गुजरात के चुनावों से निकलते सबक को राहुल गांधी तेजी से सीख लें तो बहुत संभव है अगले चरण में 2018 में होने वाले चुनावों में कांग्रेस बीजेपी से आगे निकल जाए.
जिन राज्यों में अगले साल चुनाव होंगे उनमें राजस्थान भी है. अगर रुझानों पर गौर करें तो लगता है राजस्थान में कांग्रेस और बीजेपी के बीच कांटे की टक्कर रहेगी. और कांग्रेस ने अगर अपने पत्ते ठीक से खेले तो फिर राजस्थान का चुनाव कांग्रेस जीत भी सकती है.
दो रोज पहले शहर, कस्बे और गांवों के लिए हुए स्थानीय निकाय के उपचुनावों में कांग्रेस को अधिकतर सीटों पर जीत मिली. चूंकि ये उपचुनाव सूबे के अलग-अलग इलाकों में हुए थे इसलिए उनको लोगों की मनोदशा का बेहतर संकेतक माना जा सकता है. इस चरण के उपचुनाव से छह महीने पहले भी स्थानीय निकाय की कुछ सीटों के लिए उप-चुनाव हुए थे और इनमें भी ज्यादातर सीटें कांग्रेस के हाथ लगीं.
इस बार हो सकती है कांग्रेस की बारी
हिमाचल प्रदेश की तरह राजस्थान भी 1985 से बदलाव के जनादेश सुनाता आ रहा है. साल 1985 के बाद से सूबे में जब भी चुनाव हुए लोगों ने सत्ताधारी दल को भारी अंतर से हराया है. (इसका एक अपवाद 2008 का साल रहा जब कांग्रेस को बहुमत से कुछ कम सीटें मिलीं और बीएसपी के विधायकों को साथ जोड़कर उसने सरकार बनाई). इसलिए मतदाताओं के बरताव से कांग्रेस यह मानकर चल सकती है कि इस दफे सरकार बनाने की उसकी बारी है.
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लेकिन कांग्रेस के साथ एक परेशानी है, उसे अभी तक यह नहीं पता कि 2018 में चुनाव-अभियान की अगुवाई कौन करेगा. जमीनी स्तर पर दो प्रतद्वन्द्वी सचिन पायलट और अशोक गहलोत इस भूमिका के लिए खड़े नजर आ रहे हैं. सो, असमंजस की स्थिति बनी हुई है, भितरघात और अंदरुनी उठा-पटक का खतरा है. ये दोनों नेता जताते तो यही हैं कि उनके बीच में बड़ी नजदीकी है लेकिन दोनों के बीच में भीतर ही भीतर दुराव है. दोनों इस भय से कि सामने वाला कहीं बाजी मार ना ले जाए, एक दूसरे की काट करने में लगे रहते हैं.
क्षेत्रीय नेता चुनना ही होगा
राहुल गांधी को पंजाब की जीत और गुजरात की हार से यह सीख तो मिल ही चुकी है कि विधानसभा के चुनावों में काबिल और लोकप्रिय क्षेत्रीय नेता का कोई विकल्प नहीं है. चूंकि कांग्रेस के अध्यक्ष नरेन्द्र मोदी के साथ अपनी लड़ाई हार गये हैं इसलिए पार्टी के फायदे के लिए बेहतर यही होगा कि वह विधानसभा के चुनाव दो उम्मीदवारों के मुख्यमंत्री पद के मुकाबले के रुप में लड़े. मतदाता के सामने ये विकल्प नहीं रहता तो कांग्रेस नाकाम हो जाती है.
जाहिर है, कांग्रेस अध्यक्ष को जल्दी ही फैसला करना होगा कि राजस्थान में वसुंधरा राजे के खिलाफ पार्टी की कमान कौन संभालेगा. दुर्भाग्य कहिए कि कई वजहों से राहुल के लिए यह फैसला कर पाना कोई आसान काम नहीं.
पायलट राहुल की मंडली के आदमी हैं. साल 2013 में गहलोत की भारी हार हुई, कांग्रेस ने 200 सीटों वाली राजस्थान विधानसभा की 90 फीसद सीटें गंवा दी. इसके बाद ही सचिन पायलट को राजस्थान भेजा गया. लेकिन पायलट के साथ एक मुश्किल है. उनकी छवि जननेता की नहीं है और कांग्रेस के भीतर उनके प्रति स्वीकार भाव भी कुछ खास नहीं है. साथ ही, सूबे में जातियों का गणित सचिन पायलट के पक्ष में नहीं है.
