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आम आदमी पार्टी : उद्देश्य से भटका हुआ एक असफल प्रयोग

अरविंद केजरीवाल को याद रखना चाहिए कि उनके आंदोलन से भटकने के चलते हर नई कोशिश को शक की निगाहों से देखा जाएगा

Updated On: Nov 26, 2017 03:22 PM IST

Ragini Nayak

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आम आदमी पार्टी : उद्देश्य से भटका हुआ एक असफल प्रयोग

आम आदमी पार्टी, पिछले पांच सालों में घटित एक दिलचस्प वृतांत है. ये ज़माने से इश्क के केवल अपने तक सिमट जाने की दास्तां है. भ्रष्टाचार के खिलाफ़ आंदोलन के व्यक्तिगत आरोहण में बदल जाने की गाथा है. राजनीतिक विकल्प को हास्यास्पद गल्प में परिवर्तित करने की कहानी है. नैतिकता, शुचिता और पारदर्शिता के आधार पर देश की राजनीति को और अपनी इस वैकल्पिक राजनीति के माध्यम से दिल्ली को 'फ़लक के दश्त पे तारों की आखिरी मंज़िल' तक पहुंचाने का जो वादा आम आदमी पार्टी ने किया था, उसे यथार्थ की कसौटी पर परखते ही मुक्तिबोध की कविता 'चम्बल की घाटी' की कुछ पंक्तियां याद आ जाती हैं-

"मैं एक थमा हुआ मात्र आवेग

   रुका हुआ एक ज़बरदस्त कार्यक्रम

   मैं एक स्थगित हुआ अगला अध्याय

   अनिवार्य

  आगे ढकेली गई प्रतीक्षित महत्वपूर्ण तिथि

  मैं एक शून्य मैं छटपटाता हुआ उद्देश्य

जन साधारण को, जन लोकपाल के लिए, जन संघर्ष की दिशा में प्रेरित करने से शुरु हुआ अध्याय, सत्ता पर काबिज़ होने की होड़ तक सिमट जाएगा, ये उस आम आदमी ने कहां सोचा था, जिसके नाम की दुहाई दे कर एक नई राजनीतिक पार्टी का जन्म हुआ. इस पार्टी के तथाकथित लक्ष्यों-आन्तरिक लोकतंत्र, पारदर्शिता, समावेशी आचार-विचार और भाईचारे के आधार पर वैकल्पिक राजनीति की शुरुआत- में, जनता अपने अधूरे सपनों और स्थगित महत्वकांक्षाओं की पूर्ति को निहित समझ रही थी. इसीलिये जब ‘इंडिया अगेन्स्ट करप्शन’ रूपी आंदोलन को आम आदमी पार्टी नामक राजनैदिक दल में परिवर्तित कर केजरीवाल और योगेन्द्र यादव, प्रशांत भूषण जैसे अन्य संस्थापक सदस्यों ने दिल्ली के राजनैतिक दंगल में ताकत आज़माने का फ़ैसला लिया तो जनता ने बाहें फैला कर स्वागत किया.

2013 के चुनाव में 70 में से 28 सीटें जीत कर आम आदमी पार्टी दूसरे सबसे बड़े दल के रूप में उभरी और कांग्रेस द्वारा मुद्दों पर दिये गए बाहरी समर्थन से सत्ता पर काबिज़ हुई. लेकिन 49 दिनों के कार्यकाल में ही पूत के पांव पालने में दिख गए जब दिल्ली को प्रशासन के नाम पर धरने और अराजक माहौल के अलावा केजरीवाल कुछ न दे पाए और अंतत: अपनी राजनीति के आधार स्तंभ ‘जन लोकपाल’ की कुर्बानी दे कर, बड़ी महत्वकांक्षाओं की पूर्ति के लिए दिल्ली को बेसहारा छोड़ बनारस पलायन कर गए. आम आदमी पार्टी ने देश भर में लोकसभा चुनाव लड़ा और 400 से ज़्यादा सीटों पर अपनी ज़मानत ज़ब्त करा के इस मुहावरे को चरितार्थ किया कि आधी छोड़ पूरी को धावे, पूरी मिले न आधी पावे.

दूसरी राजनैतिक पारी की शुरुआत केजरीवाल ने जनता से माफ़ी मांग कर की. क्षमायाचना पर केजरीवाल की इतनी बड़ी भूल को भी उदार जनता ने भुला दिया और ऐतिहासिक जीत के साथ उन्हें फिर से दिल्ली में सरकार बनाने का जनादेश मिला. आदमी पार्टी को मिले 70 में से 67 सीटों के प्रचण्ड बहुमत की नींव दिल्ली की जनता के अटूट विश्वास और अथाह प्रेम पर रखी गई थी लेकिन इसके तुरंत बाद पार्टी में एकाधिकार को ले कर शुरु हुई महाभारत ने सिद्धांतों और सार्वजनिक शोभनीयता के परखच्चे उड़ा दिए.

