गुजरात के तीन बड़े नेताओं ने विश्व स्तर पर अपनी पहचान बनाई है. इसमें पहला नाम राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का है, इसके बाद आजाद भारत के पहले उप-प्रधानमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल और भारत के पहले गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई का नाम शामिल है. यह तीनों नेता गुजरातियों के भीतर गुजराती अस्मिता के भी प्रतीक माने जाते हैं. अब चुनाव पास हैं और तीनों नेता अलग-अलग तरीके से याद भी किए जा रहे हैं.
राज्य में सत्तारूढ़ बीजेपी के लिए तीनों ही नेता अलग-अलग तरीके से खास हैं. महात्मा गांधी का नाम चाहते हुए भी बीजेपी और संघ ज्यादा नहीं ले सकते, जबकि इससे अलग सरदार पटेल को इससे पहले भी कई बार पीएम मोदी चुनाव प्रचार में आगे कर चुके हैं. इस बार जो नया नाम चुनाव प्रचार में बीजेपी और पीएम ले रहे हैं वह है मोरारजी देसाई का.
28 नवंबर को अपने भाषण में कांग्रेस पर हमला बोलते हुए पीएम मोदी ने आजाद भारत के पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री को याद किया. मोदी ने कहा कि इंदिरा गांधी की सरकार ने तत्कालीन वित्त मंत्री मोरारजी देसाई की बर्खास्तगी के मामले पर पर्दा डालने के लिए बैंकों के राष्ट्रीयकरण का ड्रामा रचा था.
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पीएम यहीं नहीं रुके आगे भी उन्होंने कांग्रेस को आईना दिखाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. मोदी ने कहा 'मोरारजी देसाई, सूरत के रहने वाले गुजराती को इंदिरा गांधी ने रातों-रात वित्त मंत्री के पद से बर्खास्त कर दिया. बर्खास्तगी के बाद देसाई ने कहा था कि उन्हें सब्जी की तरह फेंक दिया गया.'
RSS से दूर ही रहते थे मोरारजी देसाई
प्रधानमंत्री मोदी के इस भाषण के बाद एक बार फिर गुजराती और मोरारजी देसाई के नाम की भी चर्चा तेज हो गई है. एक तरफ ऐसा कहा जाता है कि मोरारजी देसाई राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के विरोधियों में से एक थे. जनसंघ के समर्थन से 1977 में प्रधानमंत्री बनने के बाद भी मोरारजी देसाई अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के संघ प्रेम के खिलाफ ही थे.
एक समय तो ऐसा भी आया जब मन में प्रधानमंत्री का सपना पाले बैठे चौधरी चरण सिंह, राजनारायण और मधुलिमय ने एक सुर में दोहरी सदस्यता के खिलाफ आवाज उठा दी. इन नेताओं का कहना था कि जनता पार्टी के झंडे तले चुनाव लड़ने के बावजूद आरएसएस जैसे गैर राजनीतिक संगठन से क्यों नाता रखा जाए? मतलब साफ था कि अटल बिहारी वाजपेयी और आडवाणी संघ से अपनी दूरी बनाएं.
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खैर इस विरोध के पीछे की मुख्य वजह चौधरी चरण सिंह के प्रधानमंत्री बनने की मंशा भी थी. जो बाद में खुलकर सामने भी आई. इसके बाद जनता पार्टी में विरोध का सिलसिला तेज हो गया. दोहरी सदस्यता का विरोध महज एक बहाना था. जब आखिरकार कोई विरोध काम नहीं आया तो चरण सिंह खेमा जनता पार्टी से अलग हो गया और करीब ढाई साल में ही जनता पार्टी की सरकार गिर गई और मजबूरन मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री पद छोड़ना पड़ा.
चरण सिंह के प्रधानमंत्री बनने की इच्छा का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि जब चरण सिंह मोरारजी देसाई की सरकार गिरने के बाद प्रधानमंत्री बने तो इंडियन एक्सप्रेस ने यह कहते हुए लेख छापा कि चरण सिंह की जिंदगी की सबसे बड़ी इच्छा पूरी हो गई है.
मोरारजी देसाई का गुजरात कनेक्शन
गुजरात के वलसाड में 29 फरवरी 1896 को एक ब्राह्मण परिवार में मोरारजी देसाई का जन्म हुआ था. विलसन कॉलेज से ग्रेजुएशन के बाद मोरारजी देसाई का चयन गुजरात में सिविल सर्विस में हो गया था, लेकिन अंग्रेजों की गुलामी के विरोध में उन्होंने यह नौकरी छोड़ दी और 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन में कूद पड़े. अंग्रेजो के खिलाफ आंदोलन में उन्होंने कई साल जेल में गुजारे. इसके बाद वह आजादी की मांग कर रही राष्ट्रीय कांग्रेस के गुजरात के मुख्य नेता बन गए.
