(संपादक की टिप्पणी- जम्मू-कश्मीर आठवीं बार राज्यपाल शासन के अधीन है. इस दौरान सूबे में जो भी राजनीतिक गतिविधियां होंगी, फ़र्स्टपोस्ट उन पर विश्लेषणात्मक लेख और बेबाक रिपोर्ट छापेगा.)
21 बरस के मोहम्मद आरिफ पत्थरबाजी के कई मामलों में तीन महीने से जेल में हैं. सूबे की राजनीतिक पार्टी पीडीपी ने वादा किया था कि उनके खिलाफ लगे सारे मामले बहुत जल्दी वापस हो जाएंगे. दक्षिण कश्मीर के इस बाशिंदे ने बताया, 'मैं इस बात पर तैयार हो गया था कि अगर मेरे खिलाफ सारे मामले वापस ले लिए जाते हैं, तो मैं कभी पत्थरबाज़ी करने सड़क पर नहीं उतरूंगा.'
फल बेचने की दुकान लगाकर गुजारा करने वाले आरिफ के पिता का कहना है, 'मैं चाहता हूं कि मेरा बेटा पढ़ाई करे, लेकिन पत्थरबाजी के इन मामलों की वजह से ऐसा मुमकिन नहीं हो पा रहा. अब कोई उम्मीद भी नहीं बची है.' आरिफ का मामला अकेला नहीं है. आरिफ के जैसे सैकड़ों लड़कों को उम्मीद थी कि उनके ऊपर चल रहे पत्थरबाजी के मुकदमे वापस हो जाएंगे. इस साल की शुरुआत में जम्मू-कश्मीर सरकार ने 9,730 लड़कों के खिलाफ चल रहे मुकदमे वापस लेने की मंजूरी दे दी थी. इन सभी पर 2008 से 2017 के बीच पत्थरबाज़ी के मुकदमे कायम हुए थे. इनमें वो लड़के भी शामिल थे, जो पहली बार पत्थरबाजी में शामिल हुए और पकड़े गए. 2016-17 के दौरान तो ऐसे 3773 मामले दर्ज किए गए.
तीन साल चली बीजेपी-पीडीपी सरकार के दौरान जम्मू-कश्मीर में हिंसा के जबरदस्त मामले सामने आए. पिता की मौत के बाद जब महबूबा मुफ्ती मुख्यमंत्री बनीं, तो चार महीने के भीतर ही बुरहान वानी मार दिया गया. इसके खिलाफ घाटी की सड़कों पर जो जबरदस्त हंगामा और हिंसा हुई, जो महीने भर चली और उसमें एक हजार से ज्यादा लोगों की मौत हुई, हजारों घायल हुए. इन सारी घटनाओं की वजह से स्थानीय आतंकियों की संख्या में इजाफा हुआ और 100 से ज्यादा लड़के स्थानीय आतंकी गुटों में शामिल हो गए.
आतंकी घटनाएं और बढ़ीं और 10 जुलाई 2017 को अमरनाथ यात्रा के तीर्थयात्रियों पर हमला हो गया. इस हमले में 8 हिंदू तीर्थयात्री मारे गए और 18 घायल हो गए. इसी के बाद शुरू हुआ ऑपरेशन ऑलआउट, जिसके तहत भारतीय सेना, सीआरपीएफ और जम्मू-कश्मीर पुलिस ने आतंकियों को पूरी तरह खत्म करने के लिए संयुक्त ऑपरेशन शुरू किया. लिहाजा 2017 में 220 आतंकी मारे गए, जिनमें से ज्यादातर स्थानीय लड़के ही थे.
2017 में ही 80 नागरिक भी आतंकी वारदातों में मारे गए. इस खून-खराबे का अंजाम ये हुआ कि महबूबा सरकार दबाव में आ गई. पीडीपी की अपनी छवि पहले से ही अलगाववाद की तरफ झुकाव रखने वाली पार्टी की रही है. लिहाजा अपनी उसी छवि को फिर से पाने के लिए उन्होंने अमन बहाली के बहाने कुछ कदम उठाए. फैसला हुआ कि पहली बार पत्थरबाजी में शामिल पाए गए लड़कों को माफ कर दिया जाएगा.
महबूबा ने कश्मीर में आतंकियों के खिलाफ सीज़फायर की भी वकालत की. लेकिन बीजेपी के गले ये बात उतरी नहीं और उन्होंने अपना समर्थन वापस ले लिया. कश्मीर में अब, जब गवर्नर रूल है, ये माना जा रहा है कि मौजूदा दौर में सरकार का रवैया आतंकियों के प्रति सख्त रहेगा.
सूबे के पूर्व उपमुख्यमंत्री कवींद्र गुप्ता का कहना है. 'वे कश्मीर में अमन बहाली चाहते हैं.' लेकिन अपने इस वाक्य में उन्होंने ये भी जोड़ दिया, 'इसका मतलब ये नहीं कि हम पत्थरबाजों को छोड़ देंगे. वे अपराधी हैं और उन्हें सजा मिलेगी.'
