हिमाचल प्रदेश में बीजेपी ने प्रेम कुमार धूमल को मुख्यमंत्री पद का दावेदार बनाया था. जबसे धूमल के नाम की घोषणा हुई, तब से उन्हें कोई राहत नहीं थी. चुनाव लड़ रहे उम्मीदावर रैलियों में उनकी मौजूदगी की मांग कर रहे थे. दूसरी तरफ, प्रचार के दौरान और बाद में वरिष्ठ नौकरशाह और दूसरे लोग चुनाव के बाद बड़े पद और दूसरी तरह की मदद के लिए की उम्मीद में उन्हें घेरे रहते थे.
हिमाचल में हर कोई बीजेपी की जीत की भविष्यवाणी कर रहा था, इसलिए सब कुछ शीशे की तरह साफ था. किसी ने नहीं सोचा था कि दो बार मुख्यमंत्री रहे प्रेम कुमार धूमल हार जाएंगे, जबकि राज्य में बीजेपी की लहर चल रही थी. इसमें कोई शक नहीं कि वो राज्य में पार्टी के सबसे बड़े नेता हैं. ऐसा शायद पहली बार हुआ है कि जीतने वाली बीजेपी का मुख्यमंत्री पद का दावेदार खुद अपना चुनाव हार गया.
कार्यकर्ताओं को संतुष्ट करने के लिए चुना गया था चेहरा
शुरुआत में बीजेपी ने बिना मुख्यमंत्री के चेहरे के चुनाव लड़ने का फैसला किया था. बीजेपी की ख्वाहिश कांग्रेस से सत्ता छीनने की थी. इसलिए प्रचार के बीच में पार्टी ने धूमल को मुख्यमंत्री के दावेदार के रूप में आगे किया. बीजेपी ने ये फैसला इन रिपोर्टों के बाद किया कि मुख्यमंत्री उम्मीदवार को लेकर अस्पष्टता के कारण पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच कटुता और अनिश्चितता बढ़ रही है.
पूर्व में बीजेपी मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करने को लेकर सतर्क रही है. पार्टी ने दिल्ली में किरण बेदी को मुख्यमंत्री के दावेदार के रूप में पेश किया था, लेकिन उसे शर्मनाक हार झेलनी पड़ी. बिहार विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने किसी को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार नहीं बनाया फिर भी पार्टी को हार का सामना करना पड़ा. असम में सर्बानंद सोनोवाल के चेहरे पर चुनाव लड़ा गया और पार्टी को जीत मिली. यहां तक कि पड़ोस के उत्तराखंड में भी पार्टी ने मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित नहीं किया था, फिर भी जीत मिली.
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बीजेपी को पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार, प्रेम कुमार धूमल और केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जे पी नड्डा के बीच चयन करना था. 'मार्गदर्शक मंडल' में शामिल होने की उम्र के कारण शांता कुमार का नाम इस दौड़ से बाहर हो गया. नड्डा को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का करीबी माना जाता है और वो कम उम्र के कारण इस पद के लिए इंतजार कर सकते थे. हालांकि जमीनी स्तर पर पकड़ नहीं होना भी उनके खिलाफ गया. पार्टी ने 73 साल के धूमल का चयन किया, जो पार्टी के सभी वर्गों के कार्यकर्ताओं के बीच लोकप्रिय हैं.
धूमल के चयन के पीछे थीं कई वजहें
धूमल ने पूर्व में दो बार वीरभद्र सिंह के साथ सत्ता की अदला-बदली की है. उन्हें कांग्रेस से लोहा लेने के लिए सबसे उपयुक्त उम्मीदवार माना गया. उन्हें चुनने के पीछे दूसरी अहम वजह हमीरपुर और आसपास के जिलों में उनका जबरदस्त प्रभाव भी रहा. इसके अलावा वो दो साल बाद 75 वर्ष के हो जाते. पार्टी में नीतिगत रूप से सेवानिवृत्ति के लिए यही उम्र तय की गई है. इससे दूसरे उम्मीदवारों को मौका मिलने की संभावना मिल जाती जो अगले चुनाव में पार्टी का नेतृत्व करता.
विडंबना यह है कि बीजेपी के कई उम्मीदवार अपनी सफलता का श्रेय धूमल के प्रभाव और समर्थन को देते हैं. लेकिन धूमल को उन राजिंदर राणा ने हराया, जो कभी उनके चेले और खास हुआ करते थे. राणा व्यापारी हैं जो रियल इस्टेट कारोबार भी करते हैं. राणा मृदुभाषी और ईमानदार हैं, जिन्हें उनकी विनम्रता और सादगी के लिए जाना जाता है.
