गोरखालैंड की मांग से एक बार फिर साठ के दशक की याद ताजा हो गई. 1960 में भाषा के आधार पर देश में राज्यों का बंटवारा हुआ था. मराठी बोलने वालों के लिए महाराष्ट्र और गुजराती बोलने वालों के लिए गुजरात बना.
पिछले कुछ सालों में झारखंड, छत्तीसगढ़, तेलंगाना जैसे राज्यों का गठन हुआ. लेकिन इन सब राज्यों की नींव विकास के नाम पर पड़ी. जबकि गोरखा जनमुक्ति मोर्चा नेपाली भाषा को आधार बनाकर गोरखालैंड की मांग कर रहा है.
यह आंदोलन कुछ मायनों में देश के बाकी आंदोलनों से अलग है. किसी राज्य की मांग को लेकर यह देश का सबसे लंबा चलने वाला आंदोलन है. इसमें साजिश, फूट और हत्याएं भी हुई हैं.
सुभाष घिसिंग ने की थी शुरुआत?
गोरखालैंड की मांग की शुरुआत सबसे पहले गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट के सुभाष घिसिंग ने की थी. पहली बार 5 अप्रैल 1980 को घिसिंग ने ही 'गोरखालैंड' नाम दिया था. इसके बाद पश्चिम बंगाल की राज्य सरकार दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल (डीजीएचसी) बनाने पर राजी हुई. घिसिंग की लीडरशिप में अगले 20 साल तक वहां शांति बनी रही. लेकिन विमल गुरुंग के उभरने के बाद हालात बदतर हो गए.
गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट से अलग होकर विमल गुरुंग ने गोरखा जनमुक्ति मोर्चा की नींव रखी और गोरखालैंड की मांग फिर तेज हो गई. जिस हिस्से को लेकर गोरखालैंड बनाने की मांग की जा रही है उसका टोटल एरिया 6246 किलोमीटर का है. इसमें बनारहाट, भक्तिनगर, बिरपारा, चाल्सा, दार्जिलिंग, जयगांव, कालचीनी, कलिम्पोंग, कुमारग्राम, कार्सेंग, मदारीहाट, मालबाजार, मिरिक और नागराकाटा शामिल हैं.
क्यों शुरू हुई मांग?
1865 में जब अंग्रेजों ने चाय का बगान शुरू किया तो बड़ी तादाद में मजदूर यहां काम करने आए. उस वक्त कोई अंतरराष्ट्रीय सीमा रेखा नहीं थी, लिहाजा ये लोग खुद को गोरखा किंग के अधीन मानते थे. इस इलाके को वे अपनी जमीन मानते थे. लेकिन आजादी के बाद भारत ने नेपाल के साथ शांति और दोस्ती के लिए 1950 का समझौता किया.
सीमा विभाजन के बाद यह हिस्सा भारत में आ गया. उसके बाद से ये लोग लगातार एक अलग राज्य बनाने की मांग करते आ रहे हैं. बंगाली और गोरखा मूल के लोग सांस्कृतिक और ऐतिहासिक तौर पर एक दूसरे से अलग हैं, जिससे इस मांग को और बल मिलता रहा.
भारत सरकार इस मांग से बचती रही. सरकार को यह आशंका है कि अगर गोरखालैंड बनाने की इजाजत दे दी जाती है तो ये भारत से अलग होकर नेपाल में मिल सकते हैं.
साजिशों का दौर भी चला
गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के जाने-माने प्रतिद्वंद्वी और अखिल भारतीय गोरखा लीग के नेता मदन तमांग पर 21 मई 2010 को दार्जिलिंग में हमला हुआ. माना जाता है कि जिन तीन लोगों ने तमांग पर धारदार हथियार से हमला किया वे गोरखा जनमुक्ति मोर्चा से जुड़े थे. इस हत्या के बाद इलाके में गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के कई लोगों की धरपकड़ हुई थी.
वहीं, 8 फरवरी 2011 में तीन गोरखा कार्यकर्ताओं की पुलिस ने गोली मारकर हत्या कर दी. ये तीनों बिमल गुरुंग की पदयात्रा में शामिल होने की कोशिश कर रहे थे. तब गोरखा जनमुक्ति मोर्चा ने 9 दिनों की हड़ताल की थी.
विरोध का इतिहास?
गोरखा जनमुक्ति मोर्चा ने शुरुआत बंद और भूख हड़ताल से की थी. इसके बाद उन्होंने राज्य सरकार से सीधे मोर्चा लेते हुए पानी और बिजली का बिल जमा करने से इनकार कर दिया. इस फैसले ने राज्य सरकार की नींद हराम कर दी.
