'पटेल में ताकत छे, पत्थर माथी पानी काढ़ी सके.' यानी पटेल में इतनी ताकत होती है कि वो पत्थर से भी पानी निकाल सकता है. गुजरात में पाटीदारों के बारे में यह कहावत बहुत पुरानी है. फिलहाल इस समुदाय के ज्यादातर लोग हीरे तराशने और उन्हें चमकाने के काम से जुड़े हुए हैं. इसके अलावा पाटीदारों के पास बड़ी तादाद में खेती बाड़ी भी है. आर्थिक रूप से मजबूत होने के बावजूद, पाटीदारों ने न तो अपने नैतिक मूल्य बदले हैं और न ही कामकाज को लेकर अपना जुनून. पाटीदार अब भी अपनी उसी परंपरा और संस्कृति को आगे बढ़ा रहे हैं, जो विरासत के रूप में पुरखों ने उन्हें सौंपी थी.
तीन दिन पहले, सूरत के उपनगर कामरेज में कांग्रेस के दफ्तर पर अज्ञात लोगों की भीड़ ने अचानक हमला बोल दिया और जमकर तोड़फोड़ की. घटना की जानकारी मिलने पर जब फ़र्स्टपोस्ट संवाददाता कांग्रेस के दफ्तर में पहुंचे, तो कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने हमले के लिए बीजेपी को जिम्मेदार ठहराने में देर नहीं लगाई. कांग्रेसियों ने आरोप लगाया कि बीजेपी के नेता असमाजिक तत्वों को पैसे देकर हिंसा करा रहे हैं. वहीं इलाके के लोगों ने हमले के पीछे पाटीदार नेता हार्दिक पटेल के समर्थकों पर शक जताया.
लोगों का कहना है कि हार्दिक आगामी गुजरात विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस के टिकट बंटवारे से नाखुश थे. कांग्रेस ने पाटीदार नेताओं को 12 से 15 सीटों पर टिकट देने का वादा किया था, लेकिन जब कांग्रेस उम्मीदवारों की लिस्ट जारी हुई, तब पाटीदारों के हिस्से में महज दो सीटें ही आईं. लिहाजा अपनी नाराजगी जाहिर करने के लिए हार्दिक ने अपने समर्थकों के जरिए कांग्रेस दफ्तर पर हमला करवा दिया. गुजरात में इन दिनों ऐसा ही माहौल है, अलग-अलग लोगों की अलग-अलग राय और अनुमान हैं.
सीटों का हेर-फेर
हार्दिक पटेल को पाटीदार आरक्षण आंदोलन का चेहरा माना जाता है. 24 साल के हार्दिक ने आगामी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को समर्थन देने का ऐलान किया है. फिलहाल वो गुजरात के पाटीदार मतदाताओं को एकजुट करने की मुहिम में जुटे हैं, ताकि कांग्रेस की जीत का रास्ता साफ हो सके. ये बड़ा दिलचस्प संयोग है कि कामरेज में कांग्रेस दफ्तर पर हमले के बाद सूरत जिले में कांग्रेस के तीन उम्मीदवारों को अपनी सीट से हाथ धोना पड़ गया. कांग्रेस ने कामरेज सीट पर पहले नीलेश खुंभानी को उम्मीदवार बनाया था, लेकिन बाद में ये सीट अशोक जरीवाला को दे दी गई. वहीं वराच्छा सीट पर पहले पप्पन तोगड़िया को टिकट मिला था, लेकिन बाद में धीरूभाई गजेरा को उम्मीदवार बना दिया. इसके अलावा चोरसिया सीट से तो धनसुख राजपूत जैसे दिग्गज नेता तक का टिकट कट गया. धनसुख की जगह अब चोरसिया सीट पर हार्दिक के करीबी योगेश पटेल को उतारा गया है.
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चुनावी रणनीति में बदलाव करके कांग्रेस ने साफ संकेत दिया है कि वो किसी भी कीमत पर हार्दिक को नाराज नहीं करना चाहती है. दरअसल गुजरात की कुल 189 विधानसभा सीटों में से 45 से लेकर 52 सीटों पर पाटीदारों का वर्चस्व है.
