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हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव 2017: वीरभद्र सिंह से मुक्त होंगे कांग्रेस और हिमाचल?

कांग्रेस ने क्या खुद को वीरभद्र सिंह मुक्त करने के लिए विधानसभा चुनाव में उत्तराखंड वाला दांव चला है?

Updated On: Oct 25, 2017 08:44 AM IST

Anant Mittal

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हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव 2017: वीरभद्र सिंह से मुक्त होंगे कांग्रेस और हिमाचल?

हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस ने क्या खुद को वीरभद्र सिंह से मुक्त करने के लिए विधानसभा चुनाव में उत्तराखंड वाला दांव चला है? कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी तथा उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने उत्तराखंड में कांग्रेस को हरीश रावत से मुक्त करने के लिए उन्हें विधानसभा चुनाव में मनमानी छूट दी थी.

उसका नतीजा यह रहा कि कांग्रेस तो जरूर 11 सीट पर सिमट गई मगर मुख्यमंत्री हरीश रावत अपने दोनों क्षेत्रों से चुनाव हार गए. कमोबेश वैसी ही छूट कांग्रेस आलाकमान ने हिमाचल के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह को दी है.

आलाकमान की ओर से नियुक्त प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सुखविंदर सुक्खू की वीरभद्र द्वारा सरेआम बेइज्जती के बावजूद उन्हें अगले मुख्यमंत्री का चेहरा भी घोषित कर दिया है. उत्तराखंड चुनाव में दुर्गति के बाद रावत अब न तो सदन में विपक्ष के नेता हैं और न ही प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष. यह बात दीगर है कि सुर्खियों में बने रहने के लिए रावत, देहरादून में कोई न कोई कौतुक करते रहते हैं.

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वीरभद्र की उम्र 83 साल पार हो जाने और उन पर आय से अधिक संपत्ति का मुकदमा चलने के बावजूद उन पर नजरें इनायत की गई है. यह बात दीगर है कि तीन करोड़ रुपए की काली कमाई के साथ रंगे हाथों पकड़े गए सुखराम और उनके बेटे अनिल शर्मा और महिला कांग्रेस अध्यक्ष इंदु गोस्वामी के अलावा कांग्रेस में बड़े पैमाने पर तोड़फोड़ में बीजेपी नाकाम रही है. सुखराम ने 1998 के बाद दूसरी बार बीजेपी से गलबहियां की हैं.

तब सुखराम की हिमाचल विकास कांग्रेस की पांच सीटों की बदौलत ही राज्य में बीजेपी की सरकार बन पाई थी. वीरभद्र सिंह ने भ्रष्टाचार के अपने पर अब तक जारी मामले में मुकदमा दर्ज हो जाने के बावजूद 2012 के चुनाव में 78 साल की उम्र में भी धुआंधार चुनाव प्रचार के बूते कांग्रेस को 36 सीट जिताकर बहुमत दिलाया था. तब मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल के नेतृत्व में पांच साल सरकार चलाकर भी बीजेपी 68 सदस्यों वाली विधानसभा में 26 सीट पर सिमट गई थी.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरह ही वीरभद्र सिंह भी विकास के बूते लगातार दूसरी बार कांग्रेस को चुनाव जिता लाने का दावा कर रहे हैं. इसके पीछे आर्थिक और सामाजिक मोर्चे पर हिमाचल की ठोस तरक्की भी है. केरल की तरह यहां भी शिक्षा, स्वास्थ्य-जीवन दर, प्रति व्यक्ति आय, पुरुष-महिला आबादी का अनुपात, उद्योग-व्यापार, कानून-व्यवस्था आदि बहुत सुर्खरू हैं. भूटान की तरह हिमाचल को भी खुशहाली के पैमाने पर देश में अव्वल माना जा सकता है.

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वीरभद्र को चुनाव प्रचार अभियान का मुखिया बनाने के पीछे पंजाब का अनुभव भी जिम्मेदार हो सकता है. वहां भी पहले कांग्रेस आलाकमान कैप्टन अमरिंदर सिंह को चुनाव की कमान सौंपने को तैयार नहीं था, लेकिन कैप्टन द्वारा अलग दल बना लेने की धमकी और देश में कांग्रेस की दुर्गति के मद्देनजर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को उन्हें मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित करना पड़ा.

amrinder singh

इसका पंजाब के अवाम ने आम आदमी पार्टी के जलवे के बावजूद कांग्रेस को सत्ता सौप कर समर्थन भी किया. यह बात दीगर है कि आप, पंजाब में पहले ही झटके में अकाली-बीजेपी गठजोड़ को तीसरे नंबर पर पछाड़ कर मुख्य विपक्षी दल बनने में कामयाब रही.

