इस बार के गुजरात चुनाव की सबसे खास बात ये रही कि इसमें हिंदुत्व का मुद्दा बहुत कम उछाला गया. भले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव में कांग्रेस और पाकिस्तान के बीच गठजोड़ का आरोप लगाया. मगर, जमीनी स्तर पर इस बार गुजरात में सांप्रदायिक खेमेबंदी कम ही देखने को मिली. मोदी और बीजेपी की तमाम कोशिशों के बावजूद इस बार के गुजरात चुनाव में न तो हिंदुत्व मुख्य मुद्दा बना और न ही विकास.
गुजरात में इस बार के चुनाव के अलग होने की कई वजहें रहीं. पहली बात तो ये कि मोदी के मुख्यमंत्री से प्रधानमंत्री बनने की वजह से गुजरात में 2002 के दंगों का जिक्र नहीं हुआ. जब तक मोदी मुख्यमंत्री थे, कांग्रेस और मीडिया गुजरात में 2002 के दंगों का जोर-शोर से जिक्र करते रहे थे. उसी चश्मे से गुजरात को देखा जाता रहा. मोदी ने खुद बड़ी मेहनत से अपनी इमेज बदलने की कोशिश की. उन्होंने दंगे के दाग से अपना दामन बचाने की पुरजोर कोशिश में खुद को विकास का नया मॉडल लाने वाले नेता के तौर पर पेश किया. लेकिन दंगों और फर्जी एनकाउंटर के मामलों की वजह से मोदी की हिंदूवादी नेता की छवि ही ज्यादा हावी रही. इसीलिए चुनाव में भी हिंदुत्व बड़ा मुद्दा बनता रहा.
आज भी मोदी गुजरात के सबसे लोकप्रिय नेता हैं. लेकिन आज उनका किरदार गुजरात में ध्रुवीकरण की वजह नहीं बनता. वो अब प्रधानमंत्री हैं, जिनसे जनता काफ़ी उम्मीदें लगाए हुए है.
ये साल 2017 है 2002 नहीं
इस बार चुनावी माहौल में दूसरे मुद्दे हावी रहे. अगर 2002 के चुनाव में दंगों का मुद्दा हावी रहा था, तो 2007 में विकास को जोर-शोर से उठाया गया. 2012 में मोदी को प्रधानमंत्री बनाने की बात जोर-शोर से उठी. लेकिन 2017 के चुनाव में एजेंडा बीजेपी ने नहीं तय किया. बीजेपी अगर आराम से चुनाव जीत भी लेती है, तो भी चुनावी चर्चा में उसकी हार हो चुकी थी. पाटीदार आंदोलन, खेती का संकट, जीएसटी से नाराजगी जैसे मुद्दे इस बार हावी रहे. इस बार गुजरात में जात भी एक मुद्दा बनी, भले ही दूसरे राज्यों के मुकाबले ये कमजोर मुद्दा रहा. हां, हिंदुत्व के नाम पर एकजुटता की बात नहीं हुई.
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अर्थव्यवस्था की हालत कमजोर है. किसानों को शिकायत है कि उनकी फसलों की सही कीमत नहीं मिल रही. वहीं, कारोबारी जीएसटी के सदमे से जूझ रहे हैं. इसी वजह से बीजेपी विकास के मुद्दे को जोर-शोर से नहीं भुना पाई. नाराजगी के बावजूद गुजरात के शहरी और ग्रामीण इलाकों में बहुत से लोग ऐसे हैं, जो ये मानते हैं कि बीजेपी और मोदी ने पिछले दो दशकों में गुजरात को तरक्की को नई रफ्तार दी है. हालांकि, बीजेपी इसे वोटरों के बीच चर्चा का मुद्दा नहीं बना सकी.
हिंदुत्व के मुद्दे पर सबसे ज्यादा चोट पाटीदारों के आंदोलन ने की. इसके चलते हिंदुत्व के नाम पर एकजुटता में दरार साफ दिखी. हार्दिक पटेल की अगुवाई में पाटीदारों ने हिंदुत्व के मुद्दे को गहरी चोट पहुंचाई है. लोगों ने हिंदुत्व के बजाय आरक्षण पर ज्यादा चर्चा की. ज्यादातर वोटर ये कहते रहे कि बीजेपी जीत जाएगी, लेकिन पाटीदार आंदोलन की वजह से कांग्रेस उसे कड़ी टक्कर देने में कामयाब रही है.
पाटीदार युवाओं के एक तबके की नाराजगी से हिंदुत्ववादियों को कड़ी चोट पहुंची है. असल में गुजरात में पाटीदार ही हिंदुत्व की राजनीति के अगुवा रहे हैं. अगर बीजेपी के हाथ से पटेलों का समर्थन निकलता है, तो इससे आगे चलकर हिंदुत्व के नाम पर एकजुटता की कोशिशों को भी झटका लगना तय है.