पायलट और गहलोत का जातीय समीकरण ठीक नहीं बैठ रहा
पायलट गुर्जर हैं. राजस्थान के मतदाताओं में गुर्जरों की तादाद 5 से 7 प्रतिशत है. गुर्जर मतदाताओं की ताकत दो अन्य कारणों से भी सीमित है. एक तो, गुर्जर मतदाता सूबे के उत्तर-पूर्वी जिलों में बिखरे हुए हैं. दूसरे, इसी इलाके में जनजातियों में शामिल मीणाओं की दमदार मौजूदगी है. मीणाओं को गुर्जरों का सियासी प्रतिद्वन्द्वी माना जाता है. राजस्थान जैसे राज्य में जहां राजनीति में जातियां अहम भूमिका निभाती हैं, किसी गुर्जर को चुनाव-अभियान का चेहरा बनाकर पेश करना कांग्रेस के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है.
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लेकिन विडंबना देखिए कि गहलोत को कमान थमाने का फैसला करना भी आसान नहीं. गहलोत माली समुदाय से हैं और इस समुदाय की सूबे में कोई खास तादाद नहीं. सूबे में जाट मतदाता 12-14 प्रतिशत हैं और एक जमाने से माना जाता रहा है कि जाट मतदाता गहलोत को वोट नहीं देते. गहलोत को नेता के रुप में पेश करने से मतदाताओं की एक बड़ी तादाद का कांग्रेस के पाले से खिसक जाने का खतरा है.
कांग्रेस की दिक्कत है कि उसके पास विकल्प बस दो ही हैं- सचिन पायलट या फिर अशोक गहलोत. बाकी नेताओं का या तो कोई जनाधार नहीं है या फिर पार्टी का हाईकमान उन्हें खास नहीं मानता. सीपी जोशी को एक वक्त राहुल गांधी का करीबी माना जाता था सो नेता पद की दौड़ में एक समय तक वे आगे थे लेकिन अब सीपी जोशी की पकड़ और प्रभाव में कमी आयी है. पायलट के खिलाफ चल रहे अंदरुनी संघर्ष में सीपी जोशी को अशोक गहलोत के सहयोगी के रुप में देखा जाता है.
जल्दी सुलझाना होगा नेतृत्व का सवाल
अगर कांग्रेस को राजस्थान में जीतना है तो राहुल को नेतृत्व के सवाल को जल्दी ही सुलझाना होगा. यह इस कारण से भी अहम है क्योंकि राज्य में मतदाताओं के ध्रुवीकरण की कोशिशों के कारण माहौल धीरे-धीरे विषैला होता जा रहा है. मेवात (अलवर) में गौगुंडे और मेवाड़ (उदयपुर) में हिंदुत्व के लड़ाके बेकाबू हो रहे हैं.
ऐसे माहौल में कांग्रेस के लिए जोखिम कुछ इस तरह का है: एक बार राजनीतिक परिवेश का ध्रुवीकरण हो गया तो वसुंधरा राजे के कामकाज की ओर से लोगों का ध्यान हट जाएगा. यह सुनिश्चित करने के लिए कि होने जा रहे चुनाव एक तरह से वसुंधरा राजे की सरकार के कामकाज को लेकर जनमत-संग्रह की तरह है, कांग्रेस को सांप्रदायिकता के मुहावरे की काट के लिए किसी को खड़ा करना होगा.
राहुल को तेजी से और फैसला भरे अंदाज में कदम उठाने की जरुरत है. लोकसभा की दो सीटों अलवर और अजमेर के लिए उपचुनाव जल्दी ही होने हैं. विधानसभा की मांडल सीट के लिए भी उपचुनाव होना है. अगर बीजेपी इन चुनावों में जीतती है तो छवि यह बनेगी कि लोगों को सूबे में बीजेपी मंजूर है और उसे हराया नहीं जा सकता. कांग्रेस नेतृत्व फैसले भरे अंदाज में एकजुट होकर ताकत लगाए तो ही वह उपचुनाव जीतकर 2018 की जंग के लिए अपनी पसंद की लकीर खींच सकती है.
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