गुजरात में बीजेपी छठी दफे सरकार बनाने जा रही है. शंकर सिंह वाघेला के बागी हो जाने के कारण पार्टी को 1996-98 में कुछ मुश्किलों का भले सामना करना पड़ा हो लेकिन गुजरात में वह 1995 से ही सत्ता में है और इस दौरान कभी नहीं लगा कि लोग पार्टी के शासन के खिलाफ मन बना रहे हैं. जो कुछ नजर आ रहा है उसकी तुलना पश्चिम बंगाल में लंबे समय चक चले सीपीएम के शासन से की जा सकती है.
बेशक अन्य राज्यों में भी किसी एक पार्टी का लंबे समय तक राज रहा है या फिर कोई पार्टी हर दूसरे चुनाव में सत्ता में लौटती रही है. लेकिन जैसा कि पश्चिम बंगाल में 1977 से 2011 के दौरान हुआ उसी तरह गुजरात में भी एक खास विचारधारा ने एक विश्वदृष्टि(वर्ल्डव्यू) का रूप ले लिया है, एक खास पार्टी-संगठन ने सूबे की सामाजिक-आर्थिक संरचना में बहुत गहरे अपनी जड़ें जमा ली है और ये जड़ें इस हद तक फैल चुकी हैं कि अब उन्हें सहकारी समितियों और क्रिकेट एसोसिएशन्स में भी देखा जा सकता है.
बहुसंख्यकवाद ही गुजरात में समझ की कुंजी है और गवर्नेंस उसका सहायक मात्र है
इस विचारधारा को सीधे-सीधे एकरस स्वाद वाला कट्टर हिंदुत्व नहीं करार दिया जा सकता बल्कि इसे हिंदुत्व का तनिक सुथरा हुआ संस्करण कहना ज्यादा ठीक होगा. कुछ टिप्पणीकारों ने एक दशक पहले इसे मोदीत्व का नाम दिया था यानि एक ऐसा बहुसंख्यकवाद जिसने उद्योगों की अगुवाई में होने वाली आर्थिक वृद्धि से हाथ मिला लिया है. एक आम गुजराती के लिए अब यह एक स्थिर नियम बन चला है, निहायत ही प्रचलित समझ- जब तक कोई और ताकतवर कारण उठ खड़ा नहीं होता! बहुसंख्यकवाद ही गुजरात में समझ की कुंजी है और गवर्नेंस उसका सहायक मात्र है.
आम गुजराती वोटर की छवि कुछ इस तरह तरह बनाई जा सकती है मानो वह किसी हमलावर भीड़ का हिस्सा हो. ऐसी छवि बनाना आसान है और अधकचरी समझ का संकेत भी. आम गुजराती (हिंदू) मतदाता की छवि इससे तनिक अलग है. वह कुछ ऐसा जान पड़ता है मानो मीठी जबान में बोलने वाला अधेड़ उम्र का कोई सभ्य-शालीन व्यक्ति हो, एक ऐसा आदमी जो बिना मांगे भी पड़ोसी को मदद देने के लिए तैयार रहता है या फिर जो अपनी रिटायरमेंट की उम्र समाज सेवा में गुजार रहा है (बशर्ते वह स्टॉक मार्केट में किए गए अपने निवेश को उस घड़ी ना जांच ना कर रहा हो).
