हमारे नेताओं का एक काम है हवाई जहाज की उड़ान में देरी करना और दूसरा काम है सड़क पर जाम लगाना! लेकिन जब ये दोनों काम न हों तो हमारे नेता क्या करते हैं?
आपको जानकर खुशी होगी कि ऐसे जरूरी कामों की एक फेहरिस्त हमेशा उनके पास होती है और वे मानते हैं कि ये काम किए जाएं तो लोगों में उनकी खूब वाह-वाही होगी. ऊल-जलूल बतकही का कोई ऑस्कर अवार्ड दिया जाता हो तो वह इस हफ्ते यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के खाते में जाना चाहिए.
कब तक चलेगी यह बतकही?
योगी ने ताजमहल के बारे में कहा कि वह भारतीय संस्कृति का हिस्सा नहीं है. वह उपहार देने वाली एक चीज भर है, लिहाजा भारत दौरे पर आए विदेशी सैलानियों को उसे गिफ्ट के रूप में देने का चलन रहा है.
सोचिए आखिर इस बात का राजकाज यानी गवर्नेंस से क्या रिश्ता है? गवर्नेंस के लिहाज से यह उतनी ही बेमानी बतकही है जितना कि हिन्दुत्व का कोई और बोल-वचन. व्यर्थ के बतकुचन की एक लंबी माला है और इस माला के एक-एक मनके पर लिखा है कुछ ऐसा कहो जो एकदम ही फिजूल हो.
राजनेता यह माला फेरते रहते हैं. फिर उनके बोल चुनकर मीडिया अपनी दोनाली में चढ़ा लेता है. मीडिया की दोनाली दगती है तो राजनेताओं के ये बोल कुछ इतनी गूंज पैदा करते हैं कि आज यह कानफोड़ू शोर से कहीं ज्यादा ऊंची है.
हर बात पर क्यों 'मेरी मर्जी'
मैं कुतुबमीनार पर घर बनवाऊं मेरी मर्जी- मुंबईया मसाला फिल्म के गीत का यह बोल अब राजनेताओं की बतकही के आगे फीका लगने लगा है. नेताओं का कुछ फिजूल कहना खुद में उतना खतरनाक नहीं है जितना कि मीडिया के जरिए उसका प्रसार.
नेताओं को अपने ऐसे बोल के लिए वाह-वाही मिलती है. उनके कसीदे पढ़े जाते हैं. मीडिया ऐसे बोल-वचन को बढ़-चढ़कर जगह और समय देता है, एक बेमतलब की बात अचानक मुद्दा बनकर लोगों की जबान पर चढ़ जाती है.
शायद हर नेता ने शेखचिल्ली नुमा कुछ सलाहकार पाल रखे हैं. उनके पास हमेशा ही कुछ अजब-गजब सलाह होती है. इन सलाहकारों को लगता है कि फलां बात बोल दी जाए तो लोगों में उसका बड़ा शोर होगा. और वे ऐसे मुहावरे या बयान नेता के आगे पेश करते रहते हैं.
किसको मिलेगा बतकही का ऑस्कर?
फिजूल की बतकही के ऑस्कर अवार्ड के लिए इस हफ्ते योगी आदित्यनाथ को अगर कोई टक्कर दे सकता है तो वो हैं बिहार के बिग बॉस नीतीश कुमार. योगी आदित्यनाथ ने संगमरमर की उस इमारत ताजमहल पर ही अंगुली उठायी थी लेकिन नीतीश कुमार इससे भी आगे बढ़ गए.
नीतीश कुमार ने कहा, छुट्टा घूमने वाली गायों के लिए गोशाला बनवायी जाए. वहां उन्हें आराम से रखने के जतन किए जाएं. उनको लगता है कि गायों को जिंदा या मुर्दा एक जगह से दूसरी जगह लाने- ले जाने के नाम पर लोगों को बेरहमी से पिटने और जान से मार देने से कहीं बेहतर है कि गोशाला बनवाना.
