गुजरात में पहले चरण के मतदान में अब एक हफ्ते से भी कम वक्त बचा है. ऐसे में सियासी घमासान और तेज हो गया है. राज्य में मुख्य बड़ी पार्टियां, बीजेपी और कांग्रेस मतदाताओं को लुभाने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपना रही हैं.
कांग्रेस जहां पाटीदार समुदाय को आरक्षण, दलितों की सुरक्षा और किसानों के हितों की रक्षा का संकल्प ले रही है, वहीं गुजरात में 22 साल से सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने विकास को मुख्य मुद्दा बनाया है. पिछले कुछ सालों से 'विकास' शब्द पर जैसे बीजेपी का 'कॉपीराइट' हो चला है.
यानी देश में ऐसी हवा बह चली है कि, लोगों को लगता है कि भारत में विकास सिर्फ नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी ही कर सकती है. लिहाजा सवाल उठता है कि, आखिर बीजेपी ने विकास के ऐसे कौन से झंडे गाड़े हैं, जो विपक्षी पार्टियों की सरकारें नहीं कर पाईं हैं?
क्या वजह है कि, बीजेपी जो काम करती है, लोग उसे विकास मानते हैं, और विपक्षी पार्टियों ने जो काम किया, उसे भ्रष्टाचार और वंशवाद के दायरे में रखा जाता है?
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यह धारणा थोड़ी अजीब जरूर लगती है, लेकिन फिलहाल भारतीय राजनीति में यह बहस का सबसे बड़ा मुद्दा बन चुकी है. विकास का नारा बुलंद रखकर बीजेपी ने अपनी छवि एक ऐसी पार्टी की बना ली है, जो भ्रष्टाचार और वंशवाद से परे है. लेकिन विपक्षी पार्टियां आज भी भ्रष्टाचार और वंशवाद के आरोपों से निजात नहीं पा सकी हैं.
हालांकि, सत्ताधारी बीजेपी नेताओं से जब यह पूछा जाता है कि, उनकी पार्टी ने क्या विकास किया है तो, कोई भी नेता सटीक जवाब नहीं दे पाता है. आर्थिक और सामाजिक विकास के डाटा की चर्चा छेड़ने पर बीजेपी नेता विचलित होने लगते हैं. लिहाजा इन सवालों से बचने के लिए बीजेपी की तरफ से गैर जरूरी मुद्दे उछाल दिए जाते हैं, जैसे-राहुल गांधी किस धर्म का पालन करते हैं, वगैरह-वगैरह.
यही नहीं, असली मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए प्रधानमंत्री मोदी तक झूठ बोलने से परहेज नहीं करते हैं. वह सार्वजनिक रूप से बयान देते हैं कि आतंकी सरगना हाफिज सईद को जमानत मिलने पर कांग्रेस ने जश्न मनाया था. आखिर इन सब बातों का विकास से क्या संबंध है? यकीनन, कुछ भी नहीं.
गुजरात विधानसभा चुनाव में विकास के मुद्दे पर बीजेपी का रुख जहां स्पष्ट है, वहीं कांग्रेस इस मुद्दे पर अपना पक्ष साफ नहीं कर पाई है. या यूं कहें कि कांग्रेस गुजराती जनता के सामने विकास का ऐसा कोई खाका पेश नहीं कर पाई है, जैसा कि बीजेपी ने डंका पीट रखा है.
कांग्रेस पार्टी के भावी अध्यक्ष राहुल गांधी, गुजरात में एक दिन राफेल लड़ाकू विमान सौदे में भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाते हैं, वहीं दूसरे दिन जीएसटी और नोटबंदी का जिक्र छेड़ देते हैं.
हालत यह है कि, राफेल डील के मुद्दे पर तो राहुल को मीडिया की तवज्जो तक नहीं मिली. बदलते बयानों और मुद्दों पर कमजोर पकड़ के चलते राहुल बीजपी के खिलाफ ठोस और स्पष्ट संदेश ही नहीं दे पा रहे हैं. फोकस की कमी की वजह से राहुल के संदेश बिखरे हुए से नजर आते हैं.
अगर बात पार्टी संगठन की जाए तो इस मामले में भी बीजेपी का पलड़ा भारी है. लोकतांत्रिक दुनिया में बीजेपी फिलहाल सबसे मजबूत और शक्तिशाली पार्टी है. जमीनी स्तर पर बीजेपी की बहुत मजबूत पैठ है. शहरों, कस्बों और दूर-दराज के गांवों में बीजेपी की जड़ें जमाने में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने बड़ी भूमिका निभाई है.
