सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में राजनीतिक पार्टियों के धर्म, जाति, समुदाय या भाषा के नाम पर वोट मांगने पर रोक लगा दिया है. लेकिन इस फैसले के लागू होने में कई पेंच है.
सात जजों की बेंच के बहुमत से दिया गया यह फैसला सोमवार को आया. इस फैसले का असर पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों में पार्टियों पर पड़ेगा.
संविधान के धर्मनिरपेक्ष चरित्र का हिमायती है फैसला
बेंच की अगुवाई रिटायर हो रहे चीफ जस्टिस टी एस ठाकुर ने की. इसके अलावा जस्टिस शरद बोबडे, जस्टिस मदन लोकुर और जस्टिस राव ने उनके साथ सहमति जताई कि जाति या धर्म के आधार पर वोट नहीं मांगे जाने चाहिए. जस्टिस यू यू ललित, जस्टिस आदर्श गोयल और जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ की राय इस मसले पर अलग रही.
आदेश में कहा गया है कि चुनावों को धर्मनिरपेक्ष तरीके से कराने के जरिए संविधान के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को कायम रखा जाना चाहिए. बेंच ने कहा कि इंसान और धर्म का चुनाव व्यक्तिगत है.
लेकिन सात जजों में से तीन ने इस पर विरोध जताया और कहा कि इस तरह के फैसले से लोकतंत्र एक कल्पना में सिमट जाएगा.
यह फैसला 20 साल पुराने उस फैसले की प्रतिक्रिया में आया है जिसमें हिंदुत्व को एक ‘जीवन पद्धति’ बताया गया था. जिसमें कहा गया था कि अगर कोई उम्मीदवार इस आधार पर वोट मांगता है तो उस पर कोई विपरीत असर नहीं होगा.
बीजेपी की यूएसपी रही है हिंदुत्व
बीजेपी बड़े पैमाने पर हिंदू की जगह हिंदुत्व शब्द का इस्तेमाल करती आई है. यह साफ नहीं है कि इसका बीजेपी पर किस तरह से असर होगा. केंद्र की सत्ताधारी पार्टी ने अभी तक इस विषय पर कोई टिप्पणी नहीं की है. पार्टी पहले आदेश पढ़ना चाहती है, सोच-समझकर राय बनाना चाहती है और उसके बाद वह इस मसले पर टिप्पणी देगी.
जाति, धर्म या समुदाय के आधार पर वोट मांगने से राजनीतिक पार्टियों को रोकने वाले फैसले का परिचालन वाला हिस्सा उसी बात को दोहराता है जो पहले से कानून में मौजूद है. ऐसे में यह महत्वपूर्ण हो गया है कि पूरा फैसला एक संदर्भ के साथ समझा जाए. खासतौर पर इसमें जो बात हिंदुत्व के बारे में कही गई है.
चुनाव आयोग के प्रावधान पहले से हैं मौजूद
चुनाव आयोग ने चुनावों के दौरान अपनाई जाने वाली भ्रष्ट गतिविधियों और अपराधों के संबंध में लंबे-चौड़े प्रावधान बनाए हैं. इसमें ‘धर्म, जाति, समुदाय या भाषा के आधार पर अलग-अलग वर्गों के बीच घृणा को प्रोत्साहन देने या इसकी कोशिश करने’ के अपराध को सबसे ऊपर रखा गया है.
रिप्रेजेंटेशन ऑफ पीपुल एक्ट, 1951 के सेक्शन 125 और आईपीसी के सेक्शन 153ए में इस अपराध के बारे में विस्तृत व्याख्या की गई है. इस कानून के तहत तीन साल की कैद या जुर्माना या दोनों का प्रावधान किया गया है. शब्दों से या तो बोलकर, लिखकर, या संकेतों से या कोई भी अन्य तरीका अपराध की श्रेणी में आएगा.
यह फैसला चीफ जस्टिस टी एस ठाकुर के रिटायर होने के ठीक एक दिन पहले आया है. इससे न्यायपालिका बनाम कार्यपालिका या न्यायपालिका बनाम विधायिका का मसला फिर सुर्खियों में आ गया है.
चूंकि संसद और आधे से ज्यादा राज्य नेशनल ज्यूडीशियल अपॉइंटमेंट्स कमीशन बिल को पास कर चुके हैं और सुप्रीम कोर्ट इस एक्ट के खिलाफ है, ऐसे में न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका के बीच बने तनाव पर सबकी निगाहें रहेंगी.
इस फैसले से कुछ सवाल पैदा होंगे:
मौजूदा कानून के प्रावधानों को दोहराने का चुनाव आयोग और राजनीतिक पार्टियों के लिए क्या मतलब होगा?
क्या यह अथॉरिटीज को इस तरह के अपराधों पर सक्रियता से नजर रखने और इन पर कार्रवाई करने के लिए प्रेरित करेगा?
क्या ऐसे नेताओं के खिलाफ बड़े कदम उठाए जाएंगे जो जाति, धर्म, समुदाय या भाषा के आधार पर चुनाव लड़ते हैं. क्या दलित, आदिवासी, यदुवंशी, अकलियत, मुस्लिम, हिंदुत्व, हिंदी, मराठी, गुजराती, कोंकणी, पंजाबी जैसे शब्दों का इस्तेमाल करना नेताओं और उनकी पार्टियों के लिए दिक्कत पैदा करेगा?
क्या संबंधित अथॉरिटीज जातिसूचक, धर्म, भाषा आधारित शब्दों के इस्तेमाल पर केवल तभी कार्रवाई करेंगी जबकि इनका इस्तेमाल आदर्श चुनाव संहिता लागू होने के बाद किया जाएगा या ये साल भर लागू किए जाएंगे?
मायावती, आजम खान, मुलायम सिंह, मुस्लिम समुदाय के सामाजिक मसलों पर बोलते हैं. लालू प्रसाद यादव यदुवंशी समुदाय की चिंताओं को लेकर बोलते हैं. अभी तक इसका संज्ञान किसी भी अथॉरिटी ने नहीं लिया है.
उन पार्टियों का क्या होगा जिनके नाम धार्मिक प्रतीकों से लिए गए हैं? मसलन, शिवसेना, इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग और ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तिहादुल मुसलमीन. ये मुख्यधारा की धार्मिक पार्टियां हैं. ये महाराष्ट्र, केरल, आंध्र प्रदेश में सरकारों का हिस्सा रही हैं. साथ ही ये अलग-अलग समय पर केंद्र में सत्ताधारी पार्टियों की सहयोगी रही हैं.
अभी इस सब पर तस्वीर साफ नहीं है. अगर सुप्रीम कोर्ट का फैसला शब्दशः लागू किया जाता है तो इन पार्टियों का अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा. लेकिन यह चुनाव आयोग और अदालतों के लिए एक बड़ी चुनौती होगी.
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