सोशल मीडिया पर इन दिनों यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ के खिलाफ पूर्व नौकरशाहों के एक समूह का पत्र वायरल हो रहा है. देश के 83 पूर्व नौकरशाहों ने इस पत्र के जरिए सीएम योगी से इस्तीफा मांगा है. इनका आरोप है कि सीएम योगी आदित्यनाथ किसी राज्य में धर्मांधता और कट्टरता फैला रहे हैं. पूर्व नौकरशाहों ने ये भी आरोप लगाया कि योगी सरकार ने संविधान के मौलिक सिद्धांतों और नीति को तबाह करके रख दिया है.
योगी के खिलाफ लिखे पत्र में एक दस्तखत शिव शंकर मेनन का भी है जो कि पूर्व एनएसए रहे हैं और अब इस पद पर अजित डोवाल है. पूर्व नौकरशाहों का लंबा-चौड़ा प्रशासनिक अनुभव रहा है. किसी ने विदेश तो किसी ने देश में बड़ी से बड़ी जिम्मेदारी का पद संभाला है.
लेकिन जैसे योगी के बुलंदशहर हिंसा पर बदलते बयानों पर सवाल उठाए जा सकते हैं वैसे ही इन पूर्व नौकरशाहों के पत्र की मंशा पर भी सवाल उठते हैं. इलाहाबाद हाईकोर्ट से बुलंदशहर हिंसा पर संज्ञान लेने की अपील और सीएम योगी का इस्तीफा मांगने वाला पत्र क्या राजनीति से प्रेरित नहीं माना जा सकता? क्या पूर्व नौकरशाहों के अभियान में किसी विचारधारा का प्रभाव नहीं दिखता?
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83 पूर्व नौकरशाहों के समूह ने पत्र में लिखा है कि घृणा और विभाजन की राजनीति के खिलाफ मुहिम में एकजुट होने की जरूरत है. सवाल उठता है कि जब यूपी में पूर्व की अखिलेश सरकार के वक्त मुजफ्फरनगर के दंगे भड़के थे तब बौद्धिक स्तर पर विरोध की मशाल क्यों बुझी हुई थी? क्या इसकी एक वजह ये भी थी कि सरकारी पदों पर तब आसीन रहने की वजह से दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं भी प्रशासन की चूक नहीं बल्कि राजनीतिक दलों और धार्मिक कट्टरताओं की साजिश दिखाई देती थी?
इन 83 पूर्व नौकरशाहों ने यूपी में पदों पर आसीन नौकरशाहों से अपील की है कि वो निष्पक्ष और निर्भीक रह कर फैसला लेने में डिगे नहीं. सवाल उठता है कि जब ये पूर्व नौकरशाह अपने पदों पर आसीन रहे तब इन्होंने क्या ऐसी मिसाल कायम की?
बुलंदशहर हिंसा बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है और किसी भी ऐसी हिंसक घटना की पूर्व में हुई किसी घटना के साथ तुलना भी नहीं की जा सकती. लेकिन ऐसी घटनाओं को देखने का नजरिया सरकार बदलने से बदला भी नहीं जाना चाहिए. जो निंदनीय है उसकी निंदा निष्पक्ष रह कर करने की जरूरत है. चाहे वो राजनीतिक दल हों या फिर नौकरशाह.
अब पूर्व नौकरशाहों के पत्र पर जाहिर तौर पर सियासी पारा भी चढ़ना था. बीजेपी ने आरोप लगाया है कि पत्र लिखने वाले यूपीए सरकार के दौर के नौकरशाह हैं जिसमें कई लोग यूपीए की चेयरमैन सोनिया गांधी की सलाहकार परिषद के सदस्य भी रह चुके हैं.
ऐसे में पूर्व नौकरशाह कितना भी कहें कि वो किसी राजनीतिक विचारधारा से प्रभावित नहीं हैं बल्कि देश और समाज को बदलने के लिए एक मुहिम का हिस्सा हैं तो उनकी मंशा पर राजनीतिक सवाल तो उठेंगे ही.
सीएम योगी आदित्यनाथ पर यूपी में दो बड़ी जिम्मेदारी हैं. पहली सूबे में कानून व्यवस्था तो दूसरी संकल्प-पत्र के विकास के वादों को पूरा करना. इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए नौकरशाह के साथ सरकार का तालमेल बेहद जरूरी है. लेकिन ये ट्यूनिंग एकदम से बन भी नहीं सकती. इसमें वक्त लगता है. लंबे समय में ही एक मजबूत प्रशासनिक टीम आकार ले पाती है.
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यूपी में 14 साल बाद बीजेपी की सरकार आई है. 14 साल से सूबे में एसपी-बीएसपी की बारी-बारी से सरकार रही. जाहिर तौर पर सत्ता में लगातार रहने वाली पार्टियों के प्रति अधिकारियों की निजी हित के चलते राजनीतिक निष्ठा भी गहरी हो जाती है. सत्ता के इस मर्म को समझने के बावजूद सीएम योगी ने एक प्रयोग किया. यूपी की सत्ता संभालने के बाद सीएम योगी ने शुरुआत में मुख्य सचिव और डीजीपी को न बदलकर एक संदेश देने की कोशिश की.
लेकिन जब अफसरों की कार्यशैली पर फर्क नहीं पड़ा तो बाद में केंद्र से यूपी काडर के अफसर भी बुलाने पड़ गए. लंबे समय से कुर्सी पर डटे अधिकारियों से सहयोग न मिलने पर कई अफसरों को इधर से उधर किया गया. ऐसे में इस पत्र की ज्ञात- अज्ञात पृष्ठभूमि को देखते हुए एक अंदेशा ये भी होता है कि पूर्व नौकरशाहों की राष्ट्रीय चिंता में योगी-विरोधी अफसरों का मर्म भी तो कहीं छिपा नहीं है?
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