ध्रुवीकरण का नया मोर्चा
इस बार गुजरात में कांग्रेस ने भी हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण का कार्ड बड़ी सफाई से खेला. पार्टी ने इस बार पांच मुसलमानों को उम्मीदवार बनाया था. जबकि पिछली बार कांग्रेस ने 6 मुस्लिम प्रत्याशी उतारे थे. कांग्रेस ने इस बात का जिक्र चुनावी चर्चा में एक बार भी नहीं किया. राहुल गांधी ने मंदिरों के दौरे करके कांग्रेस की हिंदू विरोधी और मुस्लिमपरस्त पार्टी होने की इमेज तोड़ने की भी कोशिश की. कांग्रेस के सूत्र बताते हैं कि राहुल गांधी को दरगाहों पर जाने की सलाह भी दी गई थी. मगर पार्टी ने ऐसे मशविरों की अनदेखी कर दी.
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कांग्रेस की हिंदुओं को लुभाने की कोशिश में एक बड़ा कदम ये था कि अहमद पटेल को गुजरात में प्रचार से रोका गया. टिकट बंटवारे और चुनावी रणनीति बनाने में भी अहमद पटेल का रोल बहुत कम रहा. राहुल गांधी ने खुद पूरे प्रचार की कमान संभाले रखी. इसी वजह से इस बार के चुनाव में नरेंद्र मोदी बनाम अहमद मियां का मुकाबला भी नहीं हुआ. राहुल गांधी भी नए तेवर में दिखे.
बीजेपी ने अहमद पटेल के खत्म होते करियर को जिंदा करने की बहुत कोशिश की. अहमद पटेल का एक फर्जी पोस्टर लगा. जिसमें राहुल गांधी को ये कहते दिखाया गया कि कांग्रेस जीती तो अहमद पटेल राज्य के मुख्यमंत्री होंगे. ये पोस्टर पहले दौर की वोटिंग से कुछ पहले ही रहस्यमयी तरीके से सामने आया था. अच्छी बात ये रही कि दिल्ली और अहमदाबाद के तरक्कीपसंद बुद्धिजीवियों और वामपंथी स्वयंसेवी संगठनों के पास भी जुहापुरा के सिवा दूसरे मुद्दे भी थे. इसी वजह से जिग्नेश मेवानी अपने इलाके में कुछ हिंदू मतदाताओं को बीजेपी से दूर कर सके.
हिंदुत्व का मुद्दा कमजोर हुआ है मगर खत्म नहीं
ऐसा नहीं है कि गुजरात रातों-रात सेक्युलर हो गया है. बहुत से लोगों को अभी भी ये डर है कि कांग्रेस सत्ता में आई तो मुस्लिम ताकतवर हो जाएंगे. इसीलिए वो कांग्रेस को वोट देने से डरते रहे. राहुल गांधी के मंदिरों के फेरे लगाने से ऐसे कई लोगों की आशंकाएं दूर तो हुईं. पर, हालात और बेहतर होते अगर कांग्रेस किसी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाती.
आज भी गुजरात में हिंदूवादी पहचान की अच्छी खासी अहमियत है. शहरी वोटरों के बीच तो ये बड़ा मुद्दा है. लेकिन इस बार के चुनाव में हिंदुत्व का मुद्दा उछालने पर वोट मिलने की गुंजाइश कम होती दिखी. हां, इसमें विकास को जोड़ दें, तो शायद कुछ वोट मिल जाते.
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इसी से साफ है कि क्यों प्रधानमंत्री मोदी ने कांग्रेस पर पाकिस्तान से सांठ-गांठ करने का आरोप लगाया. क्यों राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने को मोदी ने औरंगजेब राज बताया. क्यों प्रधानमंत्री ने कश्मीर के एक अदना से कांग्रेस नेता के हवाले से मुस्लिमों को चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश की.
इसका असर क्या होगा?
किसी भी चुनाव का अंतिम सत्य होता है उसका विजेता. अगर बीजेपी का प्रदर्शन खराब रहता है, तो हिंदुत्व कार्ड के नाकाम रहने को हवा दी जाएगी. लेफ्ट-लिबरल जमात शोर मचाएगी कि गुजरात में सेक्यूलरिज्म की जीत हुई है. ये सेक्यूलरिज्म नहीं है, साहब. असल में दूसरे मुद्दों ने हिंदुत्व को फिलवक्त के लिए किनारे लगा दिया है.
वही, अगर बीजेपी आराम से चुनाव जीत जाती है, जिसकी पूरी संभावना है, तो ये कहा जाएगा कि प्रधानमंत्री का पाकिस्तान और मुसलमानों को मुद्दा बनाना बीजेपी के लिए कारगर साबित हुआ.
जबकि जमीनी सच्चाई ये है कि वोटर इस बारे में जरा भी चर्चा नही करता दिखा. लोग पाटीदारों, विकास, जीएसटी, सिंचाई, अर्थव्यवस्था और पढ़ाई के मुद्दों पर चर्चा करते दिखे. अगर बीजेपी जीतती है, तो ये ओबीसी मतदाताओं की खेमेबंदी की वजह से होगा. आदिवासियों की वजह से होगा. मोदी की निजी लोकप्रियता भी बड़ी वजह होगी. ये मानना चाहिए कि गुजरातियों ने बीजेपी को इसलिए वोट दिया क्योंकि वो एक गुजराती को शर्मसार नही करना चाहते थे. या तो एक वजह ये भी हो सकती है कि बीजेपी के पास कार्यकर्ताओं की जो मशीनरी है, वो कांग्रेस की जमीनी पहुंच से कहीं ज्यादा ताकतवर है. बीजेपी की ये जीत हिंदुत्व की वजह से नहीं होगी.
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