हाल में देश का बजट पेश हुआ है. इस हफ्ते बजट को लेकर विश्लेषणों की भरमार जारी है. सरकार को एक बात अपने मन में गांठ बांध लेनी चाहिए कि उसे बीते वक्त के अपने गलत आर्थिक फैसलों से सीख लेनी है. खास कर नोटबंदी के फैसले से सीख लेने की जरूरत है. नोटबंदी के नतीजे बहुत नुकसानदेह साबित हुए और जिस ढुल-मुल और अफरा-तफरी के अंदाज में इस पर अमल किया गया वह भी नुकसान को बढ़ाने वाला साबित हुआ.
नोटबंदी की तरफदारी में सबसे ज्यादा दोहरायी जाने वाली दलील थी कि इससे अर्थव्यवस्था से काला धन खत्म हो जाएगा लेकिन यह दलील कमोवेश नाकाम जान पड़ती है. सरकार अगर काला धन को खत्म करने का लक्ष्य हासिल करना चाहती है तो उसे तीन बातों पर ध्यान देना होगा. जिनका जिक्र यहां किया जा रहा है.
पहला रास्ता है कि टैक्स की नीतियों को बदला जाए और इसे सरल बनाया जाए. हमारे देश में टैक्स संबंधी कानून इतने अस्पष्ट और अनेकार्थी हैं कि लोगों को एक नई ही संस्कृति अपनाने पर मजबूर होना पड़ रहा है. भारतीय नागरिक दुबई और सिंगापुर जैसे देशों में अपने व्यवसाय कायम करने लगे हैं.
टैक्स नीतियों को सरल बनाकर ही काला धन कम किया जा सकता
इन देशों में टैक्स का ढांचा बहुत सरल, कारगर और पारदर्शी है. यहां टैक्स या तो बहुत कम हैं या फिर ना के बराबर. टैक्स का ढांचा जटिल हो, उसमें एक ही बात के ढेर सारे अर्थ निकाले जा सकते हों तो इससे भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है और काला धन पैदा होता है. इसमें देश का संसाधन जाया होता है और मुल्क व्यावसायिक मुकाबले के अखाड़े से दूर होता चला जाता है.
अगर अमेरिका टैक्स की अपनी नीतियों को सरल बना रहा है तो इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि वह व्यावसायिक मुकाबले का अपना जोशो-दम बनाए रखना चाहता है. जाहिर है, काला धन के खात्मे की दिशा में एक बड़ा कदम होगा टैक्स संबंधी ढांचे को ज्यादा कारगर बनाना.
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इसके लिए टैक्स स्लैब्स में स्पष्टता होनी चाहिए और टैक्स संबंधी कानून साफ अर्थ देने वाले वाले होने चाहिए ताकि करदाता और सरकारी खजाने के साथ-साथ अर्थव्यवस्था के लिए भी फायदेमंद साबित हो सकें. अप्रत्यक्ष करों को सरल बनाने की दिशा में जीएसटी एक अहम नीति है और आयकर के मामले में भी यही सोच अपनाई जानी चाहिए.
चुनावी खर्च को हर हाल में बनाना होगा पारदर्शी
दूसरा तरीका है चुनाव के लिए होने वाली फंडिंग को दुरुस्त करने का. अभी जो व्यवस्था जारी है वह पारदर्शी नहीं है. इसमें जवाबदेही का अभाव है. नतीजतन, भ्रष्टाचार और काला धन को बढ़ावा मिल रहा है. चुनावी फंडिंग के मामले में पारदर्शिता लागू करना बहुत ज्यादा जरुरी है ताकि जो धन खाता-बही पर दर्ज हुए बगैर इक्ट्ठा हो रखा है वह चुनाव अभियान के चंदे के नाम पर अर्थव्यवस्था में खपाया ना जा सके.
इसका एक तरीका हो सकता है कि सरकार चुनाव-खर्च की सीमा पर पुनर्विचार करे. अभी खर्चे की सीमा बहुत ज्यादा कम रखी गई है और इसका वास्तविक जरूरतों से मेल नहीं है. कोई उम्मीदवार चुनावी चंदे के रूप में कितनी रकम हासिल कर सकता है और कितनी रकम प्रचार-अभियान पर खर्च कर सकता है, इन दोनों ही बातों के लिहाज से अभी की आयद सीमा वास्तिवक जरुरतों से मेल नहीं खाती.
तीसरा तरीका रीयल एस्टेट में सुधार का है. बीते कुछ वर्षों से रियल एस्टेट से होने वाली कमाई पर आयकर जमीन-जायदाद पर राज्य सरकारों के निर्धारित दर (रेडी रेकोनर रेट) को आधार मानकर वसूला जाता है. यह अच्छी आर्थिक नीति है क्योंकि ट्रांजैक्शन वैल्यू चाहे जो हो, इस नीति से इतना तय हो जाता है कि सरकार को लाभ का कुछ हिस्सा टैक्स के रूप में हासिल होगा ही.
इस कारण लोग-बाग कैश (नकद) में खरीद-बिक्री करने को उत्सुक नहीं रह जाते. नतीजतन, इस नीति से एक तो काला धन के पैदा होने की गुंजाइश कम होती है साथ ही मुकदमेबाजी के झंझटों में भी कमी आती है.
