'कांग्रेस मुक्त भारत' का नारा भले ही बीजेपी ने प्रचारित-प्रसारित किया हो लेकिन इस नारे पर अमल करने का काम बड़ी तल्लीनता के साथ कांग्रेस कर रही है. ब्रिटिश हुकूमत के भारत से पलायन के बाद देश की चौहद्दी में अगर किसी एक पार्टी का डंका बजता था तो वो कांग्रेस ही थी.
इमरजेंसी का समय छोड़ दें तो तकरीबन आधे दशक में कोई भी कांग्रेस के राजनीतिक वर्चस्व को छू सकने का साहस करने की स्थिति में नहीं था. 1989 के आम चुनाव में जब वीपी सिंह की सरकार बनी थी तब भी कांग्रेस पार्टी के पास 197 सीटें थीं. और तब पार्टी के नेता और दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने नैतिक तौर पर सरकार बनाने से मना कर दिया था. उत्तर भारत में आम लोक कहावत है- मरा हाथी भी सवा लाख का होता है.
तो पिछले तीन सालों में आखिर कांग्रेस को क्या हुआ है जो वो लगातार हर राज्य में अपने से रसूख और दमखम में छोटी पार्टियों का साथ ‘छोटे भाई’ बनकर पकड़ रही है. यूपी और बिहार के बाद गुजरात चुनाव तो इसकी पराकाष्ठा तक जाते हैं जहां कांग्रेस किसी पार्टी के बजाए युवा आंदोलनकारी नेताओं के साथ गठबंधन करके चुनावी वैतरणी पार करने की फिराक में है.
गुजरात चुनाव में कांग्रेस की पूरी रणनीति हार्दिक, अल्पेश और जिग्नेश के इर्द-गिर्द ही घूम रही है. इन तीनों में जो सबसे ताकतवर दिख रहे हैं, हार्दिक पटेल, वो कांग्रेस से धमकी भरे अंदाज में बात करते हैं.
कांग्रेस को समर्थन की बात पर हार्दिक हमेशा कुछ नया सा जवाब देते हैं. कभी आंशिक समर्थन की बात करते हैं तो पटेल आरक्षण पर धमकी दे देते हैं. दूसरी तरफ गुजरात चुनाव में ही राहुल गांधी जमकर केंद्र सरकार की बखिया भी उधेड़ रहे है. लगभग हर दिन उनके तंज भरे भाषण खबरों में रहते हैं. मतलब ये भी दिखाने की कोशिश हो रही है ‘हम किसी से कम नहीं’. लेकिन राहुल सहित कांग्रेस वरिष्ठ नेताओं को भी समझना चाहिए वास्तविकता यही है कि वो किसी से कम नहीं हैं.
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आज भी देश के हर कोने में बैठा पार्टी कार्यकर्ता बस अपने नेताओं में उत्साह देखना चाहता है. हर राज्य में कांग्रेस के पास पर्याप्त कार्यकर्ता और उसके पुरातन वोटर बैठे हुए हैं. कांग्रेस के पास देश के सर्वाधिक ख्यातिनाम नेताओं की विरासत है. तो फिर उसे सत्ता वापसी के नाम पर आखिरी अपने से छोटी पार्टियों के साथ ऐसी मित्रता की क्या जरूरत है जहां वो ढंग से बता भी न सके कि जीत उसके भरोसे हुई है.
थोड़ी काल्पनिक तस्वीर है लेकिन ये तस्वीर कांग्रेस के नेताओं को देखनी जरूर चाहिए. फर्ज कीजिए कि यूपी के चुनावों में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस गठबंधन की जीत हुई होती तो क्या होता? ठीक वही होता जो अब टूट चुके महागठबंधन की बिहार की उद्धत्त जीत के समय हुआ था. बिहार की जीत नीतीश कुमार और लालू यादव की जीत थी न कांग्रेस की. जब गठबंधन टूटने की बात हुई तब भी राष्ट्रव्यापी पार्टी होने के बावजूद कांग्रेस की स्थिति सिवाय मूकदर्शक के क्या थी?
ठीक ऐसी कमजोर स्थिति में कांग्रेस तब भी होती जब यूपी में जीत हुई होती! क्या कांग्रेस के पास यूपी में अखिलेश यादव के कद का कोई नेता है जिसकी राज्य के एक छोर से दूसरे छोर तक लोकप्रियता हो? जिसके नाम पर कार्यकर्ता रात-दिन एक कर देने को तैयार हों? ऐसा नहीं है. और न ही कांग्रेस ऐसा करने के मूड में दिख रही है.
क्या आगे आने वाले सालों में कोई उम्मीद कर सकता है देश के हिंदी हृदय प्रदेश कहे जाने वाले यूपी-बिहार में कांग्रेस अपनी सरकार बना सकने की स्थिति में होगी? ये दुर्गति सिर्फ गठबंधन नाम की राजनीतिक बैसाखी और कमजोर रणनीति से उपजी है.