जानवरों के लिए मन में दया की भावना है तो इसमें कोई बुराई की बात नहीं, अगर आपको जानवरों के लिए दया महसूस होती है तो बेशक ऐसा कीजिए. लेकिन याद रहे कि हम एक ऐसे देश में रहते हैं जहां 1 करोड़ 10 लाख बच्चे अनाथ हैं.
गाय जरूरी या बच्चे?
क्या आपको नहीं लगता कि सड़क पर घास-फूस चबाती गाय की तुलना में इन बच्चों पर कहीं ज्यादा प्यार-दुलार बरसाने की जरूरत है. यह भी याद रखें कि इन अनाथ बच्चों में 90 फीसद लड़कियां हैं और भयानक बात यह है कि इन्हें चंगुल में लेकर कभी भी मानव-व्यापार के बाजार में बेचा जा सकता है.
बावजूद इसके हमने शायद ही कभी पढ़ा हो कि लोगों को पकड़कर गुलाम बनाने और उनका यौन-शोषण करने वालों को किसी ने नंगा किया और पीटा. बच्चों को अनाथ छोड़ना धारा 517 के अंतर्गत एक अपराध है लेकिन यह कभी मुद्दा नहीं बनता.
नीतीश कुमार या योगी आदित्यनाथ सरीखे नेता कभी नहीं मानेंगे कि बच्चों के शोषण के मसले पर भी अपने वोट-बैंक के बीच भाषण दिया जा सकता है. अब इससे ज्यादा बेबस करने वाली बात क्या होगी!
अनाथ बच्चों का मसीहा कौन बनेगा?
बिहार में अनाथ बच्चों को गोद लेने वाले लोगों की तादाद बड़ी कम है. अक्सर पूरा साल बीत जाता है लेकिन अनाथ बच्चे को गोद लेने वाले लोगों की तादाद दहाई अंकों में भी नहीं पहुंचती. इस तथ्य को ध्यान में रखकर अगर नीतीश कुमार ने कहा होता कि गोशाला बनवाने के साथ-साथ वे त्यागे गए बच्चों की दुख-दशा की भी परवाह करेंगे तो यह प्रशंसा की बात होगी.
और बात यहीं खत्म नहीं होती.. अपने फन के माहिर हजारों-हजार ऐसे नटवरलाल भरे पड़े हैं जिनकी नजर इन मासूम बच्चों पर होती है, वे इन्हें पकड़कर अपराध की किसी भी अंधेरी दुनिया में भटकने के लिए छोड़ सकते हैं.
बाल मजदूरी का आंकड़ा
आधिकारिक आंकड़ा है कि देश में बाल-मजदूरों की तादाद 1 करोड़ 20 लाख है लेकिन स्वयंसेवी संस्थाएं कहती हैं कि यह आंकड़ा तो सिर्फ हाथी की पूंछ बराबर है.
स्वयंसेवी संस्थाओं के मुताबिक देश में 6 करोड़ बच्चे बाल-मजूरी में लगे हैं. उनका शोषण होता है और बुनियादी अधिकारों से वंचित रखा जाता है. लेकिन यह मसला वोट बटोरने लायक नहीं माना जाता.
बच्चों को शिकंजे में लेकर उनसे लगातार पंद्रह-पंद्रह घंटे मशक्कत ना करवायी जाय तो फिर दियासलाई, पटाखे और कालीन बनाने जैसे कुटीर उद्योगों का क्या होगा? लेकिन इस बात से हमारी आत्मा नहीं कचोटती, हम मान लेते हैं कि अनाथ गायों पर अपनी दया बरसाकर हमने अपने आत्मा को पाक-साफ कर लिया है.
सरकार कहती है कि 2016 में केवल 25000 बच्चे मानव-तस्करी के शिकार हुए, पता नहीं सरकार इस आंकड़े तक कैसे पहुंची लेकिन यह तादाद बहुत कम जान पड़ती है. बच्चों को धर-पकड़कर उन्हें किसी सामान की तरह बेचने के लिए इधर से उधर भेजने का जो धंधा अंदरखाने के चल रहा है, उसकी सच्चाई इस सरकारी आंकड़े से जरा भी उजागर नहीं होती.
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