विधानसभाओं चुनावों का अर्थव्यवस्था से क्या रिश्ता है, यह समझ में आया 18 दिसंबर, 2017 को सुबह मतगणना के वक्त, जब कुछ समय के लिए कांग्रेस हिमाचल और गुजरात में बीजेपी पर बढ़त बनाती हुई दिखी. मुंबई शेयर बाजार का सूचकांक 500 बिंदुओं से ज्यादा गिर गया. बाद में जब कांग्रेस की बढ़त खत्म हुई, तब सेंसेक्स ने फिर वापस चढ़ना शुरू किया.
गुजरात-हिमाचल के परिणाम निकल गए हैं पर इनसे निकले सवालों पर गहरा विमर्श जरूरी है. वो सवाल आने वाले वक्त में आम बजट और 2019 के लोकसभा चुनावों की दशा और दिशा तय करेंगे.
गुजरात के चुनावी आंकड़े बताते हैं कि बीजेपी ने 99 सीटें जीतकर बहुमत तो कायम रखा. पर इसके आगे बहुत पर और किंतु हैं. गुजरात की 73 शहरी विधानसभा सीटों में से बीजेपी की मिलीं 56 और ग्रामीण 109 सीटों में से बीजेपी को मिली 43 यानी शहरी इलाकों में बीजेपी की सफलता का स्ट्राइक रेट 75 फीसदी से ऊपर है और ग्रामीण क्षेत्रों में सफलता का स्ट्राइक रेट 40 फीसदी पर भी ना पहुंच पाया.
ये आंकड़ा बहुत कुछ कहता है. मामला खालिस जाति का नहीं है, अर्थशास्त्र का भी है. पटेल आंदोलन के गढ़ रहे सूरत में बीजेपी ने जीत का झंडा फहरा दिया है पर ग्रामीण पटेल कांग्रेस के साथ चले गये हैं. संपन्न पटेल बीजेपी के साथ गए हैं. संपन्न लोग बीजेपी के साथ गए हैं, गरीब जिनमें ग्रामीण बैकग्राउंड के लोग बहुत हैं, कांग्रेस के साथ गए हैं.
राहुल गांधी का नेरेटिव- सूट बूट की सरकार, कमोवेश यही बात बर्षों से स्थापित करने की कोशिश कर रहा है. यह नैरेटिव 2018 मई के कर्नाटक विधानसभा चुनावों में, 2018 के अंत में होने वाले राजस्थान और मध्य प्रदेश चुनावों में और मजबूत होकर उभरे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए.
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गांव बीजेपी से नाराज हैं, तो इसलिए नहीं कि उसे राहुल गांधी में बहुत काबिलियत दिख रही है, बल्कि इसलिए बीजेपी केंद्र में तीन साल से ज्यादा की सरकार के बावजूद किसानों की समस्याएं के ठोस निदान नहीं पेश कर पाई. मध्य प्रदेश में हिंसक किसान आंदोलन ज्यादा पुराने नहीं हैं. इन चुनावों ने बहुत कुछ ऐसे संकेत दिए हैं, जिन्हें ग्रहण करना सबके लिए फायदेमंद होगा.
सेंसेक्स पिछले एक साल में 25 फीसदी से ज्यादा बढ़ गया है. एक साल में 25 फीसदी आय भारत के सफलतम किसान की भी नहीं बढ़ी है. सेंसेक्स भी भारतीय है और किसान भी भारतीय हैं. सेंसेक्स से लाभान्वित होनेवालों की संख्या खेती-किसानी से प्रभावित होनेवालों से बहुत कम है. इसलिए ऐसा भी देखने में आ सकता है कि सेंसेक्स से लाभान्वित लोग चुनावी परिणामों से अचंभे में आ जाएं कि जब सब कुछ इतना शाइनिंग इंडिया है, तो फिर चुनाव वह सरकार क्यों हार रही है, जिसने इंडिया के एक हिस्से को शाइनिंग बना दिया है.
अगस्त 2017 में आए आर्थिक सर्वेक्षण खंड दो की एक तालिका बताती है कि खेती की विकास दर 2012-13 में 1.5 फीसदी, 2013-14 में 5.6 फीसदी, 2014-15 में माइनस दशमलव दो फीसदी, 2015-16 में दशमलव 7 फीसदी और 2016-17 में 4.9 फीसदी (अनुमानित) रही. खेती की हालत अच्छी नहीं है, यह सिर्फ तालिका से ही साबित नहीं होता. गिरावट से लेकर अधिकतम 5 फीसदी विकास का आंकड़ा रहा है खेती का.
