साल 2019 का आगाज़ हो गया. नया साल नई उम्मीदें और नई चुनौतियां. राजनीति के लिहाज से भी ये साल किसी के लिए उम्मीदों से भरा तो किसी के लिए चुनौती भरा है. साल 2018 की सियासी घटनाएं वक्त बीतने के बावजूद इतिहास नहीं बनी हैं बल्कि वो वर्तमान के साथ साए की तरह हैं. साल 2019 के लोकसभा चुनाव पर साल 2018 में हुए विधानसभा चुनावों के नतीजों का साया है. जाहिर है ऐसे में चाहे वो पीएम मोदी हों या फिर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी, दोनों पर ही उम्मीदों का भार है तो उनके सामने चुनौतियां भी बेशुमार हैं.
साल 2019 का लोकसभा चुनाव कई मायनों में पिछले लोकसभा चुनावों से एकदम अलग है. पहली बार राजनीति के रण में कई पार्टियों के राजकुमार अब सेनापति की भूमिका में दिखेंगे जिनके ऊपर पार्टी की जीत का दारोमदार होगा. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के अध्यक्ष बनने के बाद ये पहला लोकसभा चुनाव होगा जिसमें उन्हें खुद को पूर्व अध्यक्ष और वर्तमान यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी के बेटे के ब्रांड से बाहर निकलकर नई इमेज गढ़नी होगी. तीन राज्यों में मिली जीत से राहुल का एक बड़े नेता के रूप में उभार हुआ है क्योंकि राहुल ने बीजेपी को उसी के गढ़ में हराने का काम किया.
राहुल की ही तरह इस बार समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव के सामने भी लोकसभा चुनाव को लेकर बड़ी चुनौतियां हैं. इस बार वो चुनावी मैदान में मुलायम-पुत्र की जगह एसपी अध्यक्ष के रूप में हैं. उनके सामने दूसरी बड़ी चुनौती खुद उनके चाचा शिवपाल यादव हैं जो कि प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (लोहिया) बना कर ताल ठोंक रहे हैं.
इसी तरह तमिलनाडु में एम करुणानिधि के निधन के बाद अब करुणानिधि के बेटे स्टालिन के सामने खुद को साबित करने की चुनौती है. स्टालिन ने अबतक पिता की छत्रछाया का राजनीतिक फायदा उठाया है लेकिन उन्हें अब ये साबित करना है कि वो आम जनता में कितना लोकप्रिय हैं.
बिहार में आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव जेल में हैं. उनके छोटे बेटे तेजस्वी यादव पार्टी की कमान संभाले हुए हैं. लोकसभा चुनाव में भी अब तेजस्वी यादव पर बड़ी जिम्मेदारी होगी. वैसे भी तेजस्वी यादव घर की बड़ी जिम्मेदारी संभाल रहे हैं क्योंकि बड़े भाई तेजप्रताप यादव बागी हो चुके हैं. ऐसे में बिना लालू यादव के तेजस्वी यादव को आरजेडी पर पकड़ भी बनाए रखना है और बिहार में बीजेपी-जेडीयू के बुने जाल के बीच चुनाव में सीटें भी जीतनी हैं.
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सही मायने में साल 2019 सिर्फ लोकसभा चुनाव की ही वजह से खास माना जाएगा और यही वजह है कि माता-पिता के साए में राजनीति सीखने वाले चेहरों का अब अग्निपरीक्षा देने का वक्त आ चुका है.
साल 2019 का लोकसभा चुनाव पीएम मोदी के लिए हर तरीके से बेहद खास है. अगर पीएम मोदी का मैजिक बरकरार रहता है और बीजेपी दूसरी बार केंद्र में सरकार बनाने में कामयाब होती है तो पीएम मोदी ऐसा करने वाले बीजेपी के पहले पीएम होंगे. ये जीत पार्टी की अंतर्राष्ट्रीय छवि के लिहाज से भी बहुत मायने रखेगी. यही वजह है कि इस बार भी पीएम मोदी पर उम्मीदों का भार बहुत ज्यादा है.
लेकिन इस बार पीएम मोदी के सामने चुनौतियां भी कम और आसान नहीं है. साल 2014 में जब वो पीएम पद के उम्मीदवार बने थे तब उनके सामने दस साल से सत्ता में रहने वाली कांग्रेस की यूपीए सरकार थी. यूपीए सरकार के कई मंत्रियों पर घोटालों के आरोप थे. भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी और विकास के मामले में यूपीए सरकार कटघरे में थी. उस वक्त देशभर में सत्ता विरोधी लहर थी और पीएम मोदी में जनता ने महानायक देखा. पीएम मोदी अब पांच साल के कामकाज के साथ जनता के बीच जाएंगे और उनकी सरकार के लिए सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक बड़ी बात ये है कि भ्रष्टाचार का दाग़ नहीं लगा. सबका साथ-सबका विकास अब बीजेपी के घोषणा-पत्र की टैग लाइन नहीं बल्कि मोदी सरकार का सक्सेस फॉर्मूला बन चुका है जिसमें सेकुलरिज्म भी है तो विकास भी.
जबकि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी बीजेपी के कांग्रेस-मुक्त अभियान को तीन राज्यों की सत्ता में वापसी कर तगड़ा झटका दे चुके हैं. राहुल ये जानते हैं कि जिस ईमानदारी की वजह से पीएम मोदी 'छप्पन इंच' के सीने की बात करते हैं तो उस सीने पर चोट करने के लिए भ्रष्टाचार के आरोपों के तीरों का सहारा लेना पड़ेगा. तभी राहुल अपने आरोपों से जनता के बीच मोदी सरकार को खिलाफ एक धारणा बनाने में जुटे हुए हैं लेकिन उन्हें इसे मुद्दा बना कर बड़ी कामयाबी मिलती नहीं दिख रही है. राहुल ये भूल रहे हैं कि बोफोर्स कांड और राफेल डील में बहुत फर्क है. लेकिन अगस्ता वेस्टलैंड हेलिकॉप्टर डील के मामले में बिचौलिए क्रिश्चियन मिशेल की गिरफ्तारी से कांग्रेस के पास आक्रमक रहने के अलावा दूसरा विकल्प भी नहीं है.
देश की सियासत में तीसरा मोर्चा भी खुद को विकल्प के रूप में देखता है. तीसरे मोर्चे की कवायद में कभी तेलंगाना के सीएम केसीआर ‘एक्टिव-मोड’ में दिखाई देते हैं तो कभी महागठबंधन की परिकल्पना को साकार करने में जुटे आंध्र प्रदेश के सीएम चंद्रबाबू नायडु दिखाई देते हैं. सबके अपने-अपने हित और अपने-अपने लक्ष्य हैं. साल 2019 का लोकसभा चुनाव इनकी राजनीतिक भविष्य का भी आकलन करेगा.
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इसी महागठबंधन को लेकर बहुजन समाज पार्टी बेहद साइलेंट-मोड में दिखाई दे रही है. खास बात ये है कि बीएसपी के पास लोकसभा की एक भी सीट नहीं है. इसके बावजूद मायावती में पीएम मैटेरियल देखा जा रहा है. तभी कांग्रेस के साथ महागठबंधन पर संशय के बादल घुमड़ रहे हैं क्योंकि बड़ा सवाल ये है कि ममता बनर्जी और मायावती जैसे नेता क्या राहुल के नेतृत्व में गठबंधन का हिस्सा बनेंगे?
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