गुजरात चुनाव में कांग्रेस की नैया पार लगाने के लिए कमर कसे नए अध्यक्ष राहुल गांधी ने इतने अधिक मंदिरों में पूजा अर्चना की है कि अब इसका हिसाब किताब रख पाना ही टेढ़ी खीर हो गया है. पार्टी के मुताबिक प्रचार अभियान के दौरान उन्होंने कम से कम 25 मंदिरों में जाकर शंख फूंका. मंदिरों में जाने की उनकी कहानी इस साल उत्तर प्रदेश से शुरू हुई. वो दौर यूपी में चुनावों का था पर यह कहानी अब गुजरात के चुनाव दंगल तक खिंच गई है.
कुछ लोग मानते हैं कि कांग्रेस पार्टी नरम हिंदुत्व का कार्ड खेल रही है. वित्त मंत्री अरूण जेटली ने सूरत में एक प्रेस कांफ्रेंस में कहा, ‘बीजेपी को हमेशा हिंदुत्व की तरफ झुकाव वाली पार्टी के रूप में देखा जाता है, तो ऐसी सूरत में जब असल मौजूद है तो नकल को कौन पूछेगा?. पर बात नरम या कट्टर हिंदुत्व की नहीं है. राहुल गांधी वही कर रहे हैं जो एक आम हिंदू करता है.
बेशक इसका मकसद सियासी और चुनावी है. राहुल गांधी वोटरों को इशारा कर रहे हैं कि वो उतने ही हिंदू हैं, जितना कोई दूसरा हो सकता है. वे साथ ही साथ ये भी जताते चल रहे हैं कि उनकी पार्टी हिंदू विश्वासों के प्रति उदार रवैया रखती है. उनके इस कदम को नरम हिंदुत्व कहना मुनासिब नहीं. ऐसा तब होता जब कांग्रेस पार्टी थोड़ा बहुत हिंदुत्व वाली चीजों को अपनाती.
राहुल गांधी का मंदिरों में जाकर पूजा करना नरम हिंदुत्व नहीं है
नरम हिंदुत्व शब्द का अक्स राजीव गांधी के उस आदेश में देखा जा सकता है, जब 1986 में उन्होंने बाबरी मस्जिद के भीतर राम मंदिर के दरवाजे खोलने को कहा और उसके भीतर पूजा की अनुमति दी. तब राजनीतिक गुणा-गणित यह था कि उभर रहे हिंदुत्व का तुष्टिकरण किया जाए, लेकिन हम लोग जानते हैं कि बाद में ऊंट किस करवट बैठा. इस कदम ने हिंदुत्व को कमजोर नहीं किया बल्कि ताकतवर बना दिया.
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इसी तरह दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद तोड़ने को रोकने में नाकाम साबित हो चुकी नरसिम्हा राव के नेतृत्व वाली कांग्रेस पर नरम हिंदुत्व का पक्ष लेने का इल्जाम लगा. इससे यूपी और बिहार में मुसलमान वोट क्षेत्रीय पार्टियों में बंट गया. पूजा करना कोई नरम हिंदुत्व नहीं है या किसी तरह का हिंदुत्व नहीं है. मंदिर जाने को हिंदुत्व कहना केवल यही बताता है कि हिंदुत्व के मायने ठीक से नहीं समझे गए हैं.
हिंदुत्व शब्द की ईजाद विनायक दामोदर सावरकर ने की थी. वो खुद नास्तिक थे और मंदिरों में नहीं जाते थे. हिंदुत्व एक राजनीतिक विचारधारा है, जो हिंदुओं को राजनीतिक तौर पर ‘एक’ होने और मुसलमान व ईसाइयों पर हिंदुओं की प्रभुता होने की बात कहती है. साथ ही वह हिंदुस्तान की सरजमीं पर उपजे धर्मों सिख, बौद्ध और जैन पर भी रौब गांठती है.
अपने चुनाव प्रचार के आखिरी पड़ाव में राहुल गांधी जिस मंदिर की डयोढ़ी पर पहुंचे वहां उनकी दादी इंदिरा गांधी भी जा चुकी थीं. पर उस समय किसी ने इसे नरम हिंदुत्व के चश्मे से नहीं देखा. मजेदार बात यह है कि राहुल गांधी के मंदिरों में जाने से सेक्युलर उदारवादियों की पेशानी पर बल पड़ने चाहिए थे पर ज्यादा खलबली हिंदुत्ववादी खेमे में है.
