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गुजरात चुनाव ग्राउंड रिपोर्ट: दलितों का सवाल, क्या हमारा मत भी अछूत है?

दलितों का कहना है , ‘चुनावों में सब वोट मांगते हैं. सुविधाएं देने की बात करते हैं. लेकिन दूर-दूर से. ऐसा कैसे हो सकता है कि हम अछूत हों और हमारा मत नहीं?’

Updated On: Nov 30, 2017 08:31 PM IST

Pratima Sharma Pratima Sharma
सीनियर न्यूज एडिटर, फ़र्स्टपोस्ट हिंदी

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गुजरात चुनाव ग्राउंड रिपोर्ट: दलितों का सवाल, क्या हमारा मत भी अछूत है?

कांता बेन जमीन पर क्यों बैठ गईं! इधर आकर मेरे साथ बैठिए. कई बार कहने के बावजूद वह अपनी जगह पर ही बैठी रहीं. मैंने पूछा, ‘क्या हुआ.’ उन्होंने जवाब में जो कहा, वह उस इंडिया के लिए शर्मनाक है जो चांद और मंगल पर दुनिया बसाने की बातें करता है. उन्होंने कहा, ‘हूं दलित छू. तमारी साथे ना बेसी सकूं.’ यानी मैं दलित हूं और तुम्हारे साथ नहीं बैठ सकती.

मेरे बार-बार कहने पर गांव के कुछ पुरुष जरूर मेरे साथ बैठ गए लेकिन महिलाएं जमीन पर ही आधा मुंह ढंककर बैठी रहीं. इन सबको छुआछूत और गांव की व्यवस्था से शिकायत थी, लेकिन खुलकर बोलने को कोई महिला तैयार नहीं थी.

यह बताने के बाद कि आप जो कुछ भी बताएंगी वह गुजरात के अखबार में नहीं छपेगा. दिल्ली में छपेगा. तब जाकर उन लोगों ने मुंह खोला. हालांकि गांव के पुरुषों में जोश था. लेकिन उन्हें भी इस बात का डर था कि गांव के सवर्णों को अगर इस बात की जानकारी मिल गई तो उनकी जिंदगी और मुश्किल हो सकती है.

अहमदाबाद से राजकोट जाने वाले हाइवे पर सुरेंद्रनगर जिले का यह लिमड़ी तहसील है. यहां से करीब 14 किलोमीटर अंदर जाने पर शियानी गांव आता है. यह विधानसभा सीट नंबर 60 दसाड़ा है. इस इलाके में दलितों की आबादी ज्यादा होने के कारण ही इस सीट को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के लिए रिजर्व कर दिया गया है.

अभी यहां के एमएलए बीजेपी के मकवाना पूनमभाई कालाभाई हैं. सीट रिजर्व करने का पहला फायदा यही नजर आता है कि दलितों के समाज से कोई एमएलए या सरपंच हो तो उनकी कई छोटी-बड़ी मुश्किलें आसान हो जाती हैं. लेकिन इस गांव पर यह बात बिल्कुल सही नहीं बैठती.

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गांव के दलितों की बदहाली का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि काम करने के बावजूद उन्हें पूरे पैसे नहीं मिलते हैं. रमा बेन बटुक भाई पुरबिया गांव के ही कौशल वर्धन केंद्र में सफाई का काम करती हैं. वहां सफाई के लिए उनकी तय पगार 2500 रुपए है. लेकिन हर महीने उनके हाथ में सिर्फ 1000 रुपए आते हैं. कुछ साल पहले रमा बेन के पति की मौत हो गई. वह बताती हैं, ‘तेज बुखार आया और उसने बिस्तर पकड़ लिया. गांव में कहने के लिए एक अस्पताल है, लेकिन डॉक्टर कभी कभार ही नजर आते हैं.’

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उनके दो छोटे-छोटे बच्चे हैं. इनमें से एक दिव्यांग है. अपनी मुश्किलें बताते-बताते वह रोने लगती हैं. फिर थोड़ी देर बाद खुद को संभालते हुए कहती हैं, ‘मेरे ऊपर अपने बच्चों को संभालने की जिम्मेदारी है. नौकरी पक्की नहीं है. इसलिए कम पैसे मिलने पर भी मैं कुछ नहीं कह सकती. अगर मैं कुछ बोलूंगी तो वे मुझे निकालकर किसी और को रख लेंगे. वे साइन 2500 रुपए के वाउचर पर लेते हैं लेकिन पूरे पैसे देते नहीं हैं.’

