वो अपने उसी जाने-पहचाने अंदाज में कदम बढ़ा रहे हैं, अपने भाषणों में वैसी ही सधी हुई बात कह रहे हैं लेकिन क्या नरेंद्र मोदी इस बार हवा का रुख मोड़ सकते हैं? यह सवाल गुजरात के लिहाज से बेमानी लग सकता है लेकिन इस सवाल के जवाब से माहौल को ठीक-ठीक समझने में मदद मिल सकती है.
2017 की सर्दियां वैसी नहीं हैं जैसा कि 2002 की थी. बीजेपी के लिए इस बार हवा कहीं ज्यादा सर्द है, इतनी तेज की पार्टी की कंपकंपी छूट जाए. गुजरात विधानसभा के चुनावों की घोषणा के बाद अपने पहले झंझावाती चुनाव अभियान में नरेंद्र मोदी ने खुद को मुहाफिज (हिफाजत करने वाला) भी बताया और प्रताड़ित भी लेकिन भीड़ इस बार नरेंद्र मोदी के कहे पर उस तरह झूमती नहीं दिखी जैसा कि 2002 में हुआ करता था.
अमरेली जिले के चलाला रोड के पास धारी में हुई जनसभा से लौट रहे लोगों की बातचीत इन पंक्तियों के लेखक के कानों में पड़ीं. लोग कह रहे थे, 'प्रधानमंत्री के आने पर तो सांस लेने भर को भी जगह खाली नहीं रहनी चाहिए थी लेकिन यहां तो आधा से ज्यादा मैदान खाली पड़ा था.'
अमरेली जिला पाटीदारों के दबदबे वाले इलाके में आता है. यहां कपास और मूंगफली के किसान गंभीर संकट के हालत से गुजर रहे हैं.
अमरेली जिले की जनसभा किसी भी सूरत में अनूठी नहीं कही जा सकती. सोमवार को मोदी ने जो चार जनसभाएं कीं उनमें अमरेली की रैली सबसे ज्यादा फीकी रही. मोदी फिलहाल जिस इलाके में रैली कर रहे हैं, उसे ध्यान में रखें तो माना जा सकता है कि जनसभाओं में भीड़ तकरीबन इतनी ही रहेगी या फिर लोगों की तादाद में मामूली सा इजाफा हो सकता है.
कोई भी आलोचना गुजराती अस्मिता पर चोट की तरह देखी गई
साल 2002 में मोदी गुजरात गौरव यात्रा पर निकले थे. इस यात्रा की एक पृष्ठभूमि थी. गोधरा कांड के बाद राज्य प्रायोजित सांप्रदायिक हिंसा के गंभीर आरोप लगे थे. तब मोदी ने खुद को लोगों की चालबाजियों का शिकार बताकर सारी आलोचनाओं की धार कुंद कर दी थी. उस वक्त मोदी या गुजरात सरकार की कोई भी आलोचना गुजराती अस्मिता पर चोट की तरह देखी गई. राज्य प्रायोजित हिंसा की निंदा हुई तो मोदी की छवि हिंदू हृदय सम्राट की बनी, एक ऐसी शख्सियत जिसने मुसलमानों को सबक सिखाया.
इस बार भी यह बीजेपी के चुनाव प्रचार में टेक की तरह शामिल है. लोगों को याद दिलाया जा रहा है कि मोदी के सियासी मंच पर आने के साथ गुजरात में दंगों और कर्फ्यू के दिन अलविदा हो गए. जब भी ऐसी याद दिलाई जाती है कि अब दंगे नहीं होते क्योंकि अब बीजेपी के लिए वो मददगार नहीं तो इसमें एक छुपा हुआ संदेश होता है कि दंगे पहले या तो मुस्लिम भड़काते हैं या फिर कांग्रेस.
मोदी ने दोतरफा फॉर्मूला अपनाया है, वो हमलावर भी दिखना चाहते हैं और हमले के शिकार भी. उन्होंने अपने भाषण में कहा, 'मैं चाय बेचना पसंद करूंगा, देश नहीं बेचूंगा' और लोगों को याद दिलाया कि कांग्रेस ने हमेशा गुजरात और गुजरातियों के साथ दगा किया है, दगाबाजी के पहले शिकार सरदार वल्लभ भाई पटेल बने. ऐसा कहकर उन्होंने गुजराती अस्मिता की चोट को उभारना चाहा लेकिन फिर इसी सांस में खुद को मुहाफिज बताते हुए 'आ मोदी छे' का गर्वघोष भी किया.
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लेकिन मुश्किल यह है कि साल 2002 में जो भीड़ उनको देखने के लिए एक दूसरे के साथ धक्का-मुक्का करती नजर आती है, इस बार उनमें ज्यादा उत्साह नहीं है.
बीजेपी के लिए ठंड में पसीना छूटने का सबब बने
किसानों का संकट गहरा है, जीएसटी और नोटबंदी की मार पड़ी है, बेरोजगारी साफ नजर आ रही है. ऐसे में पाटीदार, दलितों का असंतोष और पाले में खींच लाने के लिहाज से मुश्किल जान पड़ते ओबीसी के मतदाता सब मिलकर बीजेपी के लिए ठंड में पसीना छूटने का सबब बन गए हैं.
सोमवार के जनसभा से उभरते संकेतों से साफ है कि इस बार इन मुद्दों को जुमलों के जोर से दबाना मुमकिन न होगा.
बुधवार को मोदी ने मोरबी से जनसभाओं का दूसरा चरण शुरू किया. मोरबी चीनी मिट्टी से बने सामानों का गढ़ है. यह छोटे उद्योग में शामिल है. इस पर जीएसटी और नोटबंदी की चोट पड़ी है.
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मोरबी और मुख्यमंत्री विजय रूपाणी के गृह नगर राजकोट के बीच इसी इलाके में ऑटोमोबाइल के कल-पुर्जे और इंजीनियरिंग के सामान बनाने वाली औद्योगिक इकाइयां लगी हैं. गुजरात में ऐसी इकाइयों की सबसे ज्यादा तादाद इसी इलाके में है. चुनाव अभियान के दूसरे चरण का इलाका छोटे और मंझोले उद्योगों वाला इलाका है जो कि अब भी आर्थिक सुधार के दो उपायों- नोटबंदी और जीएसटी की मार से उबरने की कोशिश में है.
हार्दिक पटेल के पाटीदार आंदोलन का साफ असर
इस इलाके में हार्दिक पटेल के पाटीदार आंदोलन का भी साफ असर दिखता है, खासकर ग्रामीण और अर्ध-शहरी इलाकों में. अब इसे संयोग कहें या फिर सोची-समझी रणनीति बुधवार को यह पाटीदार नौजवान राजकोट में रैली करने वाला है.
जाहिर तौर पर, नरेंद्र मोदी और गुजरात बीजेपी के सामने चुनौतियां हैं. साल 2017 में जीत उतनी आसान नहीं जितनी 2002 में मिली जीत. तब बीजेपी को चुटकी बजाते जीत मिली थी लेकिन इस बार मामला मैराथन दौड़ लगाने जैसा मुश्किल दिख रहा है.
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