आरएसएस दुनिया का सबसे बड़ा गैर-सरकारी संगठन है, जिसके लाखों सदस्य हैं. आरएसएस कार्यकर्ता न केवल प्रशिक्षित होते हैं, बल्कि अपने उद्देश्य के प्रति पूरी तरह से समर्पित भी होते हैं. हाल के वर्षों में नरेंद्र मोदी के करिश्माई नेतृत्व के चलते आरएसएस कार्यकर्ताओं में नया जोश भर गया है.
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जिसकी वजह से वह और ज्यादा प्रेरित होकर काम कर रहे हैं. चुनावी मैदान में जहां भी कांटे की लडाई होती है, वहां बीजेपी को आरएसएस कार्यकर्ताओं से सबसे ज्यादा मदद मिलती है. गुजरात में भी कांग्रेस की कड़ी चुनौती से निबटने के लिए बीजेपी को आरएसएस कार्यकर्ताओं पर पूरा का भरोसा है.
वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस इस मामले में बीजेपी से पिछड़ जाती है. कांग्रेस के पास आरएसएस जैसा कोई संगठन नहीं है, जो नाजुक वक्त में उसकी मदद कर सके. कांग्रेस को पहले अपने 'सेवा दल' और 'यूथ कांग्रेस' के कार्यकर्ताओं से बहुत मदद मिलती थी. लेकिन कांग्रेस के यह पुराने कार्यकर्ता अब कहीं नजर नहीं आते हैं.
बीते कुछ सालों में कांग्रेस का संगठन टूटकर विघटित हो चुका है. ऐसे में कांग्रेस के उम्मीदवारों पर यह जिम्मेदारी होती है कि वो अपने विश्वासपात्र लोगों के सहारे मतदाताओं को लुभाएं. लेकिन इस कवायद में उम्मीदवार को काफी पैसा और श्रम खर्च करना पडता है. लिहाजा ज्यादातर कांग्रेस उम्मीदवार पैसा खर्च करने से डरते हैं. उन्हें लगता है कि पार्टी लगातार हार रही है, ऐसे में प्रचार के लिए पैसा खर्च करना समझदारी नहीं है.
कांग्रेस और बीजेपी के संगठन की तुलना और दो अहम मुद्दों की पड़ताल के बाद गुजरात चुनाव की रेस में बीजेपी आगे नजर आती है. इस बात को यूं भी कहा जा सकता है कि, बीजेपी गुजरात में इसलिए मजबूत है क्योंकि वहां कांग्रेस कमजोर है.
गुजरात चुनाव में कांग्रेस और बीजेपी के बीच तीसरा अहम अंतर चुनावी कैंपेन की रणनीति है. बीजेपी ने गुजरात में प्रधानमंत्री मोदी के रूप में अपना ट्रंप कार्ड खेला है. गुजरात में प्रचार के लिए बीजेपी ने अपनी सारी ताकत झोंक दी है. राज्य में अकेले प्रधानमंत्री मोदी की ही दर्जनों रैलियां आयोजित की गई हैं.
खास बात यह है कि, कई सालों से मोदी हर जगह हिंदी में भाषण देते नजर आते थे, लेकिन गुजरात में वह हिंदी बोलने से परहेज कर रहे हैं. गुजरात में जहां-जहां मोदी की जनसभाएं हुई हैं, वहां उन्होंने गुजराती में ही भाषण दिया है.
गुजराती भाषा के प्रति प्रधानमंत्री मोदी के अंदर अचानक उमड़ा यह प्रेम बेसबब नहीं है. यह साफ इशारा करता है कि गुजरात में बीजेपी मुश्किल में है. यानी कांग्रेस से उसे कड़ी टक्कर मिल रही है. लिहाजा मोदी राज्य की जनता को गुजराती में संबोधित करके अपना होने का अहसास करा रहे हैं.
यह कहीं न कहीं गुजराती अस्मिता का कार्ड है, जो मौके की नजाकत को भांपते हुए मोदी ने खेला है. दूसरी तरफ राहुल गांधी चाह कर भी ऐसा नहीं कर सकते हैं. क्योंकि राहुल को न तो गुजराती आती है, और न ही गुजरात उनका गृह प्रदेश है. ऐसे में बीजेपी एक बार फिर कांग्रेस से आगे निकलती दिख रही है.