65 साल के कल्पेश भाई की मुश्किल यह है कि उनका अब तक बीपीएल कार्ड नहीं बना है. अपने विधायक और सरपंच से नाराज कल्पेश भाई कहते हैं, ‘यहां सब उल्टा है. जो बड़े-बड़े घरों में रहते हैं उनका बीपीएल कार्ड है. लेकिन हमें कोई नहीं पूछता. हमें तो टॉयलेट बनवाने के लिए भी सरकारी फंड नहीं मिलता. इस फंड के लिए भी 1000 रुपए का रिश्वत देना पड़ता है. तब जाकर हमें टॉयलेट बनवाने के लिए सरकार का पैसा मिलता है.’

इस गांव के लोग अपनी सरपंच गौरी बेन गिरीश भाई से काफी नाराज हैं. गांव वालों का कहना है कि गौरी बेन सवर्णों के इशारों पर काम करती हैं. उनके सभी फैसले सिर्फ ऊंची जाति वालों के लिए ही होते है. क्या सच मे गौरी बेन ऐसा करती हैं? यह जानने के लिए फ़र्स्टपोस्ट की टीम ने गौरी बेन से भी बात की. गौरी बेन से जब हमने यह पूछा कि गांव वालों की शिकायत है कि आप उनके बारे में नहीं सोचतीं. इस बात से तो उन्होंने साफ इनकार कर दिया लेकिन जब गांव के विकास से जुड़े कुछ और सवाल पूछे गए तो उन्होंने मुस्कुराते हुए अपने पति की तरफ इशारा किया कि ये जवाब देंगे.

गांव की सरपंच गौरी बेन

गांव की सरपंच गौरी बेन

गौरी बेन के पति गिरीश भाई ने कहा, ‘अभी हमें चुनाव जीते सिर्फ 6-8 महीने ही हुए हैं. यहां जो भी टॉयलेट बने हैं वो हमारे जीतने से पहले बने हैं.’ हालांकि आसपास खड़े लोगों ने इस बात का विरोध करना शुरू कर दिया. उनका कहना था कि गौरी बेन को सरपंच बने एक साल हो चुका है और वे भी 1000 रुपए लेकर ही सरकारी फंड दिलवा रही हैं. गौरी बेन से जितने भी सवाल पूछे गए, उसका जवाब उनके पति ने ही दिया. हंसा बेन खिमजी भाई ने कहा, ‘गौरी बेन को कुछ पता नहीं है क्योंकि उनकी तरफ से पंचायत का सारा काम उनके ससुर और पति ही करते हैं.’

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इस गांव में दलित और वाल्मिकी समाज के करीब 50-60 घर हैं. इसके बावजूद ये हाशिए पर जीने के लिए मजबूर हैं. 2011 की जनगणना के मुताबिक, गुजरात में अनसूचित जनजातियों की संख्या 89,17,174 थी. साल दर साल बीतने के बावजूद अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातिय वर्ग समाज से कटा हुआ है.

यही हाल यहां भी है. हंसा बेन से जब मैंने पूछा कि क्या गांव के मंदिर में जाने की इजाजत है. उन्होंने सकुचाते हुए कहा, ‘हां.’ इस पर 25 साल के मुकेश भाई भड़क गए. उन्होंने हंसा बेन से पूछा, ‘कब मंदिर गई हो.’ फिर मेरी तरफ देखते हुए कहा कि ये लोग डरते हैं. कुछ भी खुलकर नहीं बताना चाहते क्योंकि उनको क्षत्रियों से डर है. मुकेश भाई ने कहा, ‘मंदिर में दाखिल होने पर हमें पीटा जाता है. इसलिए कभी किसी ने मंदिर के दरवाजे पर कदम नहीं रखा है.’

50 साल के पुरुषोत्तम भाई कहते हैं, ‘ऊंची जाति वालों की दुनिया हमसे बिल्कुल अलग है. वे हमें पानी भी दूर से देते हैं. हमारे बगैर उनकी साफ सफाई का काम नहीं चलेगा, शायद इसलिए हमें जीने दे रहे हैं.’ वो हंसते हुए कहते हैं, ‘हमारी सिर्फ दो चीजें छुआछूत से बाहर हैं. एक पैसा और दूसरा हमारा मत.’ उन्होंने कहा, ‘चुनावों में सब वोट मांगते हैं. सुविधाएं देने की बात करते हैं. लेकिन दूर-दूर से. ऐसा कैसे हो सकता है कि हम अछूत हों और हमारा मत नहीं?’

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