रेरा को सख्ती से लागू करवाना होगा
बहरहाल इस तरीके में अभी कुछ असंगतियां बनी हुई हैं. कुछ राज्यों में या कह लें कि इन राज्यों के कुछ इलाकों और दायरों में जमीन-जायदाद पर आयद सरकारी दर (रेडी रेकोनर रेट) बड़े बनावटी ढंग से या तो कम रखी गई है या बढ़ा-चढ़ा कर और इस कारण मौजूदा मार्केट-प्राइस (बाजार मोल) से उसका मेल नहीं है. मिसाल के लिए, दक्षिण मुंबई में कमर्शियल रियल एस्टेट (व्यावसायिक जमीन-जायदाद) की कीमतें नीचे आ रही हैं लेकिन सरकारी रेडी रेकोनर रेट लगातार ऊपर चढ़ रहा है.
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ऐसा करने की पीछे दलील दी जाती है कि जायदाद के दाम बाजार में घट रहे हों तो भी सरकार को टैक्स से हासिल राजस्व में कमी नहीं आनी चाहिए. लेकिन वास्तविक बाजार-मूल्य से रेडी रेकोनर रेट ज्यादा हो तो खरीद-बिक्री से लोग बचना चाहते हैं क्योंकि उन्हें जायदाद की बिक्री पर रेडो रेकोनर रेट के हिसाब से ज्यादा टैक्स भरना होगा.
लोगों का रियल एस्टेट में बिक्री से दूर भागना अर्थव्यवस्था और सरकारी राजस्व के लिहाज से कहीं ज्यादा बाधक है. इस असंगति को दूर करने के लिए सरकार राज्यों को प्रोत्साहन देते हुए कह सकती है कि वो चालू बाजार-मूल्य से मेल खाता रेडी रेकोनर रेट तय करें. ऊपर जिस नीति का जिक्र किया जा चुका है, उसे फायदेमंद बनाने का एक यही तरीका हो सकता है.
रियल एस्टेट रेग्युलेटरी एक्ट (रेरा) में यह जिम्मेदारी डेवलपर पर डाल दी गई है कि वो अपना प्रोजेक्ट कारगर तरीके से और निर्धारित समय पर पूरा करे. इस प्रावधान के कारण अब प्रापर्टी के खरीदारों के प्रति डेवलपर की जवाबदेही बनती है. डेवलपर भी खुश हैं और खरीदार से जो वादा है उसे वो पूरा करना चाहते हैं. लेकिन सौदे में जिन बातों का करार किया गया है उसका सम्मान होना चाहिए और डेवलपर इस करार का सम्मान करे इसके लिए बहुत जरूरी है कि नौकरशाह और राजनेता भी जवाबदेह हों.
बजट में कठोर तथ्यों को किया गया है किनारे
क्योंकि राजनेता राजनीतिक वजहों से डेवलपर के प्रोजक्ट लटकाए रख सकते हैं और नौकरशाह रिश्वत की उम्मीद में लालफीताशाही का खेल दिखा कर प्रोजक्ट में अडंगे लगा सकते हैं. डेवलपर्स को अक्सर ‘स्पीड मनी' के नाम पर रिश्वत देना होता है ताकि प्रोजेक्ट अपेक्षित गति से चल सके. इस तरह 'स्पीड मनी' के नाम से प्रचलित इस रिश्वत के कारण भी काला धन अर्थव्यवस्था में जगह पाता है.
नौकरशाह और राजनेता जवाबदेह हों- इसके लिए राज्यों में रियल एस्टेट के बाबत स्पष्ट, सटीक और सहज अर्थ देनेवाले दिशानिर्देश होने चाहिए. अगर कोई अधिकारी गलत वजहों से प्रोजेक्ट में देरी करता है तो उसे दंड देने के प्रावधान किए जाने चाहिए. रियल एस्टेट के कारोबार में रोजगार के अवसर ज्यादा हैं.
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जब रियल एस्टेट का कारोबार जोर पकड़ता है तो निर्माण-कार्य में तेजी आती है, साथ ही सीमेंट, स्टील, फर्नीचर और संबद्ध अन्य उद्योगों में भी गतिविधियां जोर पकड़ती हैं. रेरा आखिरकार केंद्र सरकार का कानून है इसलिए केंद्र सरकार को हस्तक्षेप करना चाहिए. राज्यों पर यह सुनिश्चित करने के लिए दबाव बनाना चाहिए कि वो रेरा कानून के प्रावधानों को ठीक तरीके से लागू करें.
अच्छा होता जो सरकार बजट में ढांचागत बदलाव के वास्तविकता से मेल खाते स्थाई उपायों का ऐलान करती. काला धन चाहे खत्म नहीं होता लेकिन ऐसा करने पर काला धन की गुंजाइशों में कमी आती. दुर्भाग्य कहिए कि बजट में कठोर तथ्य एक किनारे कर दिए गए और सत्यभास और जुमलेबाजी से जगत जीतने की तरकीब हावी हो गई.
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