अब आते हैं गुजरात चुनाव पर. 2012 के विधानसभा चुनाव में शंकर सिंह वाघेला के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी 58 सीटें लेकर आई थी. तब सामने तत्कालीन सीएम मोदी थे. हाल ही में शंकर सिंह वाघेला पार्टी से अलग हो गए. केंद्रीय नेतृत्व की तरफ से उन्हें मनाने को लेकर क्या प्रयास किए गए? एक कद्दावर नेता को पार्टी ने यूं ही जाने दिया. वाघेला ने इशारों में राहुल गांधी पर आरोप लगाए थे लेकिन राहुल गांधी ने कभी कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया.
इससे बड़ी विरोधाभासी बात किसी पार्टी के लिए क्या हो सकती है जहां एक तरफ वो तीन युवा उभरते नेताओं के सारे नाज-नखरे सहने को तैयार है और दूसरी तरफ पार्टी से एक बड़े जनाधार वाले नेता को टूटकर अलग हो जाने दे वो भी चुनावों के ऐन पहले. ये कैसी चुनावी रणनीति है?
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क्या कांग्रेस इस चुनावी रणनीति में माधव सिंह सोलंकी कहीं दिखाई देते हैं जिन्होंने 1985 के गुजरात विधानसभा चुनाव में 182 में 149 सीटें लाकर वो कीर्तिमान स्थापित किया था जो आज भी अजेय है. लोकप्रियता का शिखर हासिल करने और गुजराती अस्मिता की पहचान के तौर पर खुद को स्थापित कर देने के बावजूद नरेंद्र मोदी कभी उस आकड़े को न छू सके. क्या कहीं भी कांग्रेस की रणनीति में ‘KHAM’ (क्षत्रिय, हरिजन, आदवासी, मुस्लिम) की वो रणनीति दिखाई देती है जिस पर अमल करके माधव सोलंकी अजेय बने. चार बार गुजरात के सीएम रहे.
क्या आज की कांग्रेस इतनी टूट चुकी है कि राजनीतिक तौर नौसिखिए तीन लड़कों के बल पर उसकी पूरी योजना टिकी है? सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है कि अगर गुजरात में कांग्रेस जीतती है या जीत के करीब पहुंचती है तो ‘तिकड़ी’ की तरफ से उन्हें कितना श्रेय मिलेगा?
कांग्रेस के हाथ के साथ दिखने के बावजूद हार्दिक, अल्पेश और जिग्नेश पार्टी की केंद्रीय सत्ता का कितना वजन सहेंगे? पार्टी की इस पूरी तैयारी के बीच राज्य के दो कद्दावर नेताओं शक्ति सिंह गोहिल और भरत सिंह सोलंकी के नाम आखिर कहां हैं? पार्टी का दिल्ली में बैठा पूरा केंद्रीय नेतृत्व सिर्फ नए साथियों को तवज्जो देने में की जुगत में क्यों लगा है?
ठीक इसी समय कांग्रेस की सबसे लंबी प्रस्तावित योजना के भी फलीभूत होने की खबरें खबरिया आकाश में तैर रही हैं. राहुल गांधी के बीते महीनेभर में दिए कुछ भाषणों से खुश होकर उन्हें अध्यक्ष बनाए जाने का फैसला कितना सही साबित होगा? सिर पर गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनाव नतीजे हैं? हर कुछ समय अंतराल पर सक्रिय राजनीति से एकदम से ओझल हो जाने वाले राहुल गांधी क्या इस स्थिति में हैं कि अगर इन राज्यों में हार होती है तो वो एक अध्यक्ष के तौर पर इसे पचा पाएंगे?
दरअसल ये समय कांग्रेस के लिए अपनी रणनीतिक भूलों पर ढंग से विचार करने का है. पार्टी शीर्ष नेतृत्व को ये समझना चाहिए कि गठबंधन सरकार बनाने के लिए होते हैं. ऐसे गठबंधनों का फायदा ही क्या जो पार्टी को स्थायी तौर पर पंगु बना दें.
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उसे अपने संगठन पर ज्यादा भरोसा करना होगा क्योंकि इन्हीं कार्यकर्ताओं और इनके पूर्ववर्तियों ने आपको सालों सत्ता की गद्दी से खिसकने नहीं दिया. वैसे भी जिस तरीके का वोटिंग पैटर्न पिछले कुछ सालों में दिख रहा है उसने गठबंधन की राजनीति की हवा निकाल दी है. इसलिए अगर कांग्रेस दूसरों के कंधे की बजाए अगर खुद पर भरोसा करे तो शायद उसके दिन जल्दी वापस लौट सकते हैं.
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