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गुजरात चुनाव: एंटरटेनमेंट से भरपूर है यह सुपरहिट इलेक्शन

अगले दो महीने तक गुजरात चुनाव एक सोप ओपरा की तरह चलेगा. गंदगी होगी यह तय है लेकिन यह भी पक्का है कि पब्लिक फोकट का यह एंटरटेनमेंट भरपूर एंजॉय करेगी.

Updated On: Oct 24, 2017 12:07 PM IST

Rakesh Kayasth Rakesh Kayasth

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गुजरात चुनाव: एंटरटेनमेंट से भरपूर है यह सुपरहिट इलेक्शन

पिछले एक हफ्ते में अखबार और बड़ी वेबसाइट्स पर आई कुछ खबरों पर गौर कीजिए. शब्दों की थोड़ी हेरफेर है लेकिन एक हेडलाइन आपको कॉमन मिलेगी- रोमांचक हुआ गुजरात का चुनाव. कमोबेश ऐसे ही नाम आपको न्यूज चैनलों पर चलने वाले शोज के भी मिलेंगे.

तारीख का ऐलान होना बाकी है. लेकिन चुनाव रोमांचक अभी से हो गया है. इस देश की जनता राजनीति में भी एंटरटेनमेंट वैल्यू ढूंढ लेती है बल्कि कहना ये चाहिए कि अगर असली एंटरटेनमेंट कहीं है, तो वो राजनीति में ही है. शायद जनता को लगता है कि अगर पॉलिटिकल सिस्टम कुछ दे नहीं सकता तो कम से कम मनोरंजन ही करे.

गुजरात के चुनाव का एंटरटेनमेंट वैल्यू ज्यादा क्यों?

तो जनता अपने 'जॉय राइड’ के लिए तैयार हो चुकी है. यूपी का चुनाव एक मल्टी-स्टारर ब्लॉकबस्टर था तो गुजरात का चुनाव एक ऐसा एंटरटेनमेंट पैकेज है, जहां भारतीय राजनीति के दो सबसे बड़े सितारों की सीधी भिड़ंत है. एक तरफ रजनीकांत को मात देते नरेंद्र मोदी तो दूसरी तरफ चॉकलेटी राहुल गांधी. एक तरफ सुपरह्यूमन तो दूसरी तरफ एक ऐसा हीरो जो लगातार पिटने के बावजूद मैदान छोड़ने को तैयार नहीं है और 'फाइटर हमेशा जीतता है’ वाले जज्बे के साथ नई शक्तियां बटोरकर फिर से मैदान में आ डटा है.

Rahul Gandhi

टीवी चैनलों के लिए गुजरात और महाराष्ट्र हमेशा से सबसे बड़े टीआरपी जोन रहे हैं. ताज्जुब नहीं अगर न्यूज चैनल अभी से गुजरात चुनाव को एक मेगा इवेंट बनाने में जुट गए हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हर विधानसभा चुनाव को अपनी निजी प्रतिष्ठा की लड़ाई बनाकर लड़ा है. लेकिन गुजरात का चुनाव उनके लिए सचमुच प्रतिष्ठा की लड़ाई है.

पिछले 15 साल में यह गुजरात का पहला ऐसा चुनाव है, जिसमें नरेंद्र मोदी सीएम के कैंडिडेट नहीं है. उनके गुजरात छोड़ने के बाद से राज्य में काफी राजनीतिक उथल-पुथल हो चुकी है. मोदी के पीएम बनने के बाद  गुजरात पहला ऐसा बीजेपी शासित राज्य है, जहां आलाकमान को अपना सीएम बदलना पड़ा है. दलितों के आंदोलन के बाद आनंदीबेन पटेल को हटाकर विजय रूपानी को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंपी गई. लेकिन पिछले 22 साल से सत्ता पर काबिज बीजेपी लगातार दबाव में है.

नोटबंदी के बाद जीएसटी को लेकर उठ रहे सवालों के बाद केंद्र सरकार पहली बार बैकफुट पर है और कांग्रेस लंबे समय बाद आत्मविश्वास से भरी नजर आ रही है. मोदी जानते हैं कि वे किसी भी हालत में गुजरात को हाथ से जाने नहीं दे सकते क्योंकि इस नतीजे का सीधा असर 2019 की उम्मीदों पर पड़ेगा. जाहिर है, ऐसे में माहौल में हो रहे चुनाव में राजनीतिक तापमान एक अलग स्तर पर है. पीएम मोदी तारीख के ऐलान से पहले ही अलग-अलग घोषणाओं का पिटारा लेकर गुजरात के पांच चक्कर लगा चुके हैं. राहुल गांधी भी बाकायदा गुजरात में कैंप कर रहे हैं. जनता सोच रही है कि जब अभी ये हाल है तो तारीख के ऐलान के बाद क्या होगा?