उस वक्त कोलकाता की सरकार ने द्विपक्षीय बातचीत के लिए गोरखा जनमुक्ति मोर्चा को बुलाया. हालांकि राज्य सरकार ने इस बातचीत के लिए एक शर्त रखी थी. शर्त यह थी कि वे गोरखालैंड पर नहीं बल्कि विकास के मुद्दे पर बातचीत करेगी, लेकिन मोर्चा ने इसे सिरे से खारिज कर दिया. इसके बाद राज्य सरकार बगैर किसी शर्त के बातचीत को राजी हो गई.
त्रिपक्षीय बातचीत शुरू
पहली बार 8 सितंबर 2008 को भारत सरकार, पश्चिम बंगाल और पहाड़ की राजनीतिक पार्टियों के बीच बैठक हुई. राजनीतिक पार्टियों ने 51 पेज का एक मेमोरैंडम यूनियन होम सेक्रेटरी को भेजा.
करीब साढ़े तीन साल के विरोध के बाद राज्य सरकार के साथ उनकी सहमति बनी. इस सहमति के बाद एक अर्द्ध स्वायत्त संगठन बनाया गया. इसने डीजीएचसी की जगह ली. 18 जुलाई 2011 को सिलीगुड़ी के नजदीक पिनटेल में उस वक्त के गृहमंत्री पी चिदंबरम, पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी और गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के नेताओं के बीच मेमोरैंडम पर समझौता हुआ.
29 अक्टूबर 2011 को गोरखा जनमुक्ति मोर्चा और अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद (एबीएवीपी) ने मिलकर 18 बिंदुओं पर समझौता किया. इसके बाद गोरखा टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन (जीटीए) की जगह नई प्रशासकीय संगठन गोरखालैंड एंड आदिवासी टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन (जीएटीए) बना.
गोरखा जनमुक्ति मोर्चा ने इस इलाके में चुनाव का ऐलान किया था. लेकिन जस्टिस सौमित्र सेन के सुझाव से नाराज होकर चुनाव का बहिष्कार कर दिया था.
तराई और दुआर के इलाकों को एक करने का सुझाव दिया था. इस सुझाव से नाराज राजनीतिक पार्टियों ने चुनाव का बहिष्कार कर दिया. लेकिन बाद में तृणमूल ने यहां चुनाव न लड़ने का फैसला किया और गोरखा जनमुक्ति मोर्चा को सभी 45 सीटें मिल गई.
क्या रही ममता की रणनीति?
2013 में एकबार फिर तृणमूल कांग्रेस गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के बीच मतभेद बढ़ गया. 2 जून 2014 को तेलंगाना के गठन के बाद हालात और खराब हो गए. इस इलाके में 'जनता कर्फ्यू' लग गया. 'जनता कर्फ्यू' यानी लोग अपने घरों से बाहर नहीं निकलेंगे.
इस आंदोलन में टीएमसी ने लेपचा और दूसरी पिछड़ी जातियों को समर्थन दिया. ममता बनर्जी की इस रणनीति से इलाके में गोरखा जनमुक्ति मोर्चा की लोकप्रियता घट गई. पहाड़ी इलाकों के हुए चुनाव में टीएमसी कुछ सीटें भी हासिल करने में कामयाब रही. साथ ही सुभाष घीसिंग की पार्टी गोरखा राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा भी पहाड़ों पर लौटने लगी थी.
गोरखा जनमुक्ति मोर्चा एनएच 55 को बंद कर देते हैं, जिससे इस आंदोलन का असर पूर्वोत्तर के दूसरे राज्यों पर भी पड़ता है. इस बार गोरखा जनमुक्ति मोर्चा ने 12 जून से अनिश्चितकालीन हड़ताल का ऐलान किया है. अब देखना है कि इस बार उनका आंदोलन कब थमता है.
ममता से क्यों बिदकी गोरखा जन मुक्ति मोर्चा?
हाल ही में पश्चिम बंगाल सरकार ने कहा था कि राज्य के सभी सरकारी स्कूलों में बंगाली भाषा पढ़ाई जाए. इस फैसले के बाद एकबार फिर विरोध की चिंगारी सुलग गई. गोरखा जनमुक्ति मोर्चा का आरोप है कि ममता बनर्जी सरकार उन पर बंगाली भाषा थोप रही है.
हालांकि इस मामले में ममता बनर्जी की अलग दलील है. उनका कहना है कि वह बंगाली को तरजीह नहीं दे रही हैं बल्कि राज्य में त्रिभाषा फॉर्मूले को लागू कर रही हैं.
ममता ने यह भी कहा कि उनकी सरकार ने ही प्रदेश सरकार की नौकरियों में भर्तियों के लिए नेपाली को आधिकारिक भाषाओं में शामिल किया है.
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