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ये मजबूरी का गठबंधन है, कितना टिकेगा ये वक्त बताएगा

अपने प्रमुख मुद्दों को साथ लेकर इन तीनों युवाओं का एका कैसे रह पाएगा? तीनों के न सिर्फ हित एक-दूसरे से अलग हैं बल्कि टकराते भी हैं.

Updated On: Oct 28, 2017 10:58 AM IST

Arun Tiwari Arun Tiwari
सीनियर वेब प्रॉड्यूसर, फ़र्स्टपोस्ट हिंदी

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ये मजबूरी का गठबंधन है, कितना टिकेगा ये वक्त बताएगा

नरेंद्र मोदी के पीएम बनने के बाद गुजरात पर जिन दो कारणों से नेशनल मीडिया का कैमरा जूम हुआ था वो पाटीदार आंदोलन और उना की घटनाएं हैं. गुजरात के सत्ता सिंहासन में आराम से उंघती बीजेपी की नींद पहली बार अगर किसी ने तोड़ी थी वो पाटीदार आंदोलन ही था. इस आंदोलन को लेकर गुजरात में रोष था तो दूसरे राज्यों में कौतुहल!

कौतुहल का कारण ये था गुजरात को जिन कुछ नामों की वजह से लोग जानते हैं उसमें देश के पहले गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल भी शामिल हैं. लोगों को लगा कि आखिर ऐसा कैसे हो सकता है कि किसी राज्य के सबसे मजबूत समुदाय में शुमार जाति आरक्षण के लिए आंदोलन कर रही है?

हार्दिक के खिलाफ हुए अल्पेश

लोग कौतुहल से बाहर आते कि इससे पहले एक और नेता का नाम लोगों के बीच सुनाई देने लगा. ओबीसी नेता अल्पेश ठाकोर. अल्पेश ठाकोर क्या कर रहे थे? वो पाटीदार आंदोलन के खिलाफ ओबीसी जातियों में अलख जगाने का काम कर रहे थे. वो लोगों को बता रहे थे कि आखिर कैसे पाटीदार आंदोलन के मूल में ओबीसी जातियों की हकमारी का एजेंडा है.

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अल्पेश ठाकोर ने अपनी ताकतवर पाटीदार आंदोलन का विरोध किया. हार्दिक पटेल कई फ्रंट पर लड़ रहे थे. एक तरफ बीजेपी उन पर कई तरह के आरोप लगा रही थी तो दूसरी तरफ अल्पेश ठाकोर ओबीसी जातियों को एक कर मूवमेंट के खिलाफ काम कर रहे थे.

उना आंदोलन से निकले जिग्नेश

फिर उना की घटना घटी. घटना आंदोलन में बदली. हैदराबाद यूनिवर्सिटी में आत्महत्या किए छात्र रोहित वेमुला उना आंदोलन में हीरो बने. उनकी तस्वीरों का इस्तेमाल हुआ और खूब कवरेज हुई. फर्राटेदार अंग्रेजी, हिंदी और गुजराती बोलने वाले जिग्नेश मेवाणी ने खुद को नए दलित आंदोलनकारी के रूप में पेश किया. दलितों के लिए सम्मान से जिंदगी जीने के खूब हुंकारे भरे और सामंतवाद और ब्राह्मणवाद के खिलाफ बिगुल फूंक दिया. जिग्नेश के नाम की चर्चा गुजराती कॉलेजों से जेएयू, डीयू और उत्तर भारत के दूसरे विश्वविद्यालयों में पहुंची.

chandrashekhar azad ravan-jignesh mevani

इन तीनों युवाओं ने लोगों के बीच पहचान तो स्थापित की लेकिन तब तक नजदीकियां नहीं हुईं जब तक गुजरात चुनाव नजदीक नहीं आ गया. नजदीकियां न होने के पीछे के मजबूत और वाजिब कारण भी हैं. हित प्रभावित हो सकते इसलिए नहीं मिले... अब सत्ता से चिपकी बीजेपी का गोंद छुड़ाने के लिए आपस में मिले हैं तो उसके सॉलिड लॉजिक हैं.