अब्राहम लिंकन ने कहा था कि यदि किसी के चरित्र का सही आंकलन करना हो तो उसे सत्ता पर काबिज़ कर दो, असली चेहरा और प्रवृत्ति उजागर हो जाऐंगे. दूसरी पारी में इन्हें जितना बड़ा जनादेश मिला उतनी ही जल्दी पतन हुआ. इंसानों को भाईचारा बनाए रखने का संदेश देने वाले केजरीवाल अपनी ही पार्टी के भीतर संवाद और समन्वय स्थापित नहीं कर पाए. जो आरोप-प्रत्यारोप सुनाई पड़े, वे इस पार्टी के उन कर्ताधर्ताओं पर थे, जो मौका मिलते ही 'हमारी कमीज़ सबसे साफ' बताते हुए हर दूसरी पार्टी और नेता को कमतर कहते थे. गौरतलब यह भी है कि आरोप लगाने वाले भी विपक्षी दल नहीं बल्कि इसी पार्टी के संरक्षक, संस्थापक और चाणक्य थे.

संस्थापकों का अलग होना

पार्टी के आंतरिक लोकपाल रामदास की रिपोर्ट ने और प्रशांत भूषण, योगेन्द्र यादव के पत्रों ने केजरीवाल की कथनी और करनी के बीच के भेद को सामने रखा. ये सवाल उठाया कि जब 'एक व्यक्ति एक पद' पार्टी का नियम है तो केजरीवाल मुख्यमंत्री के साथ-साथ कनवीनर कैसे बने रह सकते हैं. केजरीवाल को कठघरे में खड़ा करते ही योगेंद्र और प्रशांत विलेन और सत्ता के लोभी घोषित कर दिये गए. मतभेद को साज़िश करार दे दिया गया. आरटीआई के लिए लड़ने वाले केजरीवाल, उसके मुख्य गुण पारदर्शिता को ही पार्टी में लागू नहीं कर पाए. अहंकार से दूर रहने की नसीहत कार्यकर्ताओं को देने वाले केजरीवाल अपने करीबी संगी-साथियों को नाक के आगे नहीं देख पाए. आंतरिक लोकपाल सहित तमाम सवाल पूछने वालों को बेआबरू कर कूचे से बाहर निकाल दिया. देश और दुनिया ने ये भी देखा कि जो व्यक्ति सार्वजनिक रूप से गांधी समाधी के सामने मौन धारण कर ग्लानि और पश्चाताप के आंसू बहाता है, वो व्यक्तिगत वार्तालाप में किस तरह अपने ही साथियों को गालियों से नवाज़ता है.

Yogendra Yadav

आम आदमी पार्टी को एक विचार के रूप में उदित करने के पीछे बहुत लोगों की मेहनत रही होगी. केजरीवाल की खास छवि बनाने और उन्हें एक ब्रांड की तरह उभारने में भी कई लोगों ने मशक्कत की होगी. लेकिन पार्टी में अपना वर्चस्व शायद केजरीवाल के लिए पार्टी के अस्तित्व से ज़्यादा महत्वपूर्ण था इसीलिए सत्ताधारी बनते ही, केजरीवाल ने कई पार्टी नेताओं को दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल फेंका तो कई केजरीवाल के सत्ताकांक्षी और अधिनायकवादी रवैये से परेशान हो खुद ही पार्टी छोड़ कर चले गए.

केजरीवाल सरकार का तीन वर्षों का कार्यकाल वादों की अपेक्षा विवादों के लिये चर्चा में रहा. 70 सूत्री अजेंडे के हिसाब से भ्रष्टाचार, महिला सुरक्षा, बिजली, पानी, परिवहन, सड़क, साफ़-सफ़ाई संबंधित वादों को पूरा करने की दिशा में केजरीवाल सरकार कोई खास उपलब्धि नहीं गिनवा पाई. न तो सार्वजनिक जगहों में फ़्री वाई-फाई की सुविधा मुहैया करवाई गई, न 15 लाख सीसीटीवी कैमरे लगे, न तो नए फास्ट-ट्रैक कोर्ट बने, न ही 20 नए कालेजों की चर्चा हुई, न दो लाख सार्वजनिक शौचालयों का निर्माण हुई, न ही डिस्काम कंपनियों का आडिट हुआ. बल्कि जिस सब्सिडी को दिन-रात गरिया कर केजरीवाल पूंजीवाद से जोड़ते थे उसी का सहारा ले कर उनकी सरकार ने बिजली-पानी की दरों को कम किया.