यह सबको पता है कि खुद धूमल ने ही राणा से सुजानपुर विधानसभा सीट पर काम करने को कहा था. पिछले चुनाव में यह लगभग तय था कि पार्टी राणा को यहां से उम्मीदवार बनाएगी. हालांकि पार्टी ने उन्हें टिकट नहीं दिया. उनकी जगह दूसरे वरिष्ठ नेता के उम्मीदवार को मैदान में उतार दिया गया.
सुजानपुर का संघर्ष और राणा की मेहनत ने हरा दिया
राणा ने पूरी लगन के साथ सुजानपुर में काम किया था. इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि वो सुजानपुर के हर परिवार से व्यक्तिगत संपर्क में रहते थे. उन्होंने गरीब बेटियों के लिए सामूहिक विवाह का आयोजन किया. राणा ने ये सुनिश्चित किया कि स्थानीय महिलाओं को वोकेशनल ट्रेनिंग भी मिले. किसी की मृत्यु होने पर वो उसके परिवार से मिलकर उन्हें ढांढस बंधाते थे. वो सुजानपुर की लगभग हर शादी में शरीक हुए.
लोकप्रिय समर्थन होने के कारण राणा बागी उम्मीदवार बनकर निर्दलीय मैदान में उतर गए. इसके बाद उन्होंने वीरभद्र सिंह से हाथ मिला लिया जो कांग्रेस सरकार की अगुवाई कर रहे थे. हालांकि दल-बदल कानून से बचने के लिए राणा कांग्रेस में शामिल नहीं हुए.
साल 2014 के लोकसभा चुनाव में राणा ने सुजानपुर सीट से इस्तीफा दे दिया. वो कांग्रेस में शामिल हो गए और धूमल के बेटे अनुराग ठाकुर के खिलाफ लोकसभा चुनाव में पार्टी के उम्मीदवार बन गए. उन्होंने सुजानपुर से अपनी पत्नी को उपचुनाव में खड़ा कर दिया. दोनों ही चुनाव हार गए.
इस बार भी कांग्रेस ने राणा को सुजानपुर से टिकट थमाया. राणा को इसका अंदाजा नहीं था कि उनके गुरु धूमल उनके खिलाफ उम्मीदवार होंगे. यहां तक कि धूमल भी इस सीट से चुनाव लड़ने के लिए तैयार नहीं थे लेकिन पार्टी हाईकमान का सुझाव मानते हुए वो यहां से चुनाव लड़ने को तैयार हुए. पार्टी हाईकमान की दलील थी कि धूमल के सुजानपुर से चुनाव लड़ने से आस-पास की सीटों पर भी बीजेपी की स्थिति मजबूत होगी.
नड्डा की तरफ उठ रही है शक की सूई
यही अनसुलझा सवाल है: बीजेपी में धूमल के नजदीक वाले नेताओं का मानना है कि धूमल कई सालों से जिस परंपरागत सीट से जीत रहे थे, वहां की जगह सुजानपुर से कड़े संघर्ष में उन्हें उतारना सोची-समझी साजिश का हिस्सा था. शक की सुई नड्डा की तरफ उठाई जा रही है, जिनका सीट और उम्मीदवार चुनने में अच्छा-खासा दखल था. हालांकि, ये सब बातें अटकलें हैं. तथ्य ये है कि जीत को लेकर आश्वस्त धूमल ने हाईकमान के सुझाव को माना और इसका कभी विरोध नहीं किया. उन्होंने कभी भी सीट बदलने की मांग नहीं की.
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धूमल और राणा नामांकन करने एक ही दिन और एक ही वक्त जिला निर्वाचन अधिकारी के कार्यालय पहुंचे थे. राणा ने धूमल के पैर भी छुए और उनका आशीर्वाद मांगा. धूमल ने उन्हें आशीर्वाद भी दिया. मतगणना वाले दिन धूमल अपने घर से नहीं निकले क्योंकि हर दौर के साथ ही उनकी किस्मत पलट रही थी. आखिरकार वो 1090 वोटों से हार गए.
धूमल ने मुख्यमंत्री के संभावित चेहरे या अपनी उम्मीदवारी को लेकर कुछ भी बोलने से मना कर दिया है. माना जा रहा है कि इस पद के लिए अब दो दावेदार नड्डा और पूर्व वरिष्ठ मंत्री जयराम ठाकुर हैं. हालांकि आखिरी वक्त पर पार्टी सबको चौंका भी सकती है, जैसा कि उसने उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ को मंत्री बनाकर किया.
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