श्मशान और कब्रिस्तान... ये दो शब्द धर्म की पहचान बताने के लिए काफी हैं. लेकिन गुजरात के सुरेंद्रनगर जिले के शियानी गांव में आप श्मशान और कब्रिस्तान से दलितों के धर्म का पता नहीं लगा सकते हैं. गुजरात विधानसभा चुनाव से पहले मुद्दों की बात करने जब फ़र्स्टपोस्ट की टीम शियानी गांव पहुंची, तो लोगों की तमाम शिकायतों के साथ यह बात भी सामने आई कि उनके पास ‘दफनाने’ के लिए ‘श्मशान’ नहीं है.
‘दफनाने’ के लिए ‘श्मशान’... आप सोच रहे होंगे यह कैसी मांग है! यह पूछने पर कि श्मशान में तो दाह-संस्कार होता है. दफनाने के लिए तो कब्रिस्तान चाहिए. इस पर गुजराती के साथ ठीक ठाक हिंदी में बात कर लेने वाले 25 साल के गौतम माकिवान ने कहा, ‘हमारी परंपरा में शवों को दफनाया जाता है. लेकिन धर्म के हिसाब से वह हमारे लिए कब्रिस्तान नहीं श्मशान है.’
सुरेंद्रनगर जिले के ज्यादातर गांवों में वाल्मिकी समाज और दलितों को दफनाया जाता है. धर्म से हिंदू होने के बावजूद इनका अंतिम संस्कार मुस्लिमों की तरह होता है. हिंदू और मुसलमानों के दफनाने में बस फर्क इस बात का है कि मुसलमानों की तरह दलित हिंदू ईंट गारे से मकबरा नहीं बनाते हैं. इसकी वजह इनकी गरीबी है या धर्म, कहा नहीं जा सकता. मुसलमानों की तरह ये कब्रिस्तान में जाकर अपने पूर्वजों को याद नहीं करते हैं. ये लोग भी अपने श्मशानों से उतनी ही दूरी बनाकर रहते हैं जितना कोई सवर्ण रहता है.
इस जिले में दफनाने की परंपरा सिर्फ नीची जाति के लोगों के लिए ही है. लेकिन ऐसा क्यों है, इसकी कोई साफ वजह पता नहीं चलती. गुजरात में दलितों के हितों के लिए काम करने वाली संस्था नवसर्जन के संस्थापक मार्टिन माकिवान का कहना है, ‘हर जगह ऐसा नहीं होता है. कुछ इलाकों में दलितों को जलाया भी जाता है. लेकिन दफनाने की परंपरा के पीछे एक वजह वायु प्रदूषण से बचाव भी है.’
यानी एक थ्योरी यह बनती है कि दशकों या सदियों पहले गुजरात के इस समुदाय ने परिजनों की मौत के बाद वायु प्रदूषण से बचने के लिए दाह संस्कार करने के बजाय दफनाना शुरू कर दिया. लेकिन खुद इस समुदाय के लोगों को इस रिवाज क पीछे की कहानी नहीं पता. दूसरी थ्योरी यह है कि यहां ऊंची और नीची जातियों के बीच का फर्क इतना ज्यादा रहा होगा कि उन्हें सामान्य हिंदू रीति रिवाजों को अपनाने की भी छूट न दी गई हो.
सदियों से चला आ रहा फर्क यहां आज भी साफ-साफ नजर आता है. यही वजह है कि इस जिले में सवर्णों के लिए अलग श्मशान है और नीची जातियों के लोगों के लिए अलग. यानी छुआछूत का भेद मरने के बाद भी जारी रहता है. एक तीसरी थ्योरी भी है, इनके बारे में ऊंची जातियों के लोगों का ख्याल है कि ये पहले मुसलमान रहे होंगे और बाद में धर्म बदल लिया.
दो गज जमीन भी मुहैया नहीं
कहते हैं मौत के बाद जीवन का संघर्ष खत्म हो जाता है. लेकिन सुरेंद्रनगर जिले के शयानी गांव के दलित और वाल्मिकी जाति के लोगों का संघर्ष मौत के बाद भी जारी रहता है. 70 साल के बच्चू भाई की झुर्रियों में धंसी आंखों में यह उम्मीद है कि मौत के बाद उन्हें चैन से दो गज जमीन नसीब होगी. लेकिन गांव के इस समुदाय के लिए यह किसी सपने से कम नहीं है. वह कहते हैं, ‘पूरी जिंदगी हमारी छुआछूत में बीत गई... मरने के बाद भी हमारे शरीर का अपमान होगा.’
शयानी में करीब 10 हजार घर हैं. इनमें से 30 घर वाल्मिकी और लगभग 50 घर दलितों के हैं. वाल्मिकी दलित हैं, पर बाकी दलित इन्हें अपने से नीचा मानते हैं और बर्ताव वैसे ही करते हैं. दलितों के भीतर भी भेदभाव की सच्चाई कमोबेश पूरे देश में दिख जाती है.
35 साल के मुकेश भाई व्यथित होते हुए कहते हैं, किसी के मरने का दुख...और उसके बाद उसके शरीर से जैसे तैसे पीछा छुड़ाने की नौबत... हमारा दर्द कोई नहीं समझता. वह बताते हैं कि वाल्मिकी समाज के लिए जहां श्मशान की जमीन मिली है वह पानी में डूबी रहती है. जमीन का यह छोटा सा हिस्सा एक नहर के बीच है. लिहाजा उसमें हमेशा पानी भरा रहता है. बस उसे (शव को) डाल आते हैं. साल में कभी-कभार यह नहर सूखी रहती है. फिर भी जगह इतनी छोटी है कि एक के ऊपर एक शवों को दफनाना पड़ता है. 25 साल के दलित गौतम माकवानी कहते हैं, 'चुनाव आने की वजह से सरकार ने नहरों में पानी बढ़ा दिया है, जिससे हालत और खराब हो गई है. पहले घुटने से नीचे तक पानी होता था, लेकिन अब पानी घुटने तक आ गया है.'
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25 साल के गौतम माकिवान से जब यह पूछा कि ‘क्या वह चाहते हैं कि उनका दाह संस्कार हिंदू रीति रिवाज से हो’? उन्होंने कहा, ‘हम भी चाहते हैं कि मरने के बाद हमारे शरीर को जलाया जाए. लेकिन इसके लिए न तो हमारी हैसियत है और ना जमीन.’
गौतम माकिवान दलित हैं. वह बताते हैं कि अगर हम हिंदू रिवाज से जलाना भी चाहें तो लकड़ियां नहीं खरीद सकते. गौतम कहते हैं कि दलितों, वाल्मिकी और सवर्णों के लिए अलग-अलग श्मशान की व्यवस्था है.
सवर्णों का श्मशान बागीचे के बीचों बीच है. वहां नल है. नहाने और पूजा करने के लिए व्यवस्था है. दलितों के शमशान तक पहुंचने के लिए नाली के गंदे पानी से होकर गुजरना पड़ता है. यानी यहां आपकी जाति ही तय करती है कि मौत के बाद आपके साथ क्या सलूक होगा. एक सम्मानजनक जिंदगी का संघर्ष इनके मरने के बाद भी खत्म नहीं होता है.
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