आजाद भारत में मोरारजी देसाई के कद का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 1964 में पंडित नेहरू की मौत के बाद प्रधानमंत्री पद के लिए मोरारजी देसाई का नाम सबसे ज्यादा चर्चा में था. खराब सेहत और मतभेद के चलते यह पद लाल बहादुर शास्त्री को मिला. दो साल बाद सोवियत संघ में लाल बहादुर शास्त्री की मौत के बाद एक बार फिर देश के प्रधानमंत्री की खोज तेज हुई तो पहला नाम मोरारजी देसाई का ही सामने आया.
तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष के. कामराज ने इस बीच इंदिरा गांधी के नाम की पेशकश कर दी. फैसले पर पहुंचने के लिए कांग्रेस में वोटिंग हुई और इसमें इंदिरा के सामने मोरारजी हार गए. इस वोटिंग में देसाई को 169 वोट मिले जबकि दूसरी तरफ इंदिरा गांधी को 351 वोट हासिल हुए. एक बार फिर मोरारजी प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गए. दूसरी बार इंदिरा सरकार में मोरारजी देसाई वित्त मंत्री बने, लेकिन उन्हें इंदिरा सरकार में वित्त मंत्री बनना बर्दाश्त नहीं हुआ.
विवाद इतना बढ़ गया कि यह लड़ाई मोरारजी बनाम इंदिरा हो गई. एक बार पार्टी बैठक में जब एक मुख्यमंत्री ने इंदिरा गांधी से कुछ सवाल पूछा तो मोरारजी देसाई ने बीच में कहा 'मैं इस सवाल का जवाब इंदिरा गांधी से बेहतर दे सकता हूं.'
इस विवाद को देखते हुए इंदिरा गांधी ने मोरारजी देसाई से वित्त मंत्री का पद वापस लेने का फैसला कर लिया. इसके बाद गुस्साए मोरारजी ने इंदिरा गांधी को पत्र लिखकर कहा कि वह अब उप-प्रधानमंत्री के पद पर भी नहीं रहेंगे.
देश की पहले गैर-कांग्रेसी सरकार
1977 में हुए आम चुनाव में इमरजेंसी के विरोध में मतदाताओं ने जनता पार्टी को ऐतिहासिक समर्थन दिया. जनसमर्थन मिलने के बाद प्रधानमंत्री पद के लिए तीन- मोरारजी देसाई, बाबू जगजीवन राम और चौधरी चरण सिंह का नाम सामने आया. क्योंकि संसद में बाबू जगजीवन राम इमरजेंसी के समर्थन में भाषण दे चुके थे तो उनके नाम पर किसी ने भी सहमति नहीं जताई. किसान नेता चौधरी चरण सिंह के नाम पर भी कई नेताओं ने विरोध दर्ज किया. अंतत: जयप्रकाश नारायण और आचार्य कृपलानी ने 82 वर्षीय मोरारजी देसाई के नाम पर मुहर लगा दी और मोरारजी देसाई आजाद भारत के पहले गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने. मोरारजी देसाई सूरत सीट से जीते थे.
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बीजेपी को याद आए मोरारजी
एक बार फिर बीजेपी को पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई याद आए हैं. चुनावों में तो राजनीतिक पार्टियों को अलग-अलग नेता याद आते ही हैं, लेकिन बीजेपी को मोरारजी देसाई की याद आना इसलिए सोचने पर विमर्श करता है क्योंकि मोरारजी हमेशा संघ से दूरी बनाने में विश्वास करते थे. वह कभी संघ को स्वीकार नहीं कर पाए.
एक तरफ जहां गुजरात के व्यापारियों में नोटबंदी और जीएसटी जैसे मुद्दों पर मोदी सरकार के खिलाफ गुस्सा है. ऐसे में पीएम मोदी मोरारजी देसाई को याद कर सूरत के व्यापारियों को कांग्रेस का शासन याद दिलाकर बीजेपी के खिलाफ गुस्से को कम करना चाह रहे हैं. अब यह तो आने वाली 18 तारीख को ही पता चलेगा कि पीएम मोदी का यह इमोश्नल वार जीएसटी से नाराज मतदाताओं को कितना लुभाता है?
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