खुद को आम आदमी कहने वाले अपने वेतन में चार सौ प्रतिशत का इजाफ़ा कर के पलक झपकते ही ख़ास हो गये. 9 महीने तक लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं कर पाये. विपक्षी दलों से और मुहल्ला समितियों के जरिये लोगों से, विमर्श के बिना इतना कमज़ोर लोकपाल बिल लाऐ कि खुद अन्ना हज़ारे ने फटकार लगा दी. आधे मंत्रिमंडल पर, नेताओं-विधायकों पर यहां तक की प्रिंसिपल सेक्रिटरी पर भी भ्रष्टाचार का आरोप लगा. किसी ने फ़र्जी डिग्री बनाई, किसी ने पत्नी का उत्पीड़न किया, किसी ने घूस खोरी की, किसी ने ज़मीन हड़पी. प्याज, चीनी, सीएनजी और ऑटो परमिट घोटाले का शोर मचता रहा लेकिन सच्चाई को सामने लाने के लिये सरकार की तरफ़ से पहल नहीं हुई.

लाभ के पद के विषय में 21 आप विधायकों के चुनाव आयोग द्वारा अयोग्य घोषित करने की नौबत आ गयी. शुंगलु कमेटी की रिपोर्ट ने केजरीवाल सरकार को भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद में लिप्त पाया. राउस एवेन्यु पर स्थित 106 नम्बर बंगले को सरकार द्वारा आप आदमी पार्टी को आवंटित करने पर, जनता के पैसों से मंहगी विदेश यात्राऐं करने पर, अपने रिश्तेदार निकुंज अग्रवाल, स्वास्थ मंत्री सत्येन्द्र जैन की बेटी सौम्या जैन और अन्य करीबी लोगों को बड़े-बड़े पदों पर नियुक्त करने को लेकर बहुत विवाद हुआ.

सत्येंद्र जैन के साथ अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और स्वाति मालिवाल

सत्येंद्र जैन के साथ अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और स्वाति मालिवाल

जिम्मेदारी से भागते केजरीवाल

यूं तो केजरीवाल ने मुख़्यमंत्री होते हुए भी किसी संविभाग की ज़िम्मेदारी नहीं ली. अब दिल्ली से बाहर राजनैतिक पैर पसारने के लिये, राष्ट्रीय राजनीति में पैठ बनाने के लिये इतनी आज़ादी तो चाहिये ही. लेकिन अपनी सरकार के अधिकार क्षेत्र को फैलाने के लिये और सीधी ज़िम्मेदारी से बचने के लिये केजरीवाल का मोदी सरकार, उपराज्यपाल, दिल्ली पुलिस और अफ़सरशाही से चल रहा द्वंद युद्ध अभी भी खत्म नहीं हुआ है. केन्द्र सरकार और दिल्ली सरकार हर विवादित मसले पर गेंद एक दूसरे के पाले में फेंकती रहती हैं. आग में घी डालने का काम मोदी सरकार करती है तो केजरीवाल सरकार दिल्ली के केन्द्र शासित प्रदेश होने की मजबूरियों से अपने आप को अनभिज्ञ दिखाती है.

राजनीतिक बिसात पर दोनों सरकारों द्वारा चली गयी इस चाल का ख़ामियाज़ा दिल्ली की जनता लगातार भुगतन रही है. हर साल फैलता डेंगू, मलेरिया और चिकनगुनिया का प्रकोप और दिल्ली नगर निगम के सफ़ाई कर्मचारियों, डाक्टरों और शिक्षकों की हड़तालें इस नूरा-कुश्ती के सबसे बड़े उदाहरणों में से हैं. अपने मुंह मिया मिट्ठू बनने के लिये यानि विज्ञापनों के माध्यम से अपना प्रचार करने के लिये तो केजरीवाल सरकार 526 करोड़ रुपये आवंटित कर देती है लेकिन निगम के कर्मचारियों का वेतन देने का मसला उठता है तो केन्द्र सरकार पर ठीकरा फोड़ दिया जाता है और केन्द्र सरकार भी तमाशबीन बन जाती है.

