देश में बेरोजगारी की समस्या दिन ब दिन भयावह होती जा रही है. यह समस्या कितनी गंभीर हो चुकी है इसका अंदाजा सरकार तक को नहीं है. क्योंकि उसके पास बेरोजगारी के आंकड़े ही नहीं हैं. या हो सकता है कि सरकार बेरोजगारी की समस्या को गंभीर मानने की हालत ही में न हो. लेकिन इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता है कि बीते एक साल से देश के बेरोज़गार लोग नौकरी पाने के लिए लगातार धरने-प्रदर्शन करते नजर आ रहे हैं. खासकर सरकारी नौकरियों में भर्तियों की प्रक्रिया को लेकर युवाओं का असंतोष सड़कों पर दिखने लगा है.
केंद्रीय श्रम एवं रोजगार राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) संतोष कुमार गंगवार ने हाल ही में संसद में रोजगार के आकंड़ों को लेकर पूछे गए सवाल के जवाब में जो कुछ कहा उसने खुद ब खुद भारत में रोजगार की खराब हालत को बयां कर दिया है. गंगवार ने संसद में कहा कि, भारत सरकार ने साल 2016 से देश में रोजगार के वास्तविक आंकड़ों को जानने के लिए कोई भी देशव्यापी सर्वे नहीं कराया है.
दूसरे शब्दों में कहें तो, 2016 के बाद से सरकार के पास देश में रोज़गार/बेरोजगारी की स्थिति का कोई सुराग नहीं है. किसी भी अर्थव्यवस्था के लिए यह यकीनन कोई अच्छी खबर नहीं है. खासकर ऐसे देश के लिए तो बिल्कुल नहीं जो एशिया के राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्रों की नेतृत्व की इच्छा रखता हो.
अर्थव्यवस्था पर नजर रखने वाले किसी भी पर्यवेक्षक के लिए सबसे बड़ी चिंता यही है कि जमीनी हकीकत समझने के लिए उसके पास पर्याप्त आंकड़े नहीं हैं. अगर नौकरियों और रोजगार की बात की जाए तो भारत के लिए यह स्थिति बेहद डरावनी हो सकती है. पिछली बार जब श्रम विभाग (लेबर ब्यूरो) ने नौकरियों और रोज़गार के आंकड़े जारी किए थे, तब यह देखा गया था कि 2015-16 में बेरोजगारी 5 फीसदी बढ़ी थी. जो कि बेरोज़गारी का बीते पांच साल का उच्चतम स्तर था.
साल 2016 के बाद बेरोजगारी से संबंधित कोई भी डाटा नहीं है
साल 2013-14 में बेरोज़गारी की यह दर वास्तव में 4.9 फीसदी थी. साल 2015-16 में बेरोजगारी का आंकड़ा महिलाओं के लिए 8.7 फीसदी जबकि पुरुषों के लिए 4.3% था. इनमें 5.1 फीसदी बेरोजगार लोग ग्रामीण क्षेत्रों के थे वहीं 4.9 फीसदी बेरोजगार लोग शहरी क्षेत्र से संबंध रखते थे. श्रम विभाग के आकंड़ों का एक और दिलचस्प पहलू यह भी था कि, देश के लगभग 77 फीसदी घरों में नियमित वेतन या आय का कोई साधन नहीं पाया गया था.
साल 2016 के बाद से सरकार के पास रोजगार या बेरोजगारी को लेकर कोई भी आकंड़े (डेटा) उपलब्ध नहीं हैं. रोजगार या नौकरी के आकंड़े न होना किसी महत्वाकांक्षी अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा शगुन नहीं है. ऐसे में किसी भी अर्थशास्त्री या पर्यवेक्षक के लिए अनुमान लगाना मुश्किल है कि देश में बेरोजगारी की वास्तविक स्थिति क्या है. लिहाज़ा लोग यकीनन बदतर हालात की ही उम्मीद करेंगे.
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भारत में रोजगार और बेरोजगारी के लेकर सालाना सर्वे क्यों नहीं कराया जा रहा है? यह एक ऐसा सवाल है जिस पर चिंतन-मनन और चर्चा करना बेहद महत्वपूर्ण है. विडंबना यह है कि वास्तव में हम नहीं जानते हैं कि भारत की नौकरियों और रोजगार की स्थिति उतनी ही खराब है जितनी समझी जा रही है. वर्तमान में अलग-अलग एजेंसियों और संस्थानों ने देश में नौकरियों और रोजगार की स्थिति की व्याख्या के लिए अलग-अलग आंकड़ों का इस्तेमाल किया है.