कांग्रेस का हार्दिक प्रेम
कांग्रेस के हार्दिक प्रेम के पीछे उसकी सोची-समझी रणनीति है. पाटीदार अनामत (आरक्षण) आंदोलन कमेटी के प्रवक्ता अतुल पटेल ने कांग्रेस और हार्दिक की नजदीकियों को विस्तार से समझाया. फ़र्स्टपोस्ट से बातचीत के दौरान अतुल ने बताया कि रोजगार और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण पाटीदार समुदाय के सबसे महत्वपूर्ण मुद्दे हैं. फिलहाल चुनाव की बयार चल रही है, लिहाजा पाटीदारों के लिए अपनी मांगों को रखने यह सबसे माकूल वक्त है.
अतुल पटेल के मुताबिक, 'मध्य और उत्तर गुजरात में पाटीदार समुदाय अब भी पूरी तरह से खेतीबाड़ी पर निर्भर है. जबकि बाकी लोगों को ऐसा लगता है कि, पटेल समुदाय बहुत अमीर है और उसे आरक्षण या किसी अन्य सुविधा की कोई जरूरत नहीं है. जबकि असलियत ये है कि, करीब 1.2 करोड़ की जनसंख्या वाले पाटीदार समुदाय में सिर्फ पांच से सात फीसदी लोग ही अमीर हैं, जबकि 15 से 20 फीसदी लोग मध्य वर्ग में आते हैं. वहीं बाकी का पाटीदार समुदाय आर्थिक रूप से बहुत कमजोर है.'
अतुल ने आगे बताया कि पाटीदार समुदाय के सामाजिक और आर्थिक स्थिति को समझने के लिए वो हार्दिक के साथ मिलकर गुजरात के 620 गांवों का दौरा कर चुके हैं.
अतुल का कहना है कि, 'नरेंद्र मोदी के विकास का नारा इस बार गुजरात में कामयाब नहीं होने वाला है. छोटे और मझोले उद्योगों के सामने कई समस्याएं खड़ी हो गई हैं, उन्हें कर्ज के लिए दर-दर भटकना पड़ रहा है. जबकि बड़े उद्योगपतियों को सरकार हर सुविधा दे रही है.'
पाटीदारों में है गुस्सा
अतुल पटेल का मानना है कि पिछले दो दशकों से राज्य सरकार ने पाटीदारों पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया. किसी भी सरकार ने उनकी समस्याओं में रुचि नहीं दिखाई. जिसके चलते पाटीदार समुदाय में भारी रोष था. लिहाजा जब आरक्षण का आंदोलन शुरू हुआ, तो उसे भारी जन समर्थन मिला.
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अतुल के मुताबिक, 'गुजरात में शिक्षा का निजीकरण भी एक बड़ा मुद्दा है. अहमदाबाद में हाल के वक्त में महानगर पालिका के 15 स्कूल बंद कर दिए गए हैं. जब हकीकत में यहां 30 से 40 सरकारी स्कूलों की और ज़रूरत है.'
फ़र्स्टपोस्ट से बातचीत के दौरान अतुल ने बीजेपी पर कई संगीन आरोप लगाए. अतुल ने कहा कि हार्दिक के आंदोलन को खत्म करने और उसकी छवि धूमिल करने के लिए बीजेपी ने 'साम-दाम-दंड-भेद' का जमकर इस्तेमाल किया. अतुल ने बताया कि, आंदोलन के लिए पाटीदार समुदाय के लोग इकट्ठा न हो सकें, इसके लिए राज्य सरकार ने बेजां तरीके से सीआरपीसी की धारा 144 लागू करवा दी थी. दरअसल क्रिमिनल प्रोसीजर कोड यानी सीआरपीसी की धारा 144 के तहत किसी कार्यकारी मजिस्ट्रेट को यह अधिकार मिल जाता है कि वो इलाके में चार से ज्यादा लोगों को इकट्ठा होने से रोक सके.
अतुल ने बातचीत में ये भी बताया कि राज्य की बीजेपी सरकार ने कैसे पाटीदार आरक्षण आंदोलन समिति के कार्यकर्ताओं की बुरी तरह पिटाई करवाई. उन्होंने ये भी खुलासा किया कि बीजेपी नेताओं ने हार्दिक और कांग्रेस के बीच दरार पैदा करने के लिए किस तरह से रिश्वत की पेशकश की.
अतुल के मुताबिक, 'जब बीजेपी की हर कोशिश नाकाम हो गई, तब उन्होंने सोशल मीडिया का सहारा लिया और हार्दिक की छवि को धूमिल करने का प्रयास किया गया.' अतुल ने आगे बताया कि साल 2012 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने सूरत की सभी 12 सीटें जीती थीं. जबकि दक्षिण गुजरात की कुल 35 सीटों में से 28 सीटों पर बीजेपी को कामयाबी मिली थी.