मोदी फिलहाल गुजरात में जो भी भाषण दे रहे हैं, उनमें वह आमतौर किसी पुराने मुद्दे को नया जामा पहना कर पेश कर रहे हैं. मोदी अच्छी तरह जानते हैं कि विवादास्पद मुद्दों का जिक्र करने पर वह सुर्खियों में छाए रहेंगे. क्योंकि ऐसा करने से मीडिया से उन्हें भरपूर तवज्जो मिलेगी. उदाहरण के तौर पर: मैंने चाय बेची है, लेकिन देश को नहीं बेच सकता.
ऐसे जुमलों के सहारे मोदी गुजरात की जनता की हमदर्दी भी जीत रहे हैं और इशारों-इशारों में कांग्रेस पर हमला भी बोल रहे हैं. दूसरी तरफ, कांग्रेस का एजेंडा ही साफ नजर नहीं आ रहा है. बीजेपी और मोदी पर सीधे हमले के बजाए कांग्रेस गैर जरूरी मुद्दों पर अपना बचाव करती दिख रही है.
जैसे राहुल गांधी हिंदू हैं या कैथोलिक, अहमद पटेल का एक अस्पताल का ट्रस्टी बनना सही था या गलत. दरअसल बीजेपी के रणनीतिकार भी यही चाहते हैं कि कांग्रेस असल मुद्दों से भटकी रहे ताकि चुनाव आसान हो जाए.
हालांकि, कांग्रेस ने बीजेपी से मुकाबले के लिए एक काम अच्छा किया है. पिछले तीन महीनों में कांग्रेस गुजरात के तीन ऐसे बड़े समुदायों को अपने साथ करने में कामयाब हुई है, जो सत्ताधारी बीजेपी से असंतुष्ट हैं.
यह समुदाय हैं पाटीदार, दलित और ओबीसी. इन तीनों समुदायों का नेतृत्व क्रमशः हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवाणी और अल्पेश ठाकोर कर रहे हैं. खास बात यह है कि इन तीनों समुदायों की मांगें एक-दूसरे से बिल्कुल अलग हैं. तीनों ही समुदाय बीजेपी से तो निराश थे ही, साथ ही उन्हें कांग्रेस से भी ज्यादा उम्मीदें नहीं थीं. लेकिन कांग्रेस ने तीनों समुदायों को होशियारी के साथ गोलबंद करके अपने साथ मिला लिया.
बीजेपी की घेराबंदी के लिए बड़ी जनसंख्या वाले तीन समुदायों को अपने पक्ष में करना वाकई कांग्रेस की बड़ी कामयाबी मानी जाएगी. कांग्रेस की इस कामयाबी का सेहरा यकीनन अहमद पटेल के सिर बांधा जाना चाहिए.
कांग्रेस की इस घेराबंदी से बीजेपी चिंतित है. लिहाजा बीजेपी की तरफ से कांग्रेस-हार्दिक,जिग्नेश-अल्पेश के गठजोड़ को तोड़ने के हर संभव प्रयास किए जा रहे हैं. गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रुपाणी के बयानों से भी यह बात साफ झलकती है कि उन्हें यह गठजोड़ एक आंख भी भा रहा है.
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लेकिन सवाल यह उठता है कि, क्या कांग्रेस का यह गठजोड़ बीजेपी को हराने के लिए पर्याप्त है? यह सवाल इसलिए अहम है क्योंकि, चुनाव में जीत औऱ हार वोटों के संख्या बल से तय होती है. गुजरात में मतदान प्रतिशत दूसरे राज्यों के मुकाबले हमेशा ज्यादा रहता है.
लिहाजा बीजेपी को यह पक्का करना होगा कि उसके सभी वोटर घरों से निकलें और मतदान में हिस्सा लें. लगभग सभी ओपिनियन पोल में बीजेपी की जीत की भविष्यवाणियां की जा रही हैं, लेकिन अगर बीजेपी ओपिनियन पोल के नतीजों के भरोसे बैठी रही तो गुजरात का रण हार भी सकती है. दूसरी तरफ कांग्रेस को इस बार अपने वोटरों पर पूरा भरोसा है, क्योंकि उसके वोटर सत्तारूढ़ बीजेपी से खफा हैं.
अगर गुजरात के मुख्य मुद्दों जैसे- बेरोजगारी, नई नौकरियां और आर्थिक विकास की बात करें तो, सत्ताधारी बीजेपी के पास इनका कोई जवाब नहीं है. हालांकि सरकार की तरफ से उनके उपाय निकालने का दिखावा जरूर किया जा रहा है.
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