बीजेपी की निगाहें सुपरहिट जोड़ी पर

नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी के बारे में यह बात हमेशा से मशहूर रही है कि वे हर चुनाव में एक नई पटकथा लेकर मैदान में आते हैं. दांव इतना चौंकाने वाला होता है कि विरोधी पार्टियां जब तक संभले, काम हो चुका होता है. उत्तर प्रदेश के कैंपेन में भी कुछ ऐसा ही हुआ. अखिलेश यादव के विकास के एजेंडे का जवाब बीजेपी ने श्मशान बनाम कब्रिस्तान से दिया. देखते-देखते पूरा खेल बदल गया.

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सवाल ये है कि गुजरात में मोदी और शाह की पटकथा क्या होगी? पहली बार बीजेपी दुविधा में नजर आ रही है. जिस गुजरात मॉडल को लेकर मोदी ने गांधीनगर से दिल्ली का तक सफर तय किया, उसके बारे में खुद पार्टी इस बार आश्वस्त नहीं है. यही वजह है कि हवा का रुख भांपने के लिए हिंदुत्व के पोस्टर बॉय और यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ के रोड शो गुजरात में करवाए गए.

विकास और हिंदुत्व हमेशा नरेंद्र मोदी के दो चुनावी घोड़े रहे हैं. कभी कोई आगे तो कभी कोई पीछे. वक्त और वोटरों के मूड के हिसाब से इन्हें आगे-पीछे किया जाता रहा है. इस बार विकास बहुत असरदार नजर नहीं आ रहा है. लेकिन विकास प्रधानमंत्री मोदी की पूरी शख्सियत से जुड़ा हुआ है इसलिए उसे छोड़ा नहीं जा सकता. एक जनसभा में 'मैं गुजरात हूं, मैं विकास हूं’ का नारा बुलंद करके मोदी ने बता दिया कि नई पटकथा विकास के इर्द-गिर्द ही लिखी जाएगी भले ही नारे और जुमले बदलने पड़े.

Hardik Patel

नया जुमला 'विकास विरोधी’

प्रधानमंत्री मोदी का नया जुमला मार्केट में आ चुका है. उन्होंने एक नया शब्द गढ़ा है-  विकास विरोधी. दरअसल यह विकास विरोधी कांग्रेस के कैंपेन `विकास पागल हो गया है’ का जवाब है. कांग्रेस के इस कैंपेन ने सोशल मीडिया पर अच्छी-खासी हलचल मचाई. बीजेपी के अंदरूनी सूत्रों का यह भी कहना है कि प्रधानमंत्री इस बात लेकर नाराज है कि पार्टी अब तक इस कैंपेन का प्रभावशाली तरीके से जवाब नहीं दे पाई है. फ्रंट से लीड करने में यकीन रखने वाले मोदी ने जवाब खुद देने का फैसला किया है.

मोदी बार-बार यह साबित करने की कोशिश कर रहे हैं कि कांग्रेस को विकास से नफरत है. इसलिए वह विकास का मजाक उड़ाती है. कांग्रेस पर विकास विरोधी ब्रांड चस्पां करने की यह कोशिश अपनी शुरुआती दौर में है. इसका कितना असर पड़ेगा यह कहना मुश्किल है. लेकिन वडोदरा में प्रधानमंत्री ने संभवत: हाल के दिनों का सबसे कड़ा बयान दिया. मोदी ने कहा— 'जो लोग विकास का विरोध कर रहे हैं, उन्हे केंद्र सरकार से एक रुपया भी नहीं दिया जाएगा.'

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एक तरह से देखा जाए तो यह गुजरात के वोटरों को दिया गया संदेश है कि अगर गुजरात में कांग्रेस की सरकार बनी तो केंद्र सरकार की तरफ से कोई सहयोग नहीं मिलेगा. प्रधानमंत्री की भाषण शैली में वीर रस के साथ हास्य का भी पुट होता है. जहां जरूरत होती है, वे ललकार की भाषा का इस्तेमाल करते हैं और मौका पाकर व्यंग्यबाण भी छोड़ते हैं. इन दोनो शैलियों के बखूबी इस्तेमाल ने उन्हें हाल के बरसों का सबसे कामयाब कम्युनिकेटर बनाया है. लेकिन गुजरात कैंपेन के शुरुआती रुझान बता रहे हैं कि मोदी की शैली में इस बार तीखापन ज्यादा होगा, व्यंग्य कम.

मोदी की ललकार और राहुल के व्यंग्य बाण

राहुल गांधी एक नई शैली के साथ मैदान में उतरे हैं. राहुल लगातार व्यंग्य की फुलझड़ियां छोड़ रहे हैं. यह उनका एक ऐसा रूप है, जो पहले किसी ने ज्यादा नहीं देखा है. जाहिर सी बात है, इसमें एक नयापन है और सुनने वालों को मजा आ रहा है. अब तक राहुल गांधी की इमेज एक ऐसे नेता की रही है, जो लिखा हुआ भाषण पढ़ता है या याद करके बोलता है. राहुल गांधी की भाषण शैली को भी लोग बोरिंग मानते आए हैं. लेकिन गुजरात में यह धारणा बदल रही है.