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पहले की मजबूरियां अब कहां गई?

सोचिए कि पाटीदार आंदोलन के खिलाफ ही ओबीसी जातियों को इकट्ठा कर रहे अल्पेश ठाकोर आखिर हार्दिक पटेल से नजदीकियां कैसे बढ़ाते? और अगर बढ़ाते तो जिन्हें मोटिवेट कर रहे थे उन्हें क्या जवाब देते? आखिर पाटीदार आंदोलन में आरक्षण की मुख्य डिमांड ही ओबीसी आरक्षण पर सीधी चोट थी. संविधान के हिसाब के अगर पटेलों का हक अगर हार्दिक दिलाने में कामयाब होते तो कुछ ओबीसी जातियां जरूर मायूस होतीं. इसलिए अल्पेश दूर रहे.

यही जिग्नेश के साथ भी था. शिवसेना जैसी कट्टर हिंदुत्व की वाहक पार्टी के सदस्य हार्दिक पटेल के साथ जिग्नेश कोई संबंध कैसे रखते? सामंतवाद और ब्राह्मणवाद के खिलाफ अपनी जंग कैसे जारी रख पाते?

अब ये युवा नेता बन चुके हैं

लेकिन अब ये परेशानियां नहीं रहीं. आंदोलनों से जुड़े युवा अब नेता बन चुके हैं. आंदोलन की अपनी मजबूरियां हैं जो राजनीति में काम नहीं करती. जैसे आंदोलन के दौरान बेहद नैतिक दिखने वाले कई क्रांतिकारी नेता बन जाने के बाद अपनी उन्हीं बातों से पलटते नजर आते हैं जिनकी बात करके उन्होंने खूब कसमें खाई थीं.

Hardik Patel, leader of India’s Patidar community, addresses during a public meeting after his return from Rajasthan’s Udaipur, in Himmatnagar

दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल भी कुछ ऐसे ही नेता हैं. अन्ना आंदोलन के समय से साथ रहे सीनियर लोगों के साथ पार्टी में क्या हाल किया गया...उसका ऑडियो यूट्यूब पर मौजूद है. इन नेताओं को अपशब्द कहते अरविंद केजरीवाल का टेप किसने नहीं सुना होगा? जबकि अन्ना आंदोलन के समय इन्हीं वरिष्ठ लोगों की वजह से शैक्षिक जगत ने अरविंद को जबरदस्त समर्थन दिया था.

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कुछ वैसा ही परिवर्तन इन तीनों युवा नेताओं के स्वभाव में हालिया साक्षात्कारों के दौरान देखा जा सकता है. अब ये तीनों मीडिया को दिए जा रहे साक्षात्कारों के दौरान उस मुद्दे की चर्चा करने से भी किनारा कर रहे हैं जिसकी वजह से ये एक-दूसरे के नजदीक नहीं आते थे. यानी वो मुद्दे जो इन नेताओं को न मिलने देने की कड़ी थे, उन्हें अब मुद्दा मानने से इंकार किया जा रहा है. कई जगह टकराते मतभेदों पर सवाल हुए तो जवाब मिला कि अभी पहला लक्ष्य बीजेपी को सत्ता से उखाड़ फेंकना है. दूसरी बातों पर बात बाद में होंगी.

सिर्फ अंदाजा ही लगाया जा सकता है कि अपने प्रमुख मुद्दों को साथ लेकर इन तीनों का एका कैसे रह पाएगा? तीनों के न सिर्फ हित एक-दूसरे से अलग हैं बल्कि टकराते भी हैं. ऐसे में ये लोगों को कैसे कन्विंस कर पाएंगे, ये देखना भी दिलचस्प होगा.

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