सरकार चलाने के लिये एक ऐसी पैनी दृष्टि की ज़रूरत होती है जो ऊपरी सतहों को भेद कर, वर्तमान से आगे की सुध ले सके. ये दूरदृष्टि और प्रशासनिक कुशलता के अभाव का ही प्रमाण है कि जिस दिल्ली को 2011 में संयुक्त राष्ट्र से सबसे हरे-भरे शहर का पुरस्कार मिला वो आज देश के सबसे प्रदूषित शहर में परिवर्तित हो गयी है. दिल्ली का ग्रीन कवर घट गया, कांग्रेस के समय जहां 5500 डी टी सी बसें थीं अब 3900 बची हैं, मेट्रो का तीसरा फेज़ दो साल के विलंब से चल रहा है, न तेल रिफ़ाइनरियों पर साफ़ ईंधन इस्तमाल करने के लिये दबाव बनाया गया न ही सड़कों को वैक्यूम क्लीन करने का वादा निभाया गया, न तो बड़े वाहनों की आवागमन को ठीक से नियंत्रित किया गया न ही उड़ती धूल रोकने के लिये समय से अवैध निर्माणों पर रोक लगायी गयी. सम-विषम फ़ार्मूले को तो दिल्ली की जनता के सहयोग ने सफ़ल बना दिया लेकिन उस से भी प्रदूषण की दर नहीं घटी. इस साल तो एन जी टी ने ऑड-ईवन की तैयारी पर सरकार को इतना शर्मिंदा किया कि प्रस्ताव वापिस ही लेना पड़ा. कृत्रिम बारिश करवाने के मसले पर केन्द्र सरकार ने भी पल्ला झाड़ लिया.

शिक्षा में अधूरे आंकड़े

नाक तक पानी आ जाने पर केजरीवाल सरकार हाथ-पैर मारना शुरु करती है. विधिवत तरीके से न तो अल्पकालिक उपाय ढूंढे जाते हैं न ही दूरगामी. इसी का परिणाम है कि पिछले तीन सालों से सर्दियां शुरु होते ही दिल्ली का वायुमंडल ज़हरीले गैस चैम्बर में तब्दील हो जाता है. वैसे, एक क्षेत्र है जहां अद्वितीय काम करने का श्रेय केजरीवाल सरकार बटोरने में लगी है-शिक्षा. हालांकि सरकारी स्कूलों में पैरेन्ट्स-टीचर मीटिंग सराहनीय कदम है लेकिन इससे दिल्ली की शिक्षा व्यवस्था में कोई खास सुधार नहीं हो पाया. बल्कि इसके विपरीत आंकड़े बताते हैं कि गत् दो वर्षों में शिक्षा मद में से 1982 करोड़ रुपयों का इस्तमाल सरकार नहीं कर पायी. अगर 5000 नए क्लासरूम बनाने का सरकारी दावा सही था को एक कक्षा में 40 विद्यार्थियों के हिसाब से सरकारी स्कूलों में दो लाख विद्यार्थियों की बढ़ोतरी होनी चाहिये थी. जबकि इसके ठीक विपरीत सरकारी स्कूलों से 98000 बच्चे कम हुए हैं. यही नहीं, पिछले तीन वर्षों में 12 वीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा में बैठने वाले सरकारी स्कूलों के छात्रों की संख्या में 42,296 की कमी और पास होने वालों की संख्या में 38,489 की कमी आयी है.

डीडीए के अनुसार वे पब्लिक स्कूलों को शिक्षा के नाम पर बिजनेस करने नहीं दे सकते

दूसरी पारी में बहुत उम्मीद के साथ दिल्ली आम आदमी पार्टी और केजरीवाल सरकार की ओर देख रही थी कि शायद स्वार्थ के मनोविकार से बच कर अब ये राजनैतिक सत्ता का उपयोग जन सेवा के लिये करेंगे लेकिन इन्होंने बड़ी निष्ठुरता से उम्मीद को नाउम्मीद में, आशा को निराशा में और जनाकांक्षा को निजी महत्वकांक्षा में तब्दील कर दिया. इस प्रकरण के संदर्भ में सुदर्शन जी की कहानी याद आती है जिसमें 'हार की जीत' हो जाती है. दीन दुखिया अपाहिज का भेष धर के डाकू खड़ग सिंह बाबा भारती का शानदार घोड़ा छलपूर्वक छीन लेता है. पर मानवता के हित में उनका यह निवेदन कि इस घटना का जिक्र वो किसी से न करे वरना कभी कोई किसी गरीब अपाहिज की मदद नहीं करेगा, खड़ग सिंह पर गहरा प्रभाव डालता है. वो रात के अंधेरे में सुलतान को वापस अस्तबल में बांध आता है.

असल जिन्दगी में तो जीत की हार हुई है. आम आदमी पार्टी की कल्पनातीत जीत में जिन सपनों, विचारों और सदिच्छाओं और की जीत निहित समझी जा रही थी, अहम् और सत्तालोलुपता ने उसकी केंचुली उतार फेंकी है. शायद इससे सबसे बड़ा अहित देश-समाज-राजनीति का ये हुआ है कि अब हर नई कोशिश करने वाला संदिग्ध हो जाएगा. काश, केजरीवाल ने बाबा भारती की चेतावनी का मान रखा होता!

(लेखिका कांग्रेस नेता और दिल्ली विश्विद्यालय की पूर्व अध्यक्ष हैं)

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