सोशल मीडिया से लेकर जनसंपर्क तक हर मोर्चे पर राहुल गांधी ने अपने परफॉर्मेंस से चौंकाया है. मोदी के महामानव वाली इमेज के बिल्कुल उलट राहुल गांधी खुद को एक ऐसे युवा राजनेता के तौर पर ब्रांड करने की कोशिश कर रहे हैं जो यह दावा नहीं करता कि उसके पास हर मसले का जादुई हल है. लेकिन वह ईमानदार है और सबसे बड़ी बात यह है कि वह बोलने से ज्यादा लोगों की बात सुनने में यकीन रखता है.

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राहुल गांधी भाषण से ज्यादा लोगों से संवाद करने पर जोर दे रहे हैं. आरएसएस में महिलाओं के ना होने और उनके शॉर्ट्स पहनने वाले बयान को छोड़कर राहुल ने अब तक कोई ऐसी बड़ी गलती नहीं है, जिससे उनकी किरकिरी हो. लेकिन कैंपेन अभी कायदे से परवान नहीं चढ़ा और ये सफर बहुत लंबा है. इसलिए आगे क्या होगा, कुछ कहा नहीं जा सकता.

...शुरू हुआ हाई वोल्टेज ड्रामा

ड्रामा भारत की चुनावी राजनीति का सबसे बड़ा तत्व है. ड्रामा बकायदा शुरू हो चुका है. कौन किसे तोड़ेगा, कौन किसे जोड़ेगा इसे लेकर अटकलों का बाजार गर्म है. अपने सामाजिक आंदोलन से ओबीसी समाज के बीच पैठ बना चुके अल्पेश ठाकुर बकायदा कांग्रेस में शामिल हो चुके हैं. पाटीदार आंदोलन से गुजरात सरकार को हिलाने वाले हार्दिक पटेल ने कांग्रेस में शामिल हुए बिना उसे समर्थन देने का ऐलान किया है. यही कहानी दलित नेता जिग्नेश मेवाणी की भी है.

chandrashekhar azad ravan-jignesh mevani

लेकिन हार्दिक पटेल कैंप में लगातार हलचल है. उनके दो करीबी सहयोगियों ने बीजेपी जॉइन कर लिया. उनके साथ बीजेपी में गए दो और लोग वापस लौट आए. निखिल सावनी ने वापस लौटकर बीजेपी को भला-बुरा कहा तो दूसरी तरफ नरेंद्र पटेल ने प्रेस कांफ्रेंस कर दावा किया कि बीजेपी ने उन्हे एक करोड़ रुपए में खरीदने की कोशिश की. सबूत के तौर पर नरेंद्र पटेल ने दस लाख रुपए भी दिखाए जो उन्हे कथित तौर पर बीजेपी की तरफ से दिए गए थे. चुनावी माहौल में कौन सच बोल रहा है और कौन झूठ इस पर कुछ भी नहीं कहा जा सकता. जनता ऐसे ड्रामों को एंटरटेनमेंट मानती है और न्यूज चैनलों की टीआरपी बढ़ाने में मदद करती है.

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हाई मोरल ग्राउंड किसी के पास नहीं

नैतिकता और चुनावी राजनीति दो अलग-अलग चीजें हैं. गुजरात का विधानसभा चुनाव इस बात पर एक बार फिर से मुहर लगाएगा, यह एकदम स्पष्ट है. इलेक्शन कमीशन ने जिस तरह गुजरात के चुनाव की तारीख का ऐलान रोक रखा है, इस पर हर कोई हैरान है. इल्जाम यह लगाया जा रहा है कि तारीख का ऐलान इसलिए  नहीं किया जा रहा है, ताकि आचार संहिता लगने से पहले सरकार फटाफट घोषणाएं कर ले. घोषणाएं की जा रही हैं. रोजाना सैकड़ों करोड़ की परियोजाओं का ऐलान हो रहा है.

चुनाव आयोग के रवैये से ज्यादा हैरान करने वाला रहा प्रधानमंत्री का बयान. प्रधानमंत्री ने चुनाव आयोग का पुरजोर तरीके से बचाव किया और ये कहा कि कांग्रेस अब तक इस संस्था का दुरुपयोग करती आई थी. चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है, वह अपने पक्ष में खुद बोल सकती है. उसके किसी फैसले को लेकर सरकार का खुलेआम आम उसके पक्ष में उतरना कुछ अजीब सा लगता है.

यह सच है कि कांग्रेस का नैतिक पक्ष भी कोई बहुत साफ-सुथरा नहीं है. खुलकर हिंसा का सहारा लेने और सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने वाले हार्दिक पटेल के साथ कांग्रेस हाथ मिला चुकी है. जोड़ने और तोड़ने के खेल जारी है. अगले दो महीने तक यह ड्रामा एक सोप ओपरा की तरह चलेगा. गंदगी होगी यह तय है लेकिन यह भी पक्का है कि पब्लिक फोकट का यह एंटरटेनमेंट भरपूर एंजॉय करेगी.

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