चारा घोटाले में लालू यादव को सज़ा होने के बाद बिहार की राजनीति में बदलाव का संकेत मिल रहा है. आरजेडी मुखिया लालू यादव के लिए चुनौती रहेगी कि किस तरह वो अपनी पार्टी को एकजुट रखते हैं. इसके साथ कांग्रेस के साथ कैसे राजनीतिक बिसात बिछाते है. लालू प्रसाद को 2019 की राजनीतिक चाल बहुत ही होशियारी के साथ चलनी पड़ेगी क्योकि मुकाबला एक बड़े गठबंधन से है. नीतीश, बीजेपी, पासवान और उपेंद्र कुशवाहा की चौकड़ी को मात देना इतना आसान नहीं रहेगा.
लालू के सामने आरजेडी गठबंधन को बड़ा करने की चुनौती है. कांग्रेस भी अब लालू की पिछलग्गू रहने से बाहर निकलने की कोशिश करेगी. जिससे कांग्रेस राज्य में आरजेडी के बराबरी पर खड़ी हो. इसके लिए कांग्रेस के बिहार के नेता कहते हैं कि लोकसभा में लालू और कांग्रेस की स्थिति एक जैसी है. बिहार विधानसभा में भी कांग्रेस के पास 27 विधायक हैं. हालांकि विधानसभा में आरजेडी के पास ज्यादा सीट हैं. लोकसभा चुनाव से पहले इस गठबंधन में तारिक अनवर और जीतनराम मांझी को भी शामिल करने की कोशिश रहेगी. कांग्रेस के नेताओं को लग रहा है कि राज्य में लोकसभा की ज्यादा सीट लड़ सकती है. अब वो लालू के सीट देने पर ही निर्भर नहीं रहेगी.
क्या है जातीय समीकरण?
कांग्रेस के नेताओं को लग रहा है कि बिहार में लालू एकमात्र नेता हैं जो यादव वोट को ट्रांसफर करा सकते हैं. बाकी किसी राजनीतिक दल में ऐसी ताकत नहीं है. वहीं शरद यादव के राज्यसभा से बर्खास्त होने की वजह से यादव वोट बैंक एकजुट होगा. बिहार में आरजेडी को मुस्लिम वोट के लिए कांग्रेस का साथ जरूरी है. बिहार कांग्रेस के पूर्व प्रवक्ता ज्योति सिंह कहते हैं कि आरजेडी के साथ कांग्रेस का गठबंधन होने पर मुस्लिम वोट बंटेगा नहीं ,अगर ऐसा नहीं हुआ तो मुस्लिम वोट बंट जाएगा.
बिहार में तकरीबन 17 फीसदी मुस्लिम वोट है. यादव वोट 10 फीसदी के आसपास है. जीतन राम मांझी अगर इस गठबंधन के साथ आते हैं तो तकरीबन 3 फीसदी वोट और जुड़ सकता है. इसके साथ ही केंद्र और राज्य की सत्ता के खिलाफ जो सरकार विरोधी वोट होता है वो भी इस गठबंधन के साथ जा सकता है. हालांकि मुकाबले में जो गठबंधन है, वो भी कमजोर नहीं है. बीजेपी-नीतीश की जोड़ी के पास उच्च जातियों का वोट तकरीबन 20 फीसदी है. वहीं कुशवाहा-कुर्मी मिलाकर 11 फीसदी वोट है. इसमें राम विलास पासवान की वजह से दुसाध का 9 फीसदी वोट जोड़ दिया जाए तो आरजेडी के वोट से काफी ज्यादा है.
हालांकि, लालू प्रसाद को रघुवंश प्रसाद सिंह और प्रभुनाथ सिंह की वजह से कुछ राजपूत वोट मिल सकता है. लालू की इस मजबूरी का फायदा कांग्रेस उठाने के फिराक में है. कांग्रेस भूमिहार वोट में सेंध लगाने के लिए अखिलेश प्रसाद सिंह पर दांव लगा सकती है. अखिलेश प्रसाद की भूमिका पार्टी के भीतर बढ़ सकती है क्योकि भूमिहार वोट अभी बीजेपी के पास है.
क्यो कमजोर हैं लालू?