खेती अच्छी नहीं होती है, उससे अच्छी कमाई नहीं होती, तो क्या होता है? तो यह होता है कि किसानों के कर्ज की माफी का मुद्दा महत्वपूर्ण राजनीतिक मुद्दा बन जाता है. किसानों की कर्ज के माफी रकम का का मुद्दा यूपी विधानसभा चुनावों का बड़ा मुद्दा था. किसानों की कर्ज माफी की रकम भी बजट से आती है. यानी अगर किसान बदहाल रहेगा, तो कर्ज माफी देर-सबेर करनी पड़ेगी. यह राजनीतिक मुद्दा ही बनना है, ऐसा मुद्दा, जिसके विरोध में कोई भी राजनीतिक पार्टी दिखना नहीं चाहेगी.
सेंसेक्स 25 फीसदी से ज्यादा उछल जाए एक साल में और खेती में 5 फीसदी का भी उछाल ना हो, तो रिजल्ट गुजरात जैसे आते हैं, कपास के भावों के मारे किसान कांग्रेस में चले जाते हैं और सूरत के संपन्न कारोबारी जीएसटी की समस्याओं के बावजूद बीजेपी को ही वोट दे देते हैं. यानी अर्थव्यवस्था में एक किस्म की फांक दिखाई पड़ने लग जाती है.
आगामी बजट से उम्मीदें
हाल में केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने संसद से 66,113 करोड़ रुपए और अतिरिक्त खर्च करने की मंजूरी मांगी, इस रकम का बड़ा हिस्सा राष्ट्रीय रोजगार योजनाओं में खर्च होना है. रोजगार खेती से जुड़े मसलों पर कोई ढीला-ढाला रुख सरकार अफोर्ड (वहन) नहीं कर सकती.
इसलिए बहुत संभव है कि रोजगार गारंटी स्कीम में खर्च बढ़ाने के साथ खेती किसानी पर आगामी बजट कुछ ज्यादा प्रावधान करे. 2018-19 का बजट लोकसभा चुनावों से करीब डेढ़ साल पहले का बजट होगा. इसलिए इस बजट में बहुत कड़े प्रावधानों की उम्मीद नहीं है और गुजरात के चुनावों के परिणामों ने कड़ाई की बची-खुची उम्मीदें खत्म कर दी हैं. जीएसटी के कार्यान्वन और नोटबंदी से उपजे संकट के बाद अब आर्थिक प्रयोगों का दायरा बहुत सीमित हो लिया है.
ग्रामीण राजनीतिक संकट और आर्थिक संकट
ग्रामीण संकट, ग्रामीण आर्थिक संकट अब एक ऐसी ठोस सच्चाई है, जिससे केंद्र सरकार और राज्य सरकारें लगातार दो-चार हो रही हैं. इसके हल ढूंढना बहुत जरूरी है. आर्थिक संकट कहीं न कहीं राजनीतिक संकट के तौर पर भी प्रतिफलित होता है. बेरोजगार को यह समझाना बहुत आसान होता है कि सरकार इसके लिए जिम्मेदार है.
2004 में कांग्रेस का एक चुनावी इश्तिहार यह बताता था कि नौजवान किस तरह से बेरोजगार घूम रहे हैं. कांग्रेस की अपनी 10 साल की विकास यात्रा रोजगार के मसले पर बहुत निराशाजनक रही है, इसका मुद्दा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लगातार अपने चुनावी भाषणों में बनाया है. अब राहुल गांधी को बेरोजगारी और किसानों की समस्याओं में अपनी राजनीतिक कथा के कथानक दिखाई पड़ रहे हैं.
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गुजरात के चुनाव बेरोजगारी और किसानों की समस्याओं को सफल कथानक साबित कर रहे हैं. पटेल आंदोलन कहीं ना कहीं रोजगार अवसरों की कमी से उपजा है और गुजरात के ग्रामीण इलाकों में बीजेपी अपनी विकास कथाओं की वैसी मार्केटिंग नहीं कर पा रही है, जैसी उछलते सेंसेक्स के जरिए हो पाती है. चूंकि देश की 65 फीसदी जनता गांवों से जुड़ी है, इसलिए राजनीतिक तौर पर उन्हे अब अर्थव्यवस्था के केंद्र में रखना राजनीतिक मजबूरी भी है. इसलिए आगामी बजट बहुत हद किसान-रोजगार केंद्रित होने की उम्मीद है.
कुछ अनुत्पादक योजनाओं पर भी खर्च संभव है. ऐसी सूरत में अर्थव्यवस्था को कुछ चुनौतियां पेश आ सकती हैं. हाल के आंकड़े बताते हैं कि मार्च 2018 तक के लिए जो राजकोषीय घाटा प्रस्तावित था, उसका 96.1 फीसदी सितंबर के अंत तक ही सामने आ गया था, गत वर्ष सितंबर 2017 तक प्रस्तावित राजकोषीय घाटे का कुल 76.4 फीसदी ही सामने आया था. यानी इस बार स्थितियां ज्यादा चुनौतीपूर्ण हैं. गुजरात के चुनाव परिणाम सरकार के लिए और चुनौतियां बढ़ाने वाले हैं.
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