जो जीता वही सिकंदर...गुजरात के 182 सीटों में से 99 सीटें जीतने के बाद बीजेपी यही कह रही है. इसमें कोई शक नहीं है कि लगातार 22 साल तक सत्ता में रहने के बावजूद सत्ताविरोधी लहरें उतनी मजबूत नहीं रहीं कि बीजेपी की कुर्सी हिला सके. चुनाव प्रचार शुरू करते हुए बीजेपी ने 150 सीट हासिल करने का दावा किया था, लेकिन यह पूरा नहीं हो पाया. दूसरी तरफ कांग्रेस के लिए गुजरात चुनाव एक ऐसी परीक्षा थी, जिसमें पार्टी कम से कम पास हो जाना चाहती थी.
कांग्रेस के लिए गुजरात में 80 सीट हासिल करना कोई छोटी बात नहीं है. इससे पहले सिर्फ 1985 में ही कांग्रेस 149 सीटों का आंकड़ा छू पाई थी. बीजेपी ने इसी आंकड़े से आगे निकलने के लिए 150 सीटों का टारगेट तय किया था. 1985 में कांग्रेस के प्रचंड बहुमत हासिल करने के बाद माधवसिंह सोलंकी सीएम बने थे. गुजरातियों के बीच वह दौर हिंदू-मुस्लिम हिंसा के लिए याद किया जाता है. कई कारोबारी अब भी मुस्लिम अपराधियों और कर्फ्यू के लिए उस दौरा का जिक्र करते हैं. कांग्रेस की एक बड़ी कोशिश गुजरातियों के दिमाग से उस दौर की दर्दनाक यादें मिटाना है. यह उस दौर का दर्द ही है कि आज भी गुजरात की ज्यादातर हिंदू आबादी खुलकर हिदूत्व के मुद्दे पर वोट डालती है.
कांग्रेस पर होने लगा भरोसा!
कांग्रेस को लेकर गुजरातियों के मन में जो नफरत 1985 से पल रही है, अब शायद उसका असर घटा है. कम से कम 80 का आंकड़ा तो यही कहता है. इससे पहले 2012 में कांग्रेस को 61, 2007 में 59 और 2002 में 51 सीटों से ही संतोष करना पड़ा था.
हालांकि कई लोग कांग्रेस की जीत को पाटीदार आंदोलन का नतीजा मान सकते हैं. लेकिन गुजरात के तीन युवा लड़ाकों को जोड़ने की रणनीति भी तो राजनीति के दायरे में ही आती है. अगर हार्दिक के पटेल आंदोलन की पकड़ है तो कोई भी राजनीतिक पार्टी उससे फायदा लेने में गुरेज नहीं करेगा. राहुल गांधी अगर इन तीनों को जोड़ने में कामयाब हुए तो यह उनकी राजनीतिक सूझबूझ रही. यही बात कांग्रेस में शामिल हो चुके अल्पेश ठाकोर और कांग्रेस की सबसे सुरक्षित सीट वडगांव से निर्दलीय चुनाव लड़ने वाले जिग्नेश मेवाणी पर भी सटीक साबित होता है.
अहमदाबाद के बापू नगर में रहने वाले यूसुफ खान ऑटो चलाते हैं. गुजरात चुनाव के नतीजों पर युसूफ बताते हैं, ‘2014 के लोकसभा में मैंने बीजेपी को वोट दिया था. लेकिन इस बार मैंने ऐसा नहीं किया.’ उनका कहना है कि अगर हम सबने वोट नहीं किया होता को 2014 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी 26 सीटें कैसे हासिल कर पाती.
बदलना होगा नजरिया
राहुल गांधी को लेकर आम तौर पर बीजेपी के नेताओं की यह धारणा होती है कि उन्हें भारतीय राजनीति की समझ नहीं है. लेकिन इस बार यह कहना मुश्किल होगा. राहुल गांधी धीरे धीरे राजनीति की ए बी सी डी कंठस्थ कर रहे हैं. इसी बात का सबूत है कि उन्होंने गुजरात के मंदिरों में हाथ जोड़े. जनेऊ भी पहना. दलित और मुसलमानों को जोड़ने की कोशिश भी की. यानी वो एक भी ऐसा सिर छोड़ना नहीं चाहते जिससे बात हाथ से निकल जाए.
इस बार के विधानसभा चुनावों की तुलना अगर हम 2014 के लोकसभा चुनावों से करें तो गुजरात में कांग्रेस की खराब स्थिति का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है. उस वक्त गुजरात के 26 सीटों में से 26 बीजेपी के ही खाते गई थी. तब कांग्रेस अपना खाता भी नहीं खोल पाई थी. बीजेपी मे 59 फीसदी वोट शेयर के साथ ये सीटें हासिल की थीं. कांग्रेस का वोट शेयर सिर्फ 33 फीसदी था. यानी बीजेपी से 26 फीसदी कम. इस बार कम से कम वैसी नौबत नहीं है.
विधानसभा चुनावों में भले ही कांग्रेस विनिंग नंबर हासिल न कर पाई हो, लेकिन 2014 के लोकसभा चुनावों के मुकाबले यह कहना गलत नहीं होगा कि कांग्रेस अपनी इज्जत बचाने में कामयाब जरूर हो गई है. ऐसे में कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर राहुल की चुनौती अब गुजरात में अपनी पार्टी को मौजूं बनाए रखने के लिए. अगर वो ऐसा कर पाते हैं तो कहना होगा कि हार कर जीतने वाले को बाजीगर कहते हैं.
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