उदाहरण के लिए, अगर हम आईआईएम बैंगलोर के पुलक घोष और स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के सौम्या कांति घोष के साझा अध्ययन (स्टडी) पर गौर करें तो भारत में रोजगार के हालात उतने खराब नहीं हैं जितना कि आम तौर पर समझे जा रहे हैं. पुलक घोष और सौम्या कांति घोष का साझा अध्ययन कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (ईपीएफओ), एम्प्लॉइज स्टेट इंश्योरेंस कॉरपोरेशन (ईएसआईसी), जनरल प्रॉविडेंट फंड और नेशनल पेंशन सिस्टम (एनपीएस) के आकंड़ों पर आधारित है.
बेरोजगारी की स्थिति दिखानेवाले तथ्यों को किया जा रहा दरकिनार
पुलक घोष और सौम्या कांति घोष का अध्ययन 'बिजनेस स्टैंडर्ड' में 'टुवर्ड्स अ पेरोल रिपोर्टिंग इन इंडिया' नाम के शीर्षक से छपा है. जिसके मुताबिक, वित्तवर्ष 2018 के नवंबर महीने तक अनुमानित तौर पर करीब 36 लाख 80 हजार नौकरियां पैदा हुईं. अगर पूरे वित्त वर्ष की बात करें तो नौकरियों का यह आंकड़ा करीब 50 लाख 50 हजार तक पहुंचता है. लेकिन इस मामले में सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के मैनेजिंग डायरेक्टर और सीईओ महेश व्यास ने ईपीएफओ आधारित नौकरियों और रोजगार के आकंड़ों की पद्धति के खारिज कर दिया है.
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महेश व्यास के मुताबिक, 'रोज़गार के अनुमान के लिए ईपीएफओ के आकंड़ों का इस्तेमाल हमेशा खतरनाक होता है. ईपीएफओ की 2015-16 की वार्षिक रिपोर्ट बताती है कि, उस वक्त उसके 17.14 करोड़ सदस्य थे. पिछले आकंड़ों से पता चलता है कि साल 2014-15 में ईपीएफओ में 4.1 करोड़ सदस्यों का इजाफा हुआ, वहीं साल 2015-16 में 1.3 करोड़ सदस्य बढ़े. लिहाजा रोजगार मापने का यह एक अविश्वसनीय पैमाना है.'
व्यास ने आगे कहा कि, 'स्पष्ट तौर पर, रोज़गार और नौकरियों की खराब स्थिति को इंगित करने वाले सभी सर्वे के नतीजों को दरकिनार करने की कोशिश की जा रही है. ऐसा जवाबदेही से बचने के लिए किया जा रहा है. साल 2018 का आर्थिक सर्वेक्षण देश में नौकरियों और रोजगार के परिदृश्य के बारे में आशाजनक तस्वीर पेश करता है.'
नागरिकों को अंधेरे में नहीं रख सकती है सरकार
आर्थिक सर्वे ईपीएफओ और कर्मचारी राज्य बीमा निगम (ईएसआईसी) के माध्यम से सामाजिक सुरक्षा के परिप्रेक्ष्य में रोज़गार के परिदृश्य को देखता है. आर्थिक सर्वे के मुताबिक देश में फिलहाल 6 करोड़ औपचारिक कर्मचारी मौजूद हैं. इनके अलावा 1.5 करोड़ सरकारी कर्मचारी हैं. दोनों संख्याएं मिलाने पर कर्मचारियों का आंकड़ा 7.5 करोड़ होता है. टैक्स के परिप्रेक्ष्य से देखा जाए तो बिना पेरोल वाले औपचारिक लोगों की संख्या 12.7 करोड़ है, जिसमें सरकारी कर्मचारी भी शामिल हैं.
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इस संख्या में 53 फीसदी लोग ऐसे हैं जिनका संबंध कृषि क्षेत्र के कार्यबल से नहीं है. लेकिन जैसा कि रिपोर्ट में कहा गया है कि, छोटे-मोटे रोजगार वाले सभी लोगों को औपचारिक कर्मचारी नहीं माना जा सकता है, क्योंकि इनके पास आय का कोई पक्का साधन नहीं है. लिहाजा इन लोगों को औपचारिक कर्मचारियों की सीमा में नहीं रखा जा सकता है.
यहां सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि, क्या ईपीएफओ-आधारित आंकड़े कारगर हैं या नहीं? ऐसे में सरकार द्वारा कराए गए राष्ट्रीय सर्वे पर आधारित रोजगार/बेरोज़गारी के आंकड़े बेहद अहम हो जाते हैं. एक महत्वपूर्ण आर्थिक सूचकांक को देखने के लिए हम किसी भी विखंडित आंकड़े पर भरोसा नहीं कर सकते हैं. लिहाजा देश में रोज़गार/बेरोज़गारी की स्थिति के बारे में सरकार अपने नागरिकों को अंधेरे में नहीं रख सकती है.
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