचिका को खारिज कर दिया जिसमें सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय से अपने 20 मार्च को दिए गए फैसले पर स्टे लगाने की अपील की थी. अदालत ने मासूम और निर्दोष लोगों को किसी भी तरह के झूठे और फर्जी मामलों से सुरक्षा प्रदान करने के अपने फैसले को बदलने से इंकार कर दिया.
ये मामला किस तरह से भावनात्मक हो गया है ये इसी बात से साबित होता कि पिछले दो दिनों की घटनाओं में आठ लोगों की जान चली गई है. इनमें से छह मध्यप्रदेश, एक यूपी और एक राजस्थान से है. इस तरह की प्रतिक्रिया से ये भी साबित होता है कि लोगों को इस बात से मतलब कम है कि ये पूरा मुद्दा नागरिक अधिकारों से जुड़ा है और उनकी भावनाओं से ज्यादा. इनमें हर वर्ग शामिल है, चाहे वो सरकार हो, विपक्षी पार्टियां हो या फिर दलित आंदोलनकारी.
लेकिन कोशिश तो हो रही है
जैसा कि दिखाने की कोशिश हो रही है ये मुद्दा मोदी सरकार की देन नहीं है बल्कि ये सुप्रीम कोर्ट में काम-काज, वहां चल रहे विभिन्न केस की सुनवाई से पैदा हुई है... सरकार इस केस का हिस्सा नहीं थी, लेकिन जैसा कि ऐसे मामलों में होता है सरकार का मत जाहिर करने के लिए सुनवाई के दौरान सॉलिसिटर जनरल वहां मौजूद जरूर थे. ऐसी किसी भी मामलों में सरकार चाहे उसका हिस्सा हो या न हो, वो सिर्फ अपना नजरिया कोर्ट के सामने पेश कर सकती है, वो बहस में शामिल हो सकती है.... सरकारी नजरिया सामने रख सकती है लेकिन वो किसी भी तरह से अदालत के फैसलों को न तो प्रभावित कर सकती है न ही बदल सकती है.
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सरकार ने बिना देरी किए, इस बात का ध्यान रखते हुए कि अगले चार दिन सरकारी छुट्टी है, सुप्रीम कोर्ट में एक रिव्यू पिटिशन भी दाखिल कर दिया था ताकि अदालत खुलने के साथ ही अपने फैसले पर दोबारा विचार कर सके लेकिन फिर भी दलित आंदोलन को रोक पाने में नाकाम रही. इस पर सिर्फ सरकार ही नहीं बल्कि पूरा विपक्ष और आंदोलनकर्ता भी एक राय रखते थे. हर किसी को पता था कि अदालत के इस फैसले का देश भर में न सिर्फ विरोध होगा बल्कि वो उग्र प्रदर्शन में तब्दील हो सकता है, लेकिन फिर भी आज सरकार इस मुद्दे को सही तरीके से संभाल न कर पाने का न सिर्फ आरोप झेल रही है बल्कि उसकी तीखी आलोचना भी हो रही है.
हाल-फिलहाल के दिनों में ऐसे कई मामले सामने आए हैं जिसमें ऐसी कई घटनाएं हुई हैं जिनके होने का सीधा संबंध भले ही मोदी सरकार से हो या न हो, लेकिन उसे इस तरह से तोड़-मरोड़कर जनता के सामने पेश किया गया है कि वो उनके विरोधियों और आलोचकों के पक्ष में गया है. एक पार्टी के तौर बीजेपी ने हमेशा अपने कामकाज को जनता के सामने सार्वजनिक मंचो पर शेयर किया है और उसको लेकर लोगों से सीधा संवाद किया है, वो इस मामले में एक बार फिर से मात खाती दिख रही है.
नीरव मोदी, मोसुल में भारतीयों की हत्या और दिल्ली में सीलिंग का मामला
उदाहरण के तौर पर नीरव मोदी का मामला ले लें. नीरव मोदी ने घोटाले को अंजाम देना यूपीए सरकार के दौरान ही शुरु कर दिया था, लेकिन जैसे ही उसे इस बात का अंदाजा हुआ कि वो मुश्किल में पड़ सकता है वो देश छोड़कर भाग गया. यहां ये जरूर है कि मोदी सरकार को इस मामले में और ध्यान देना चाहिए था लेकिन काले धन और भ्रष्टाचार को खिलाफ कड़ा कदम उठाने के बाद भी नीरव मोदी प्रकरण ने सरकार को कठघरे में खड़ा तो कर ही दिया. ये तय है कि मोदी सरकार के अधिकारी न सिर्फ जनता से सीधा और असरदार संवाद कायम करने में बुरी तरह से नाकाम हुए बल्कि वो कई अहम मुद्दों पर लेट-लतीफी की भी शिकार हुई.
दूसरा मामला जहां सरकार की दूरदर्शिता सवालों के घेरे में आ गई वो इराक के मोसुल में 39 भारतीय मजदूरों की मौत का रहा है. मारे गए लोग एक विदेशी धरती में आतंरिक कलह के दौरान मारे गए. वे लोग वहां रोजगार की तलाश में तब गए थे जब मोदी सरकार केंद्र में नहीं थी लेकिन उनकी मौत बीजेपी की सरकार आने के बाद हुई. केंद्र सरकार ने उन 39 मजदूरों को ढूंढने की हरसंभव कोशिश की, उसने इस बात का भी ध्यान रखा कि बिना सबूत के उन्हें मरा हुआ घोषित न कर दिया जाए. उसने न सिर्फ उन सभी मारे गए भारतीयों के शव को ढूंढने के लिए एड़ी-चोटी एक कर दी बल्कि उनका डीएनए जांच भी करवाया ताकि कोई गलती न हो जाए लेकिन फिर भी सवालों के घेरे में आ गई. ऐसा होने की एकमात्र वजह ये रही कि उसने लोगों के बीच एक तरह से एक झूठी उम्मीद बना रखी थी कि वे सभी 39 भारतीय जिंदा हैं, जबकि ऐसा करने की कोई वजह नजर नहीं आती. पीड़ित परिवारों के लिए ये दुख असहनीय था जिस कारण मोदी सरकार की खूब आलोचना हुई. ऐसा होने की वजह एक बार फिर सरकार का गलत तरीके से किया गया संवाद था.
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ऐसा ही एक और मामला रहा दिल्ली में चल रही सीलिंग का, जिसमें रिहायशी इलाकों में चल रहे सभी तरह के बिजनेस और कमर्शियल दुकानों को बंद किया जा रहा है और ऐसा सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद ही हो रहा है. इनमें हर तरह की छोटी-बड़ी दुकानें शामिल हैं, जिनमें छोटी-छोटी राशन की दुकानें, होटल, छोटे दफ्तर भी हैं जो वहां सालों-साल से मौजूद हैं और जिनसे दिल्ली के हजारों-लाखों परिवारों का घर चलता है. इस स्थिति से निपटने के लिए केंद्र की बीजेपी और दिल्ली की आप सरकार दोनों ने ही मिलकर कोशिश की लेकिन अदालत अपने फैसले पर अड़ी रही, जिसका खामियाजा दिल्ली की आप सरकार को कम और केंद्र की बीजेपी सरकार को ज्यादा झेलना पड़ा. यहां एक बार फिर से बीजेपी की तरफ से संवादहीनता नजर आई.
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