पाटीदार हैं मजबूत
सूरत के कपड़ा और डायमंड सेक्टर से जुड़ा पाटीदार समुदाय भी राज्य और केंद्र की बीजेपी सरकार से खुश नहीं है. जैसे ही कोई उनसे हार्दिक के बारे में सवाल करता है, तो वह तुरंत मोदी की आलोचना शुरू कर देते हैं. इन लोगों का कहना है कि बीजेपी सरकार ने कभी उनकी परवाह नहीं की है. वहीं जीएसटी के मुद्दे पर पाटीदार लोग बीजेपी को चोर कहने से भी नहीं चूक रहे हैं. पाटीदारों का आरोप है कि मोदी सरकार गरीबों से भी पांच फीसदी जीएसटी वसूल कर रही है, जो कि सरासर चोरी है. लोगों के मुताबिक, मोदी को लगातार जीत इसलिए मिल रही है, क्योंकि सोशल मीडिया पर उन्हें बहुत बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जाता है. पाटीदारों को मीडिया से भी खासी शिकायतें हैं. उनके मुताबिक, मीडिया को पाटीदारों का गुस्सा तो फौरन नजर आ जाता है, लेकिन उसे कभी पाटीदारों के ऐतिहासिक जनसांख्यिकीय मुद्दे नजर नहीं आते हैं.
पटेल यानी पाटीदार मुख्यत: कृषि (खेतीबाड़ी) से जुड़ा समुदाय है. ये समुदाय सदियों से अपनी इच्छा शक्ति और जीवटता के बल पर हर परिस्थिति से जूझता आ रहा है. पाटीदारों के जनसांख्यिकीय विभाजन का अपना एक इतिहास है, जो बीजेपी की गफलत के चलते मिटने से बचा रह गया है. दरअसल बीजेपी ने कभी सोचा तक नहीं था कि इतने बड़े पैमाने पर पाटीदार समुदाय उसके खिलाफ खड़ा हो जाएगा, इसीलिए उसने पाटीदारों के जनसांख्यिकीय विभाजन की कभी जरूरत ही नहीं समझी.
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पटेल समुदाय की मुख्यत: दो उपजातियां है. एक उपजाति हैं लेऊवा पटेल और दूसरी उपजाति है कडवा पटेल. दोनों उपजातियां खुद को भगवान राम के पुत्र लव और कुश का वंशज मानती हैं. गुजरात का सौराष्ट्र इलाका पटेल समुदाय का गढ़ माना जाता है. गुजरात का ये प्रायद्वीपीय क्षेत्र बहुत उपजाऊ है. लेकिन पिछले चालीस सालों में, अकाल, भुखमरी और बेरोजगारी के चलते बड़ी तादाद में पटेल सूरत और अहमदाबाद में जाकर बस गए हैं. सूरत और अहमदाबाद में औद्योगिकीकरण के चलते इन लोगों को रोजगार की समस्या पेश नहीं आई. विस्थापन के बाद धीरे-धीरे पटेल समुदाय आर्थिक रूप से मजबूत होने लगा. जिससे बाकी जातियों के साथ उसकी होड़ शुरू हो गई. आखिरकार, बराबरी और समान मौके की तमन्ना के चलते पटेलों ने आरक्षण की मांग शुरू कर दी. धीरे-धीरे इसी मांग ने बड़े आंदोलन का रूप ले लिया.
बीजेपी के खिलाफ गुस्से ने बनाया एक हार्दिक पटेल
जामनगर, जूनागढ़, राजकोट, पोरबंदर, भावनगर और अमरेली जैसे शहर सौराष्ट्र में आते हैं. भावनगर और अमरेली गुजरात के पश्चिम में हैं और दोनों के बीच की दूरी 100 किलोमीटर से भी कम है. ये दोनों शहर कभी उस रियासत का हिस्सा हुआ करते थे जिस पर गोहिलों का शासन था. 1970 के दशक में भावनगर और अमरेली के पटेलों ने बड़े पैमाने पर अहमदाबाद और सूरत की ओर पलायन किया.अहमदाबाद और सूरत चूंकि दक्षिण गुजरात में हैं. लिहाजा नज़दीक होने के कारण ज्यादातर पटेलों ने यहीं अपना ठिकाना बना लिया. इसके बाद दूसरे इलाकों के पटेल भी इन शहरों में आकर बस गए. धीरे-धीरे ये समुदाय डायमंड, टैक्सटाइल और रियल स्टेट कारोबार में छा गया.
