पूर्व भारतीय क्रिकेटर नयन मोंगिया हर छह महीने पर वडोदरा स्थित माधवपुरा मर्केंटाइल बैंक के मुख्यालय जाते हैं. बैंक तो 1999-2000 में ही बंद हो चुका है. मगर, मोंगिया वहां अपने उस निवेश के बारे में पता लगाने जाते हैं, जो उन्होंने बैंक के फिक्स्ड डिपॉजिट में लगाए थे. आखिर वो उनकी बड़ी मेहनत की कमाई जो है.
नयन मोंगिया बताते हैं कि जब वो क्रिकेट खेलने में व्यस्त थे, तो उनके पैसे का हिसाब-किताब उनके पिता देखा करते थे. उनके पिता को माधवपुरा मर्केंटाइल बैंक पर बहुत भरोसा था. इस बैंक का मुख्यालय अहमदाबाद में था.
मोंगिया बताते हैं कि, 'मैं उस वक्त विदेश के दौरे पर था, जब मुझे माधवपुरा बैंक के दिवालिया होने की खबर मिली. मुझे इसका गहरा सदमा लगा. मेरी कमाई का 80 फीसद हिस्सा उसी बैंक में था. बैंक के साथ ही मेरे सारे पैसे डूब गए'. मोंगिया बताते हैं कि पिछले पंद्रह सालों की लगातार कोशिश के बावजूद अब तक वो अपनी आधी रकम ही निकाल पाए हैं. वो कहते हैं कि अगर मेरी रकम बिना ब्याज के भी मिल जाए तो बहुत खुशी होगी.
मोंगिया उन लाखों निवेशकों में से हैं जिनकी गाढ़ी कमाई केतन पारेख की वजह से माधवपुरा मर्केंटाइल बैंक के साथ डूब गई थी. हुआ ये था कि केतन पारेख ने इस बैंक से लोन लिया हुआ था. इसके बदले में उन्होंने कई फर्जी शेयर और स्टॉक की गारंटी बैंक को दी थी. जब 1990 के दशक में शेयर बाजार में पारेख का जुआ नहीं चला, तो पांच हजार करोड़ के टर्नओवर वाला माधवपुरा मर्केंटाइल बैंक भी डूब गया.
माधवपुरा बैंक की कहानी, गुजरात की राजनीति और यहां के समाज का आईना है. लोगों ने उस बैंक में इसलिए निवेश किया था, क्योंकि माधवपुरा बैंक, दूसरे बैंकों के मुकाबले ज्यादा ब्याज देता था. वहां पर कई राष्ट्रीय बैंकों ने भी निवेश किया हुआ था, क्योंकि माधवपुरा बैंक की ब्याज दर काफी ज्यादा थी.
उदारीकरण का साइड-एफेक्ट
ये देश में उदारीकरण की लहर का शुरुआती दौर था. हर्षद मेहता और केतन पारेख जैसे लोग, जल्दी से पैसे कमाने की मिसाल बन गए थे. लोग शेयर बाजार में निवेश कर के रातों-रात अमीर बनने की जुगत तलाशते रहते थे.
माधवपुरा बैंक में बढ़ता निवेश, देश के मध्यम वर्ग की उम्मीदों का इन्वेस्टमेंट था. वो लोगों के मन में बढ़ रहे लालच का भी प्रतीक था. इस लालच की बुनियाद किसी बिजनेस मॉडल या औद्योगिक उत्पादन पर आधारित नहीं थी. ये तो बहस ज्यादा पैसे कमाने की जिद पर आधारित थी.
आज या किसी भी दिन अगर आप वडोदरा जाएं तो माधवपुरा बैंक के बाहर लोगों की लंबी लाइन देख सकते हैं. ये लोग बस अपने पैसे के बारे में पता लगाने के लिए आते हैं. लेकिन किसी को भी सही जवाब नहीं मिलता. आज भी बैंक की संपत्ति बेचने की प्रक्रिया चल रही है. इस तबाही के लिए जिम्मेदार केतन पारेख आज जमानत पर जेल से बाहर है. कुछ दिनों तक बीजेपी नेता अरुण जेटली भी पारेख के वकील रहे थे. अब वित्त मंत्री के तौर पर बैंक के हालात की जानकारी जेटली से ज्यादा बेहतर कोई नहीं जानता. जेटली लोगों के साथ हुए छल को भी समझते हैं. फिर भी ये मसला अनसुलझा है.