हिमाचल की प्रवृत्ति यूं तो राज्य बनने के बाद से ही कांग्रेस की सरकार बनाने के पक्ष में रही मगर 1977 में जनता पार्टी के हाथों कांग्रेस को पहली बार हार का मुंह देखना पड़ा था. हालांकि जनता पार्टी की सरकार को तोड़कर कांग्रेस ने 1980 में फिर अपनी सरकार बना ली थी.

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उसके बाद 1982 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की 31 और बीजेपी की 29 सीटें आईं मगर वीरभद्र सिंह ने निर्दलीयों के समर्थन से सरकार बना ली. फिर 1985 में मध्यावधि चुनाव कराकर वीरभद्र ने कांग्रेस को इंदिरा सहानुभूति लहर में फिर जिता लिया और लगातार दूसरी बार मुख्यमंत्री बन गए. वे अब तक पांच बार प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे हैं.

मुख्यमंत्री का दावा है कि वे अपने विकास कार्यों और मोदी के अधूरे वायदों की बदौलत प्रदेश में 1985 की तरह लगातार दोबारा सरकार बनाएंगे. इस चुनाव में अपने साथ ही साथ बेटे विक्रमादित्य को भी कांग्रेस टिकट पर लड़ा रहे वीरभद्र की प्रदेश की राजनीति पर पकड़ भी दांव पर है. उनके बेटे के अलावा राज्य में मंत्री कौल सिंह ठाकुर की बेटी को भी कांग्रेस ने मंडी से सुखराम के पाला बदल बेटे अनिल शर्मा के विरुद्ध चुनाव में उतारा है. कांग्रेस ने दो अन्य बाप-बेटों को भी टिकट देकर उत्तराखंड चुनाव में बीजेपी द्वारा अपनाई गई वंशवाद की रीति को हिमाचल में अपनाया है.

उत्तराखंड में तो कांग्रेस आला कमान ने एक परिवार-एक टिकट सिद्धांत का कड़ाई से पालन करके मुख्यमंत्री हरीश रावत तक की बेटी या बेटे को टिकट नहीं दिया था. अलबत्ता बीजेपी ने वहां दो पूर्व मुख्यमंत्रियों के बेटे-बेटी, एक पूर्व मंत्री और उनके बेटे तथा मियां-बीवी के जोड़े को भी टिकट दिया था.

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उन सबकी जीत और कांग्रेस से नौ विधायक तोड़कर उन्हें कमल छाप पर चुनाव लड़ाने की बदौलत उत्तराखंड में बीजेपी 56 सीट जीतने में कामयाब रही. उसने त्रिवेंद्र सिंह रावत की सदारत में सरकार बनाई. हरीश रावत ने अपनी जिद में वहां कांग्रेस की नैया डुबो दी. यह बात अलग है कि कांग्रेस फिर भी अपना 30 फीसद वोट बैंक बचाने में कामयाब रही.

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इस प्रकार देखें तो कांग्रेस आलाकमान का वीरभद्र सिंह को दोबारा मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित करने का दांव 'चित भी मेरी पट भी मेरी' की तर्ज पर है. वीरभद्र सिंह यदि पांच साल के राज और भ्रष्टाचार के बोझ तले हार गए तो कांग्रेस को उनकी बुजुर्गियत से छुटकारा पाकर युवा नेतृत्व आगे लाने में आसानी होगी.

दूसरी तरफ यदि मुख्यमंत्री 1985 के चुनाव की तरह लगातार दोबारा जीतने का अपना रिकॉर्ड दोहरा देते हैं तो भी पार्टी की बल्ले-बल्ले है. उनके आशावाद की एक वजह बीजेपी द्वारा राज्य में मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित नहीं किया जाना भी है. इसे दो बार बीजेपी की ओर से राज्य के मुख्यमंत्री रहे 73 वर्षीय प्रेम कुमार धूमल को किनारे लगाने की कवायद भी माना जा रहा है.

बीजेपी के मुख्यमंत्री उम्मीदवार के बारे में पूछे जाने पर धूमल ने अप्रत्यक्ष रूप में पार्टी आलाकमान पर जिम्मेदारी डाली है. चुनाव प्रचारकों की सूची में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जगत प्रकाश नड्डा का नाम उनसे बहुत ऊपर रखे जाने पर भी धूमल समर्थक सवाल कर रहे हैं.

अब देखना यही है कि हिमाचल की जनता पिछले छह चुनाव में बारी-बारी से कांग्रेस और बीजेपी को सत्ता सौंपने का रिकॉर्ड बरकरार रख इस बार बीजेपी को सत्ता सौंपेगी या हिमाचल की अस्मिता के नाम पर वीरभद्र को दोबारा जिताएगी. गौरतलब है कि पिछले साल केंद्रीय जांच एजंसियों का ऐन मुख्यमंत्री की बेटी की शादी के दिन उनके घर छापा मारकर संपत्तियां खंगालने का लोगों ने बुरा माना था मगर तब केंद्र की बीजेपी सरकार का मुखर विरोध नहीं हुआ था.

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