चुनावी माहौल हो, जबरदस्त सियासी गर्मा-गर्मी हो, और कोई भयंकर आफत आ जाए. ये बात इतिहास में बहुत कम ही दर्ज होती है.
गुजरात की किस्मत से समुद्री तूफान ओखी जब तक राज्य की सरहद में दाखिल हुआ, तब तक वो बेहद कमजोर हो चुका था. दो दिन तक तेज हवाओं और बारिश के बाद तूफान ने गुजरात में ही दम तोड़ दिया. ये उन इलाकों पर असर दिखा सकता था, जहां पहले दौर में यानी 9 दिसंबर को वोट डाले जाने हैं. मगर चुनाव प्रचार खत्म होने से पहले ही तूफान शांत हो गया.
लेकिन इस तूफान की आहट से पैदा हुए खौफ ने एक बार फिर गुजरात को आपदाओं के वक्त होने वाली राजनीति की याद दिला दी. फिर चाहे वो इंसान की पैदा की हुई आफत हो, या कुदरती.
एक शानदार किताब 'नो वन हैड द टंग टू स्पीक' में ऐसे ही एक किस्से का जिक्र मिलता है. ये किताब गुजरात में माछू नदी में आई भयंकर बाढ़ पर आधारित है. 1979 में आई उस बाढ़ की वजह से माछू नदी पर बना बांध टूट गया था. पानी के तेज बहाव की वजह से मोरबी नाम के कस्बे का नामो-निशां मिट गया था. वो उस वक्त सेरेमिक के काम का देश का सबसे बड़ा ठिकाना था.
जोग बापू का श्राप और उसका सियासी संबंध
ये किताब उत्पल संदेसरा और टॉम वुटेन ने लिखी है. इसमें वुटेन लिखते हैं, 'जहां बांध बन रहा था, वहां से कुछ दूरी पर एक टीला था. बरसों से एक साधु उस टीले पर रहते थे. वो गंजे थे. उनकी सफेद दाढ़ी हुआ करती थी. वो साधु और उनका टीला काफी मशहूर थे. दोनों एक-दूसरे की पहचान बन गए थे. उसे जोग बापू का टीला कहा जाता था. लोग मीलों दूर से उनका आशीर्वाद लेने के लिए आते थे. चाहे पैसे का मामला हो या सेहत का. अध्यात्म का मसला हो या फिर पारिवारिक विवाद. जोग बापू के पास लोग दूर-दूर से आया करते थे.
जब सरकार ने बांध बनाने के लिए वो इलाका खाली कराना शुरू किया, तो जोग बापू ये जानकर सदमे में आ गए कि उन्हें अपना टीला छोड़कर जाना पड़ेगा. जोग बापू का टीला भी बांध के डूब क्षेत्र में आने वाला था. महीनों तक वो नाखुशी जताते रहे. गुस्से का इजहार करते रहे.
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जब आखिर में उन्हें जबरदस्ती वहां से हटाया गया, तो जोग बापू ने श्राप दिया कि ये बांध टूट जाएगा. मोरबी तबाह हो जाएगा. जोग बापू की चेतावनी को राज्य के अफसरों और इंजीनियरों ने अनसुना कर दिया. उन्हें लगा कि जगह से हटाए जाने से ये साधु यूं ही बड़बड़ा रहा है. लेकिन जोग बापू का श्राप सच साबित हुआ.
बांध में दरार से गुजरात की राजनीति में भयंकर तूफान आया था. आज जोग बापू का किस्सा लोक कथाओं की तरह सुनाया जाता है. उस दौर के किस्सों पर काफी अकादमिक रिसर्च हुई हैं. फिर भी बहुत कम लोग जानते हैं कि मोरबी की वो बाढ़ गुजरात की राजनीति में कितनी अहम मोड़ साबित हुई थी.
वीरान मोरबी को संवारा था संघ के स्वयंसेवकों ने
उस बाढ़ की वजह से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने गुजरात में खुद को बेहद ताकतवर बना लिया था. जबकि उससे पहले तक गुजरात में संघ का उतना दखल नहीं था. क्योंकि गांधी की हत्या के बाद से ही गुजरात के लोग संघ को नापसंद करते थे.
पुराने लोग आज भी याद करते हैं कि किस तरह माछू बांध टूटने के बाद संघ के कार्यकर्ताओं ने युद्ध स्तर पर लोगों की मदद की थी. बाढ़ की वजह से मोरबी में दो हजार से ज्यादा लोग मारे गए थे. मोरबी वीरान हो गया था. जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इलाके का दौरा किया तो उन्होंने अपनी नाक पर रुमाल रखा हुआ था.
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इस बार के चुनाव में भी इंदिरा गांधी की वो तस्वीर लोगों को याद दिलाई जाती है. ये बताया जाता है कि किस तरह लोगों की मुसीबत पर कांग्रेस नाक बंद कर लेती है. वहीं संघ परिवार ने किस तरह मुसीबत के मारे लोगों की मदद की थी.
ये बात बहुत कम लोगों को मालूम होगी कि जब मोरबी में बांध टूटने से कहर बरपा तो उस वक्त नरेंद्र मोदी, दक्षिण भारत के दौरे पर थे. जब उन्हें बांध टूटने की खबर मिली, तो वो फौरन गुजरात लौटे. मोदी ने निजी तौर राहत और बचाव अभियान की निगरानी की थी. वो कई महीनों तक जी-जान से लोगों की मदद में जुटे रहे थे.
