दो राज्यों में मिली हार के बाद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा कि 'वो संतुष्ट हैं और निराश नहीं'. दरअसल ये बतौर कांग्रेस अध्यक्ष ही राहुल गांधी का नपातुला बयान है जिसका संदेश साफ तौर पर कांग्रेसी कार्यकर्ताओं के लिए है. राहुल ये जानते हैं कि उन्होंने गुजरात में कांग्रेस के प्रदर्शन को सुधारा है और बीजेपी को कांटे की टक्कर दी है. लेकिन गुजरात की कहानी कुछ और भी हो सकती थी अगर टीम राहुल जोश के साथ होश का भी ख्याल रखती.
हॉकी और फुटबॉल के खेल की रणनीति में एक बात समान होती है. जो सबसे बड़ा खिलाड़ी होता है उसे ‘शैडो’ कर पूरे मैच में बांध कर रखा जाता है ताकि वो गोल नहीं कर सके. गुजरात चुनाव में भी यही देखने को मिला. कांग्रेस ने पूरे चुनाव में सिर्फ पीएम मोदी को ही टारगेट किया और उसकी यही रणनीति सेल्फ गोल में बदल गई. मोदी जानते थे कि उन्हें ही विरोधियों के सारे तीर झेलने हैं और वो तीर झेलते रहे जबकि उनके बाकी खिलाड़ी गोल करते रहे. अपने खिलाड़ियों के सेल्फ गोल से कांग्रेस के नए अध्यक्ष राहुल गांधी की ताजपोशी के साथ पहली जीत की ट्रॉफी का सपना टूटकर बिखर गया. कांग्रेस को 22 साल बाद बड़ी उम्मीद थी कि इस बार सारे समीकरण उसके हिसाब से फिट बैठ रहे हैं.
राहुल ने पूरा जोर भी लगाया और कोई मौका नहीं छोड़ा कांग्रेस की पुरानी छवि बदलने में. 27 मंदिरों की उनकी परिक्रमा सॉफ्ट हिंदुत्व की नुमाइंदगी थी. हार्दिक-जिग्नेश-अल्पेश उनकी हमलावर सेना के अलग अलग मोर्चों के सेनापति थे. इसके बावजूद राहुल गुजरात के नतीजों को अपनी किस्मत की तरह नहीं बदल सके. गुजरात और हिमाचल प्रदेश की दो नई हार उनके खाते में दर्ज हो गई. राहुल के अध्यक्षीय सफर का आगाज दो राज्यों में हार के साथ हुआ. एक जगह जीत की उम्मीद के बावजूद हारे तो दूसरा राज्य हिमाचल प्रदेश भी सत्ता से कांग्रेस मुक्त हो गया.
इस हार ने नए अध्यक्ष बनने की खुशी से जोश में लबरेज कांग्रेस पर ठंडा पानी डाल दिया. हालांकि कांग्रेस अब ये कह कर खुद को दिलासा दे सकती है कि हारे लेकिन शान से. सिर्फ ग्यारह कदम दूर जीत रह गई. लेकिन मंजिल से कुछ कदमों की दूरी राहुल के लिए निजी तौर पर बहुत मायने रखती है. अध्यक्ष बनने से पहले उन्होंने कांग्रेस के प्रचार की कमान जिस अंदाज में संभाली थी उसने सभी का ध्यान खींचा था. उस पर सोने पे सुहागा अहमद पटेल की राज्यसभा चुनाव में जीत थी जिसने कांग्रेस में संजीवनी का काम किया था. लेकिन लगातार हार से अब भीतर ही भीतर राहुल के नेतृत्व पर सवालों की सुगबुगाहट हो सकती है. यूपीए गठबंधन में भी राहुल के नेतृत्व पर सोनिया गांधी जैसी आम राय बनने में मुश्किलें आ सकती हैं. दो दिन ही पहले आरजेडी नेता हरवंश सिंह ने कह भी दिया है कि साल 2019 के लोकसभा चुनाव में राहुल के नेतृत्व में चुनाव लड़ना अभी तय नहीं है.
बदलते हालातों में अभी राहुल के इम्तिहानों का दौर लंबा है. अभी उन्हें मध्यप्रदेश और छत्तीगढ़ में भी बीजेपी से सीधा मुकाबला करना है. अगर यहां भी कांग्रेस हारती है तो राहुल के लिए लोकसभा चुनाव में मोदी के मुकाबले पीएम पद के लिए खुद की दावेदारी पेश करना मृगतृष्णा से कम नहीं होगा.
आने वाले समय में हार के साइड इफैक्ट कई रूपों में सामने आएंगे. राहुल के नेतृत्व में मिली 29वीं हार की वजह से साल 2019 के लोकसभा चुनाव में सहयोगी दलों पर कांग्रेस अपनी शर्तें भी लागू नहीं कर सकेगी. दरअसल कांग्रेस की वर्तमान हालत के लिए सिर्फ राहुल को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है. कांग्रेस ने जहां सांगठनिक स्तर पर अपनी कमजोरियों को दूर नहीं किया वहीं उसकी रणनीतियां समय के साथ नहीं बदली. जिन पार्टियों को उसने बैसाखी की तरह इस्तेमाल किया बाद में उन्हीं पार्टियों ने अपने अपने राज्यों में कांग्रेस को कंधा देने का काम किया.
कांग्रेस ने चुनावों में एक सूत्री फॉर्मूला अपनाया. बीजेपी को सेकुलरिज्म के नाम पर सत्ता में आने से रोकने का काम किया. सेकुलरिज्म के नाम पर कांग्रेस हमेशा ही उन दलों से हाथ मिलाती आई जो बाद में अपने सूबे में कांग्रेस को ही हाशिए पर ले आए. चाहे बिहार में राष्ट्रीय जनता दल के साथ कांग्रेस का गठबंधन हो या फिर यूपी में समाजवादी पार्टी के साथ.
कांग्रेस की सबसे बड़ी कमजोरी यही रही कि मजबूत हाथ होने के बावजूद उसे क्षेत्रीय दलों की बैसाखियों की जरूरत पड़ती रही. गुजरात चुनाव में भी कांग्रेस ने हार्दिक-जिग्नेश-अल्पेश का बैसाखी की तरह इस्तेमाल किया. तीन बैसाखियों की वजह से ही चाल लड़खड़ाई और गुजरात की जनता विकास, नोटबंदी और जीएसटी के मुद्दों से उलट कांग्रेस के जातिगत समीकरणों से सतर्क होने में जुट गई. गुजरात से सत्ता के करीब पहुंच कर भी खाली ‘हाथ’ वापसी से राहुल के लिए सबक ये है कि वो मुद्दों को पटरी से उतरने न दें और साथ ही बीजेपी को तोहफे के रूप में मुद्दे सौंपे भी नहीं. पहले यूपी तो अब गुजरात में कांग्रेस ने यही किया. बहरहाल हर बार हार का ठीकरा जब राहुल के सिर ही फोड़ा जाता है तो इस बार गुजरात में कांग्रेस के सुधरते प्रदर्शन के लिए राहुल को मैन ऑफ द मैच भी दिया जा सकता है. अगर राजनीति एक खेल है तो खेल भावना भी यही कहती है.
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