कांग्रेस को वोट नहीं देने का एक मात्र कारण अल्पसंख्यकों का भय
आप इस मतदाता से मोदी या फिर बीजेपी का जिक्र कीजिए और वह इनको लेकर अपनी शिकायतों की फेहरिश्त गिना देगा. एक बार शिकायतों की उसकी लिस्ट पूरी हो जाय तो आप उससे पूछ सकते हैं कि ‘इस बार आखिर कांग्रेस को क्यों नहीं मौका देते’. इस सवाल पर वह कहेगा- ‘हरगिज नहीं, कांग्रेस को मौका देने का मतलब होगा कि उन लोगों की चलती-बढ़ती हो जाएगी.’ यहां, ‘उन लोगो’ का मतलब है- मुस्लिम जनता. और, ध्यान रहे कि ऐसा कहने वाला यह सभ्य-शालीन व्यक्ति रेलगाड़ी से सफर पर होता है तो पास की सीट पर बैठे अपने मुस्लिम साथी से दुआ-सलाम करता है और भोजन ना सही लेकिन उससे चाय के लिए जरुर पूछता है. यह आदमी अपने मन में एक नियम की तरह बैठा चुका होता है कि महीने के खर्चे का सौदा-सुलफ खरीदना है तो अहमदाबाद के मानेक चौक से ही खरीदना है क्योंकि यहां के मुस्लिम दुकानदार बहुत ईमानदार हैं. लेकिन क्या गुजरात का यह आम मतदाता कांग्रेस के लिए वोट डालेगा ? आप इसका जवाब जानते हैं, और यह भी जानते हैं कि जवाब वैसा क्यों है.
गुजरात में सबसे बोलती हुई चीज है- पराए को लेकर भय या कह लें अल्पसंख्यकों को लेकर पूर्वाग्रह. इसकी कई वजहें हैं. एक तो यह सूबा पाकिस्तान के पड़ोस में है. दूसरा, दो धर्म-समुदायों के तनावपूर्ण रिश्ते का यहां लंबा इतिहास रहा है. लेकिन आज के ऐतबार से सबसे बड़ी वजह है 1980 के दशक में और उसके बाद भी लगातार हुए दंगे जो महीनों तक चले (यही कारण रहा जो नरेंद्र मोदी, अमित शाह और बीजेपी के अन्य नेताओं ने चुनाव-प्रचार के दौरान कुछ इतिहास याद दिलाना भी जरूरी समझा).
रामजन्म भूमि अभियान के कारण बहुसंख्यक तबका बीजेपी के साथ हो लिया
प्रचलित समझ यही है कि दंगों के उस दौर में कांग्रेस एक हद तक अल्पसंख्यकों की तरफदार नजर आती थी. अब्दुल लतीफ नाम का एक तस्कर था. शाहरुख खान की फिल्म रईस अब्दुल लतीफ के किरदार के इर्द-गिर्द ही बुनी गई है. अब्दुल लतीफ 1986 में पांच म्युनिस्पल वार्डों से जीता था. मजा यह कि यह करिश्मा उसने जेल में रहते हुए किया.
कुछ तो दंगों के कारण भय पैदा हुआ, फिर 1980 और 1990 के दशक में रामजन्म भूमि अभियान चला और इस साझे कारण से बहुसंख्यक तबका बीजेपी के पीछे हो लिया, जाति-समीकरण निकालकर उसे भीतर से बांटना संभव ना हो सका. हालांकि आंकड़े बताते हैं कि 1992 से लेकर 2002 तक हर ‘हुल्लड़’ (सांप्रदायिक दंगे) में चोट मुसलमानों पर ही पड़ी है लेकिन अल्पसंख्यक को लेकर सूबे में पहले से चला आ रहा पूर्वाग्रह कायम है.
अगर बहुसंख्यकवाद की धारणा के पक्ष में आपको सबूत चाहिए तो आपको विपक्षी पार्टी की तरफ देखना होगा. कांग्रेस पर 2002 से ही आरोप लगते रहे हैं कि वह ‘नरम हिंदुत्व’ (सॉफ्ट हिंदुत्व) का दामन थामने की कोशिश में है.
इस बार राहुल गांधी ने मंदिरों और तीर्थों में खूब मत्था टेका
इस बार कांग्रेस के नव-नियुक्त अध्यक्ष राहुल गांधी ने बड़े मंदिरों और तीर्थों में मत्था टेकने के मामले में अपनी मां को भी पीछे छोड़ दिया. अब कांग्रेस भी लगातार अल्पसंख्यकों को कम से कमतर टिकट देने लगी है. ऐसे में बीजेपी ने एक भी मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट नहीं दिया तो इसमें उसकी गलती नहीं (फिर यह भी देखें कि सूबे में बड़े लंबे समय से कोई मुस्लिम मुख्यमंत्री नहीं बना).