गुप्ता ने साफ कहा, 'जब पत्थरबाजों को माफ करने का फैसला महबूबा ने लिया था, तो इस बारे में बीजेपी से कोई राय-मशविरा तो किया नहीं था. ये फैसला उनका अपना था. सीजफायर की गुहार भी जब उन्होंने की, तो बीजेपी से कोई राय नहीं ली. अब शांति की बहाली के लिए आतंक के खिलाफ अभियान चलाना जरूरी हो गया है. आतंकियों को मार देना चाहिए और जो समस्या पैदा करने वाले लोग हैं, उन्हें अच्छी तरह सबक सिखाना चाहिए.'
इससे पहले भी सेना और आतंकियों के बीच मुठभेड़ में बहुत जानें जा चुकी हैं. सेना के सामने सबसे बड़ी मुश्किल ये आ रही थी कि मुठभेड़ के दौरान, स्थानीय लोग आतंकियों को भागने में मदद कर देते थे. हालांकि जम्मू-कश्मीर के डीजीपी एस.पी वैद्य ने कहा है कि सत्ता में बदलाव से कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा. हम ऑपरेशन्स पहले भी कर रहे थे, अब भी जारी रखेंगे. कोशिश हमारी होगी कि आम लोगों को जान-माल का नुकसान कम से कम हो.
लेकिन स्थानीय लोगों का कहना है कि उन्हें तो चैन तभी मिला जब घाटी में आतंक विरोधी ऑपरेशन्स रोके गए. कुलगाम के आमिर मलिक का कहना है, 'सामान्य दिनों मे सुरक्षा बल रूटीन सर्च करते थे. इस दौरान वे लोगों की संपत्ति का नुकसान भी कर डालते थे और लोगों को मारते-पीटते थे. लेकिन सीजफायर के दौरान माहौल पहले के मुकाबले काफी अच्छा था.'
नाम न छापने की शर्त पर भारतीय सेना के एक अधिकारी ने बताया कि आतंकियों के खिलाफ ऑपरेशन्स अब बढ़ने वाले हैं. 'स्थानीय लड़कों की भर्ती बढ़ती जा रही है, जो चिंताजनक है. हमें ये इलाके साफ करने होंगे क्योंकि आतंकी अपनी जमात में शामिल करने के लिए यहां के लड़कों को तरह-तरह के लालच देते हैं.' एनआईए ने कश्मीर में ऑपरेशन्स बढ़ाने का फैसला किया और इस तरह सरकार ने अलगाववादियों पर दबाव बढ़ा दिया.
आतंक को फंड देने के आरोप में बड़े अलगाववादी नेताओं को गिरफ्तार भी किया गया. अब मुमकिन है घाटी में ऑपरेशन्स फिर बढ़ाए जाएं. हालांकि कश्मीर को नजदीक से देखने और समझने वाले कहते हैं कि ये तौर-तरीके सिर्फ बीजेपी को अगले आम चुनावों में फायदा पहुंचाने के लिए इस्तेमाल में लाए जा रहे हैं.
श्रीनगर के पत्रकार शाह अब्बास कहते हैं, 'दरअसल तीन साल चले गठबंधन से बीजेपी-पीडीपी कोई फायदा उठाने में नाकाम साबित हुए हैं. या ये कहें तो बेहतर होगा कि दोनों पार्टियां अपने-अपने वोट बैंकों को संतुष्ट करने में नाकाम साबित हुई हैं. पीडीपी, घाटी में मुस्लिम मतदाताओं को और बीजेपी जम्मू में हिंदू वोटर्स को खुश नहीं कर पाईं.
हालांकि दोनों ही पार्टियां अपने वोटर्स के सामने अपने-अपने नंबर बढ़ाने में लगी थीं. लेकिन अब, जब राज्यपाल शासन के जरिये बीजेपी की पकड़ सत्ता पर है, बीजेपी फायदा लेने के लिए कश्मीर समस्या को अपने ढंग से सुलझाने की कोशिश कर सकती है. जाहिर है ऐसा करके वो आगे आने वाले आम चुनावों में फायदा लेने की कोशिश करेगी.'
घाटी के दूसरे राजनीतिक दलों का मानना है कि सख्त हाथों से अगर कश्मीर समस्या को सुलधाने की कोशिश की गई, तो हालात खराब हो सकते हैं. पहलगाम से नेशनल कॉन्फ्रेंस के विधायक अल्ताफ कालू भी मानते हैं, 'कश्मीर में शांति सिर्फ बातचीत से ही मुमकिन है. हिंसा का जवाब हिंसा नहीं हो सकता.'
( इस लेख के लेखक फ्रीलांस लेखक हैं और 101Reporters.com के सदस्य हैं.)
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