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इसमें वे लोग हैं जिनका वास्ता हिंदुत्व विचारधारा से है या फिर वे उसका समर्थन करते हैं. वे ही इस नरम हिंदुत्व कह रहे हैं. मंदिरों में पूजा करने को सेक्युलर हिंदू राजनीतिज्ञ हिंदुत्व की धोखाधड़ी बताते हैं. हिंदू और हिंदुत्व में अंतर करने का काम बीजेपी-आरएसएस की उस कोशिश को सींग से पकड़ना है जिसमें वे इसे ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ के नाम पर छिपा लेते हैं.
मजहब में राजनीति का इस्तेमाल हमेशा गलत नहीं होता
मंदिरों में पूजा करने का काम हर सामान्य हिंदू करता है, कुछ रोज तो कोई हफ्ते में तो कोई केवल त्यौहारों के मौकों पर. यह हिंदू समुदाय का धार्मिक-सांस्कृतिक तरीका है. यह निजी या सार्वजनिक कुछ भी हो सकता है लेकिन राजनीतिक नहीं हो सकता.
कांग्रेस पार्टी और दूसरी सेक्युलर पार्टियों को हिंदुओं के चाहें कितने कम वोट मिलें, पर इनमें ऐसे वोटर भी होते हैं, जो ईश्वर की पूजा करते हैं भले ही वे एक बार करें. अगर लोगों की राजनीति करनी है तो इसके लिए अहम बात ये है कि लोगों और उनकी जिंदगी के साथ रिश्ता बनाया जाए. मिसाल के तौर पर लालू यादव की होली या फिर सुषमा स्वराज का करवा चौथ पूजन. इस तरह की धार्मिक-सांस्कृतिक अवसरों पर खुद को पेश करने की कोशिश दरअसल वोटरों को अपनी तरफ खींच कर जननेता बनने की कवायद होती है.
अब अधिकांश वोटर हिंदू हैं तो ऐसे में हिंदू सियासी लोगों के लिए ये अहम हो जाता है कि वे हिंदू सांस्कृतिक जीवन में खुले तौर पर कैमरे के सामने हिस्सा लें. राहुल को कामयाब होने के लिए मंदिरों में जाने से जरा आगे जाना होगा और ध्यान रखना होगा कि ऐसा केवल चुनावों के वक्त ही न हो. उन्हें कैमरे के सामने अपने परिवार और दोस्तों के साथ होली खेलना चाहिए, अमेठी में अपने वोटरों के साथ दीपावली मनानी चाहिए ताकि ये साबित हो सके कि अमेठी उनका भी घर है. इन कामों को टीवी, अखबारों के पहले पन्नों पर और व्हाटऐप्स ग्रुप्स में जाना चाहिए.
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जब एक वोटर आपको होली मनाते देखता है या स्थानीय मंदिरों में पूजा करते देखता है तो उसे लगता है कि आप उसमें से हो और तब वो ये भरोसा कर सकता है कि आप उसकी जिंदगी और दिक्कतों को समझ सकते हैं. पश्चिम उदारवादी जो आम आदमी को नहीं समझते, उनके नक्शेकदम पर चलने से बचते हुए धर्म से उलझना मुनासिब नहीं है.
मजहब में राजनीति का इस्तेमाल हमेशा गलत नहीं होता. जैसे सभी हिंदू ये नहीं सोचते कि मुसलमानों के साथ जबरदस्ती करते हुए उनकी ‘घर वापसी’ करवाते हुए हिंदू बना दिया जाए या फिर गोमांस खाने का झूठा आरोप लगा कर हत्या कर दी जाए. हिंदू होने की हर बात, हिन्दुत्व नहीं है.
राहुल गांधी का मंदिर जाना सांस्कृतिक तानेबाने की ताकत का मुजाहिरा है. अगर वो इस रास्ते पर चलते हैं तो वो हिंदुत्व के नाम पर होने वाले तमाशे को खत्म कर सकते हैं. जितने अधिक लोग राहुल गांधी को मंदिर में जाते हुए देखेंगे, उतने अधिक इसे हिंदुत्व के माध्यम से देखा जाएगा और तब महसूस होगा कि हिंदुत्व, मुसलमानों के संदर्भ में कुछ अधिक है बजाए हिंदुओं के.
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