हो सकता है, मोदी हिंदुत्व और आर्थिक वृद्धि दोनों पर समान रुप से निर्भर रहे हों लेकिन उनकी जीत के लिए बराबर का श्रेय सुशासन को भी देना पड़ेगा. यह तर्क दिया जा सकता है कि गुजरात तो हमेशा से आर्थिक बढ़वार के मामले में आगे रहा है और मोदी के शासन में रहते उसने जीडीपी से लेकर निवेश तक किसी भी पैमाने पर शीर्ष पर स्थान नहीं बनाया (गुजरात से ज्यादा बेहतर प्रदर्शन उन दिनों दिल्ली का रहा लेकिन शीला दीक्षित चौथी दफे चुनाव नहीं जीतीं). इसलिए, मानना पड़ेगा कि गुजरात में सिक्का बहुसंख्यकवाद का ही चलता है, सुशासन वहां पर बहुसंख्यकवाद की बड़ी कहानी के भीतर छोटा-मोटा किरदार निभाता आया है. वाट्सएप्प के संदेशों पर बहुसंख्यकवाद हावी दिखाई देगा आपको और टेलीविजन पर चलने वाली बहसों में सुशासन का जुमला ज्यादा मुखर होता है.
लेकिन यहां पर एक शर्त आयद करना भी जरुरी है. बशर्ते बीजेपी को हासिल सीटों की संख्या 110 के ऊपर न जाए और वह 1995 के बाद से अबतक के अपने सबसे न्यूनतम सीटों पर सिमट जाए.
अगर आने वाले चुनाव में बीजेपी हारती है तो 2017 को शुरुआत के तौर पर देख सकते हैं
सीपीएम पश्चिम बंगाल में लगातार तकरीबन 35 सालों तक सत्ता में रही. गुजरात में बीजेपी यह रिकार्ड तोड़ सकती है. लेकिन अगर बीजेपी ऐसा नहीं कर पाती, वह गुजरात में सत्ता आगे के वक्त में गंवा देती है तो फिर 2017 को आप इस अवसान की शुरुआत के तौर पर देख सकते हैं. अगर यह मान लिया गया कि बहुसंख्यकवाद का सिक्का गुजरात में हमेशा के लिए चलता रहेगा और अगर गुजरात के आम मतदाता को लग जाए कि अल्पसंख्यकों से अब खतरा नहीं है, दंगे किसी बीते जमाने की बात हैं तो फिर गुजरात में जाति अपना रंग फिर दिखाएगी. इसमें यह भी जोड़कर देखें कि रोजगार-हीन विकास के कारण बहुत से लोग पीछे छूट गए हैं (हालांकि इसके लिए सिर्फ मोदी को दोष नहीं दिया जा सकता क्योंकि देश के स्तर पर यह घटना 1991 से ही जारी है).
गुजरात के 2017 के चुनाव में हमने यही होते देखा. इसमें तीन जातियों के नेता चुनाव-प्रचार में उभरते हुए नजर आए. राजनीतिक समझ की परिपक्वता इनमें अलग-अलग थी लेकिन तीनों ने आरक्षण के फायदे की मांग की और बहुत संभव है कि गुजरात के चुनावी नतीजों पर इनका असर पड़ा हो. बीते 1980 के दशक में बीजेपी ने सियासत की तनी हुई रस्सी पर कदम साधकर चलने में कामयाबी हासिल की और सत्ताधारी कांग्रेस की जाति और आरक्षण की सियासत के बरक्स उसने दलित समेत तमाम जातियों को अपने खेमे में जोड़ा.
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