राजनीति का जितना रिश्ता 'गणित' से है उससे ज्यादा नजदीकी उसका 'सही समय' से है. सही समय को समझने में हुई चूक से राजनीतिक गणित कैसे फेल होता है इसके कई उदाहरण हैं.
उत्तर प्रदेश में सत्तारूड़ समाजवादी पार्टी में मचे घमासान के बीच एक बार फिर 'सही समय' के चुनाव में हुई चूक मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की गणित पर भारी पड़ने की पूरी संभावना है.
सत्ता में वापसी की तैयारियों के बीच राज्य में दो फाड़ को तैयार समाजवादी पार्टी में पिता-पुत्र की जंग का विजेता अगले 24 घंटों में तय हो जायेगा. लेकिन एक नेता के रूप में अखिलेश की 'गणित' एसपी मुखिया मुलायम के सही 'समय के दांव' से चित हो रही लगती है.
बेटे को सीमा लांघते देख मुलायम ने ऐन मौके पर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और पार्टी महासचिव रामगोपाल यादव को छह साल के लिए निष्काषित किया तो, बहुमत की सरकार में सुरक्षित अखिलेश को राजनितिक तपन की आंच महसूस होने लगी है.
उनके राजनीतिक सलाहकार बन चुके रामगोपाल जहां दिल्ली में राहत खोज अभियान में जुट गए हैं, वही नए प्रदेश अध्यक्ष बनने की आस संजोए सांसद धर्मेन्द्र यादव पार्टी विधायकों को मुख्यमंत्री के पीछे लामबंद कर रहे हैं.
मुलायम सिंह के इस बयान पर कि वे ही मुख्यमंत्री का नाम तय करेंगे, अखिलेश मुख्यमंत्री आवास छोड़ चुके हैं. राज्य के राज्यपाल का कहना है केि वे हालात पर नजर रखे हुए हैं.
यही नहीं बिना जनाधार वाला नेता बताये जाने वाले रामगोपाल को जमीनी राजनीति करने वाले शिवपाल से पार जाना है. दूसरी तरफ मुलायम के इस आरोप पर कि वे 'सीएम का भविष्य बर्बाद कर रहे हैं' को गलत भी साबित करना है.
बड़े पेड़ की छाया
कांग्रेस के एक बड़े नेता और एक राजनीतिक रणनीतिकार के भरोसे बड़ी लड़ाई में उतर गए रामगोपाल की राह बेहद मुश्किल है. मुलायम का दांव पार्टी के भीतर क्या असर कर रहा है, इसे इस बात से समझा जा सकता है कि गुरूवार को 'टीपू' को संघर्ष का पाठ पढ़ा रहे पार्टी विधायक शुक्रवार को यह कहते फिर रहे थे, 'बड़ा पेड़ ज्यादा छाया देता है.'
जाहिर है, बड़े पेड़ की छाया से निकलना 'टीपू' यानि अखिलेश के लिए एक चुनौती भी है और अवसर भी. लेकिन ऐसा लगता है 'समय के चुनाव' से अखिलेश 'अवसर' चूक गए हैं. ऐसे में फौरी तौर पर उनके साथ खड़ा कथित संख्या बल कब बड़े पेड़ की छाया में विश्राम खोजने चला जायेगा कहा नहीं जा सकता. जिस जंग का आगाज अखिलेश ने किया था उसे मुलायम ने अंजाम के रास्ते पर डाल दिया है.
विधानसभा चुनावों से ऐन पहले अन्य राजनीतिक दलों की काट खोजने की जगह अखिलेश खुद पार्टी विहीन होकर खड़े हैं. जाहिर है उनकी पहली चुनौती खुद को और अपने साथ खड़े लोगो को असली समाजवादी साबित करने की है.
एसपी के प्रदेश अध्यक्ष की सिफारिश पर पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के द्वारा निकाले गए अखिलेश महज संख्या बल से इससे पार पा लेंगे यह यक्षप्रश्न है. दूसरी और बड़ी चुनौती उनके मुख्यमंत्री पद को लेकर भी है. इस लड़ाई में क्या वे पद पर बने रह पाएंगे? क्या राज्यपाल उन्हें मौका देंगे? या फिर यह राष्ट्रपति शासन के लिए अपने आप बन गया एक आसान मौका है? यह ऐसे सवाल हैं, जो अखिलेश के समय को लेकर किये गए चुनाव पर सवालिया निशान खड़े करते हैं.
उत्तर प्रदेश में चुनाव के दौरान कार्यवाहक मुख्यमंत्री का महत्व किसी से छिपा नहीं है. अखिलेश के लिए युवा एसपी नेता का दर्जा, मुख्यमंत्री का पद और मुलायम का उत्तराधिकारी होने का तमगा यह वह चीजें हैं जो उन्हें सामान्य से असामान्य या कार्यकर्ता से नेता बनाती है. लेकिन अब अगले कुछ घंटों में अगर अखिलेश इस लड़ाई का कोई भी मोर्चा हारते हैं तो उनके लिए यह सबकुछ हारने जैसा साबित होगा.
एसपी प्रमुख मुलायम सिंह यादव व प्रदेश पार्टी अध्यक्ष शिवपाल राज्य की 403 में से 395 सीटों पर उम्मीदवार उतार चुके हैं. ये लॊग जाहिर तौर पर एसपी मुखिया के साथ खड़े होंगे. टिकट की जंग जीत चुके ये नेता बड़े पेड़ की छाया में ही रहना पसंद करेंगे. वह भी तब जब मुख्यमंत्री के साथ जाने की स्थिति में कांग्रेस के साथ होने वाले संभावित गठबंधन में उनकी सीट पर 'हाथ' की छाया पड़ रही हो.
इस बीच पार्टी से निकाले गए राज्य के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने भी समाजवादी पार्टी कोर ग्रुप की बैठक बुलाई है. हालांकि, पार्टी में बगावत कांग्रेस के प्रति अखिलेश के नर्म रुख और सत्ताधारी दल में टिकट को लेकर खींचतान के बीच इस बैठक में आनेवालों पर भी सभी की निगाहें हैं.
राजनीति में बगावत या सही मौके का लाभ उठाना नया नहीं है. लेकिन इस प्रक्रिया में जीतन राम मांझी बनना या फिर चंद्रबाबू नायडू जैसा विजेता बनकर उभारना समय और अवसर पर लिए गए सही-गलत निर्णयों से ही तय होता है. अब जब अखिलेश और मुलायम दोनों ने अपने-अपने निर्णय ले लिए हैं, तो विजेता और पराजित का निर्णय भी कुछ ही समय में सामने आ जाएगा.
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