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बैंक के दिवालिया होने को राजनीति के चश्मे से न देखा जाए, तो ये ठीक नहीं होगा. सच तो ये है कि जब नब्बे के दशक में उदारीकरण की लहर आई, तो इसने लोगों में लालच का राक्षस पैदा कर दिया. लोगों में रातों-रात अमीर बनने की उम्मीद जगाने की जिम्मेदारी सभी सियासी दलों की है. समाज का एक बड़ा तबका लालच के चलते सहकारी बैंकों में पैसे लगाने लगा, क्योंकि वहां पर ब्याज ज्यादा मिलता था. सहकारी बैंक कमाई के लिए ऐसे लोगों पर निर्भर थे, जो जुए के जरिए जल्दी से जल्दी आमदनी बढ़ा सकते थे.
गुजरात में बरसों से कारोबार का एक ही मॉडल काम कर रहा है. ये मॉडल है रातों-रात मुनाफा कमाकर अमीर बनने का. इस कारोबारी मॉडल की जड़ में ब्लैकमनी की अर्थव्यवस्था भी है. मिसाल के लिए हीरे के कारोबार को ही लीजिए. यहां ज्यादातर लेन-देन नकद में होता है. इसी तरह सूरत के कपड़ा कारोबारी भी नकदी में ही कारोबार करते हैं, ताकि उनका टैक्स बच सके. सूरत में कपड़ों के 115 बाजार हैं, जो ऐसे ही काम करते हैं. यहां पर नकदी में कमोबेश उतना ही कारोबार होता है, जितना कागज पर होने वाला लेन-देन.
गुजरात मॉडल और आर्थिक सुधार
पुरानी आदतें बमुश्किल पीछा छोड़ती हैं. लेकिन नोटबंदी और जीएसटी लागू करने के प्रधानमंत्री मोदी के कदम ने समाज में क्रांतिकारी बदलाव लाने का काम किया है. इसने उस तालमेल को बिगाड़ दिया है, जो ब्लैक मार्केट और फॉर्मल इकॉनमी के बीच बना हुआ था. सूरत के बहुत से कपड़ा कारोबारी कहते हैं कि आप बाजार देखें तो समझ में आएगा कि उत्पादन आधा ही रह गया है.
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मगर आप ये जानकर हैरान हो जाएं जब यही कारोबारी मोदी की इस बात के लिए तारीफ करते हैं कि उन्होंने काले धन पर लगाम लगाने के लिए शानदार काम किया है. ये कारोबारी कहते हैं कि वो जीएसटी के खिलाफ नहीं हैं. ये हमें अर्थव्यवस्था से जुड़ने में मदद करेगा. लेकिन हमारी शिकायत ये है कि ये पेचीदा है. इसे आसान बनाया जाए.
आप गुजरात का दौरा करें तो एक बात साफ तौर से समझ में आती है. यहां लोग लालच को भगवान के ऊपर तरजीह देते हैं. समाज बहुत धार्मिक है. हालांकि लोग नोटबंदी और जीएसटी के प्रति नाराजगी जताते हैं. लेकिन बहुत से लोग इन कदमों की तारीफ भी करते हैं. उन्हें लगता है कि ये साहसिक फैसले हैं, जो काले धन पर कड़ी चोट करते हैं.
मोदी को शायद ये पता है कि आखिर में जनता का एक बड़ा तबका इन मुद्दों पर उनके साथ ही खड़ा होगा. नोटबंदी और जीएसटी ऐसे सदमे हैं जो समाज को बेहतरी के लिए दिए जाने जरूरी थे.
पारंपरिक राजनीति में दोनों ही कदम आत्मघाती और लोगों को नाराज करने वाले मालूम होते हैं. लेकिन जो लोग बरसों तक मोदी के नेतृत्व में ब्लैक मार्केट का फायदा उठाते रहे, वो भी इस बात के लिए उनकी तारीफ करते हैं कि मोदी आज अर्थव्यवस्था को ईमानदारी की पटरी पर लाने की कोशिश कर रहे हैं. लोगों को लगता है कि मोदी के ये कदम राजनीति से ऊंची चीज हैं. हां जो लोग इसे सिर्फ राजनीति के चश्मे से देख रहे हैं, उन्हें ये बात अजीब लगती है.
लोगों की नाराजगी के बावजूद अगर नोटबंदी और जीएसटी की वजह से मोदी का कद बढ़ा है, तो इसकी वजह साफ है. आज वो समाज सुधारक के तौर पर देखे जाते हैं. वो परंपरावादी नेता नहीं हैं. इसी वजह से मोदी के समर्थकों का दायरा बढ़ गया है. यही वजह है कि 18 दिसंबर को जब चुनाव के नतीजे आएंगे, तो मोदी के लिए हालात और बेहतर होंगे. हां, धर्म, जाति और खांटी राजनीति का बोनस भी इस में जोड़ लीजिएगा.
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