इस आफत के दौरान मोदी की संगठन क्षमता की मिसाल देखने को मिली थी. लोग बताते हैं कि वो अपने बूते राहत का सामान जमा कर के लोगों तक पहुंचाते थे. मोदी ये सुनिश्चित करते थे कि पीड़ितों को ईमानदारी से मदद पहुंचे. इस काम को संघ के कार्यकर्ताओं ने बड़ी मुस्तैदी से किया था.
गुजरात की विपदा और संघ की मजबूत होती पकड़
मोरबी में आई उस आफत ने संघ परिवार को गुजरात में मजबूती से पांव जमाने का मौका दे दिया था. लोगों को समझ में आ गया था कि संघ ऐसा संगठन है जो बेहद काम का है. इससे दूरी नहीं, नजदीकी बनाने की जरूरत है.
संघ की स्वीकार्यता बढ़ने के बावजूद इसकी सियासी ताकत कुछ खास नहीं बढ़ी थी. बीजेपी के पूर्ववर्ती संगठन भारतीय जनसंघ और फिर बीजेपी को गुजरात में सियासी ताकत बनने में एक दशक और लग गए.
इसकी बड़ी वजह ये थी कि जनसंघ या बीजेपी के पास कांग्रेस के माधवसिंह सोलंकी, चिमनभाई पटेल या अमरसिंह चौधरी जैसे कद्दावर नेता नहीं थे. जनता भी बड़े नेता न होने की वजह से जनसंघ और बीजेपी को समर्थन देने में हिचक रही थी.
नब्बे के दशक के आखिर में केशुभाई पटेल बीजेपी के ताकतवर चेहरे के तौर पर उभरे. हालांकि केशुभाई की ताकत सौराष्ट्र के पटेलों के बीच ही ज्यादा थी. जब मोदी 1986 में संघ परिवार से बीजेपी में आए, तो जाकर गुजरात में बीजेपी को नया हौसला मिला. मोदी ने जो पहचान 1979 की बाढ़ में राहत अभियान चलाकर बनाई थी, वो काफी काम आई.
बीजेपी ने कांग्रेस के जातिवादी खाम (KHAM) फॉर्मूले की काट के तौर राजनीति में नए तेवर दिखाए. पार्टी ने हिंदुत्व की मदद से माधवसिंह सोलंकी की जातिवादी राजनीति और चिमनभाई पटेल के भ्रष्टाचारी निजाम का मुकाबला किया. केशुभाई पटेल एक लोकप्रिय नेता के तौर पर उभरे.
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केशुभाई का पतन भी एक और कुदरती आफत की वजह से हुआ. जब 2001 में गुजरात के कच्छ और सौराष्ट्र में आए भूकंप ने पूरे इलाके को कमोबेश जमींदोज कर दिया.
प्राकृतिक विपदा में और निखरे मोदी, बीजेपी को मिला ताकतवर नेता
उस वक्त नरेंद्र मोदी दिल्ली में बीजेपी के महासचिव थे. उन्हें राहत और बचाव के काम के लिए गुजरात भेजा गया. लेकिन केशुभाई पटेल को उनका आना पसंद नहीं आया. केशुभाई की नाखुशी के बावजूद मोदी ने पूरी ताकत से राहत और बचाव अभियान चलाया. उन्होंने कार्यकर्ताओं को जुटाकर लोगों की मदद की, वो भी उस वक्त जब राज्य की पूरी मशीनरी को लकवा सा मारा हुआ था.
भूकंप ने केशुभाई पटेल का सियासी कद बेहद कमजोर कर दिया. मोदी कद्दावर नेता के तौर पर उभरे. बाद में मोदी ने जिस तरह से भुज, अंजार और कच्छ के दूसरे कस्बों का पुनर्निर्माण किया, वो काबिले-तारीफ था. पांच साल से भी कम वक्त में भूकंप से तबाह हुए शहर फिर से जिंदगी से लबरेज हो गए थे.
उसके बाद मोदी ने किसी आपदा के दौरान लोगों की मदद के लिए गुजरात में एक नया सिस्टम ही तैयार किया. इसका असर अगस्त 2006 में गुजरात के सूरत में आई बाढ़ में देखने को मिला था. हालांकि वो लोगों की मदद के लिए सरकारी मशीनरी से ज्यादा अपने कार्यकर्ताओं पर भरोसा करते हैं.
इसमें कोई शक नहीं कि पार्टी का संगठन बनाने में मोदी का कोई सानी नहीं. यही वजह है कि आज उनकी मिसालें दी जाती हैं. जो लोग मोदी को कट्टर हिंदुत्व का ब्रैंड एंबेसडर मानते हैं, वो ये भूल जाते हैं कि पिछले चार दशकों में गुजरात में आई आफतों ने संघ और बीजेपी को गुजरात में जड़ें जमाने का मौका दिया. संघ परिवार ने ऐसे मौकों का फायदा अपनी ताकत बढ़ाने में किया.
गुजरात कोई एक दिन में मोदी का किला नहीं बना. आज भी राज्य में बीजेपी का संगठन बेहद मजबूत है. कार्यकर्ता जमीन से जुड़े हुए हैं.
यही वजह है कि जब ओखी तूफान गुजरात पहुंचने वाला था, तो मोदी ने अपने कार्यकर्ताओं से अपील की कि वो लोगों की मदद में जुट जाएं. बुधवार को, जब तूफान ने गुजरात में दस्तक दी, तो उस दिन मोदी ने राज्य में रैलियां भी नहीं कीं. राहुल गांधी और दूसरे नेता भी प्रचार के लिए नहीं गए.
एक आफत की आहट ने गुजरात के लोगों को याद दिलाया कि किस तरह से कुदरती आपदाओं की वजह से राज्य की सियासत में उतार-चढ़ाव आता रहा है.
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