भावनगर और अमरेली के पटेल बाकी इलाकों के पटेलों के मुकाबले ज्यादा समृद्ध हैं. यह लोग डायमंड और टेक्सटाइल उद्योग से जुड़े हैं और कई फैक्टरियों को मालिक हैं. भावनगर और अमरेली के पटेल राजनीतिक में भी खासे सक्रिय रहे हैं. उदाहरण के लिए, 2015 के निकाय चुनाव के दौरान सूरत नगर निगम के निर्वाचित सदस्यों में से 16, भावनगर और अमरेली के थे. लेकिन समस्या की असली जड़ यह नहीं है.
साल 2012 में विधानसभा क्षेत्रों के परिसीमन के बाद सौराष्ट्र के 12 जिलों में विधानसभा की सीटों की सख्या कम हो गई. जनसंख्या के लिहाज से कुछ सीटें सूरत के हिस्से में चली गईं और कुछ सीटें अहमदाबाद के खाते में आ गईं. आज सूरत में विधानसभा की 12 सीटें हैं. मौजूदा चुनाव में भावनगर और अमरेली के पाटीदारों को सूरत उत्तर, कतार्गम, कामरेज, वराच्छा और करंज निर्वाचन क्षेत्रों में टिकट दिया गया है. सूरत में भावनगर और अमरेली के अलावा जूनागढ़, जामनगर और राजकोट से संबंध रखने वाले पाटीदारों की आबादी पांच से छह लाख के बीच है. ये लोग न सिर्फ हार्दिक और उसके आरक्षण आंदोलन के बड़े समर्थक हैं, बल्कि अपनी लोकतांत्रिक उपेक्षा से भी खासे नाराज हैं. ऐसे में ये समुदाय गुजरात में बीजेपी के मंसूबों पर पानी फेर सकता है.
कामरेज विधानसभा क्षेत्र सूरत के उत्तर इलाके में पड़ता है. कामरेज में पाटीदारों की आबादी करीब 1.5 लाख हैं. मूल रूप से जामनगर के रहने वाले दलसुख भाई चौवतिया पारंपरिक रूप से बीजेपी के समर्थक रहे हैं. लेकिन साल 2012 में उन्होंने गुजरात परिवर्तन पार्टी के टिकट पर कामरेज सीट से चुनाव लड़ा था. दरअसल दलसुख भाई बीजेपी सरकार को ये संदेश देना चाहते थे कि सौराष्ट्र के पाटीदार अपनी अनदेखी से नाराज हैं. तब, मोदी लहर के बावजूद, चौवतिया को करीब 23,000 वोट मिले थे. हालांकि अब उनकी पार्टी का बीजेपी में विलय हो गया है, लेकिन अपने समुदाय की उपेक्षा का दर्द अब भी चौवतियां के दिल में बाकी है.
चौवतिया के मुताबिक, 'जब लोग पीड़ित होते हैं, तब हार्दिक जैसी हस्तियां पैदा होती हैं. हार्दिक सिर्फ इसलिए पाटीदारों को एकजुट नहीं कर रहा है, ताकि बीजेपी को हराया जा सके और कांग्रेस की सरकार बनवाकर अनामत (आरक्षण) हासिल किया सके. लोग अच्छी तरह से जानते हैं कि आरक्षण की एक संवैधानिक सीमा है, और 49% फीसदी से ज्यादा आरक्षण का प्रावधान नहीं है. पाटीदार ये भी बखूबी समझते हैं आरक्षण की आग कांग्रेस की लगाई हुई है.'
वहीं कतार्गम सीट पर बीजेपी ने जो उम्मीदवार उतारा है उससे दलसुख भाई संतुष्ट नहीं है. उनके मुताबिक, 'बीजेपी को इस इलाके में किसी युवा चेहरे को टिकट देना चाहिए था, लेकिन पार्टी ने यहां पर भावनगर के एक पाटीदार वीनू भाई मोराडिया को मैदान में उतारा है.'
सूरत में रहने वाले पटेल मतदाताओं की निराशा और नाराजगी दिनबदिन बढ़ती जा रही है. बीजेपी के खिलाफ गुस्सा और आरक्षण की मांग अब इस समुदाय का जुनून बन चुके हैं. लेकिन एक ऐसा समुदाय जो इंसानी कोशिशों और मूल्यों को कैरेट और मीटर में मापता हो, उसका यह जुनून बेसबब और बेनतीजा नहीं होता है.
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