लालू का पूरा परिवार करप्शन के कई केस में फंस चुका है. लालू प्रसाद को चारा घोटाले में सजा हो चुकी है. लालू की बेटी मीसा भारती और उनके पति शैलेष कुमार के खिलाफ भी मनी लॉड्रिंग का मामला दर्ज है. वहीं बड़े बेटे तेज प्रताप पर विधानसभा चुनाव में गलत शपथ पत्र देने का आरोप है. जिसमें एक जमीन का ब्योरा ना देने का आरोप भी बीजेपी की तरफ से लगाया गया है. वहीं रेलवे होटल घोटाले में लालू प्रसाद, राबड़ी देवी और तेजस्वी पर प्रवर्तन निदेशालय 27 जुलाई, 2017 को केस दर्ज किया है.
लालू प्रसाद और परिवार को राहत मिलने की उम्मीद कम है. इसलिए लालू प्रसाद पहले से कमजोर हुए हैं वो अपनी शर्तो पर गठबंधन नहीं कर सकते हैं, बल्कि कांग्रेस को साथ लेकर चलना उनकी मजबूरी रहेगी. लालू प्रसाद के बेटे तेजस्वी के साथ राहुल गांधी की मुलाकात भी हुई थी. बताया जाता है कि उस वक्त तेजस्वी ने 14 सीट की पेशकश राहुल के सामने रखी थी. जिसपर अभी राहुल गांधी ने कोई जवाब नहीं दिया है. क्योकि कांग्रेस को लोकसभा से दहाई से तिहाई में पहुंचने के लिए गठबंधन कीं जरूरत पड़ेगी. बिना गठबंधन के मोदी-शाह की जोड़ी का मुकाबला करना कांग्रेस के लिए मुफीद नहीं रहेगा.
राहुल गांधी की वजह से चुनाव से दूर हुए लालू
लालू प्रसाद को चुनाव से दूर रखने में राहुल गांधी का ही योगदान है. राहुल गांधी ने 27 सितंबर, 2013 को उस अध्यादेश को फाड़कर फेक दिया था जो सजायाफ्ता लोगों को चुनाव लड़ने की इजाज़त देता था. इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने सजायाफ्ता लोगों के चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी थी. उस वक्त तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह विदेश में थे. कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता अजय माकन की प्रेस क्लब में वार्ता चल रही थी. उस वक्त राहुल गांधी आए और जब अध्यादेश के बारे में उनसे सवाल पूछा गया तो उन्होने कहा कि उनकी नजर में ये अध्यादेश का कोई मतलब नहीं है और इसको फाड़कर फेंक देना चाहिए. जिसके बाद कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार को इस अध्यादेश को वापिस लेना पड़ा.
उस वक्त देश में कांग्रेस के खिलाफ करप्शन को लेकर माहौल था. राहुल गांधी को लगा कि इसके जरिए वो अपनी इमेज सुधार लेंगे. लेकिन ऐसा नहीं हो पाया. लेकिन अब माहौल बदला हुआ है राहुल गांधी कांग्रेस के अध्यक्ष बन गए हैं. उनके सामने भी कांग्रेस को 2019 में अच्छे मुकाम पर पहुंचाने की चुनौती है.
ऐसे में राहुल गांधी को भी हर राज्य में सही समीकरण वाले गठबंधन करने पड़ेंगे. हालांकि यूपी में राहुल गांधी और अखिलेश यादव की जोड़ी को जनता ने नकार दिया था. लेकिन गुजरात चुनाव से राहुल गांधी ने सीखा है. जिग्नेश, हार्दिक और अल्पेश की जोड़ी से कांग्रेस को फायदा मिला है. हालांकि कांग्रेस को लालू को हैंडल करना भी आसान नहीं रहेगा. लालू ने ये जता भी दिया है. राहुल गांधी के अध्यक्ष बनने के बाद लालू प्रसाद ने साफ किया कि ये तय नहीं है कि अगला चुनाव राहुल की अगुवाई में लड़ा जाएगा या नहीं. इसलिए कांग्रेस में सोनिया गांधी और उनकी पुरानी टीम को दरकिनार नहीं किया गया है.
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