साइकिल उत्तरप्रदेश के तथाकथित समाजवादियों के लिए सबसे उपयोगी सवारी साबित हुई है लेकिन वही जांची-परखी, खूब फायदेमंद साबित हुई साइकिल चंद घंटों के भीतर समाजवादी पार्टी और आपस में कुश्ती लड़ रहे उसके दो सरदारों- पिता-पुत्र की जोड़ी मुलायम-अखिलेश से छिनने वाली है.
अपने पूरे ज्ञान और विशेषज्ञता के साथ भारत का चुनाव आयोग इंसाफ के तराजू पर यह तौलने में लगा है कि साइकिल के चुनावी निशान पर ठीक-ठीक मालिकाना हक किसका बनता है- बड़े(सीनियर) यादव का या छोटे(जूनियर) यादव का या फिर ऐसा तो नहीं कि दोनों में से कोई भी साइकिल की सवारी के काबिल नहीं रहा और उनके लिए अब वक्त नये चुनाव चिह्न आजमाने का है.
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आम जनता के लिए साइकिल आवाजाही का सबसे आसान जरिया रही है. बेशक साइकिल हर जगह बड़ी आसानी से हमें मिल जाती है, एकदम मामूली नजर आती है लेकिन उसपर सवारी गांठने का मजा ही कुछ और है.
पहली-पहली बार साइकिल चला रहा आदमी आजादी, रफ्तार, चाल और अपार खुशी के अहसास से भर उठता है इस बात से परे कि उसकी उम्र और सामाजिक हैसियत कुछ भी हो. साइकिल साधारण है, सस्ती है, हर राह पर दौड़ पड़ती है, चाहे सड़क या मिट्टी की हालत कैसी भी हो. सबसे अहम बात तो यह है कि साइकिल भरोसेमंद होती है, इसके रख-रखाव की कोई खास चिंता नहीं करनी पड़ती.
साइकिल ने बनाया मुख्यमंत्री
समाजवादी पार्टी के चुनाव-चिह्न साइकिल ने 1993 के दिसंबर से मुलायम सिंह यादव को दो बार सत्ता के सिंहासन तक पहुंचाया, वे मुख्यमंत्री बने और 2012 से इसी चुनाव-चिह्न पर उनके बेटे अखिलेश यादव सत्ता के राजपथ पर सरपट दौड़े. चुनाव-चिह्न के रुप में साइकिल की सवारी गांठने से पहले भी मुलायम सिंह यादव जनता दल के नेता के रुप में 1989 के आखिर से 1991 के बीच तकरीबन दो साल तक मुख्यमंत्री रह चुके थे.
लेकिन तब जनता दल के चुनाव-चिह्न ‘चक्र’ पर उनका कोई मालिकाना हक ना था. उन्होंने साझेपन के उस ‘चक्र’ को छोड़कर अपनी खुद की साइकिल लेना बेहतर समझा. इसके साथ ही उनके और उनके परिवार के सितारे बुलंदी को छूने लगे.
मुलायम सिंह यादव का कुनबा भारी-भरकम था. दूर और नजदीक के नाते-रिश्तों को मिलाकर यादव-कुनबे में सदस्यों की संख्या तकरीबन पांच दर्जन तो होगी ही. इन सबको मुलायम सिंह यादव ने अपनी साइकिल पर चढ़ाया. इतने भार के बावजूद साइकिल की रफ्तार कम नहीं हुई और वो चलती रही. बल्कि यूं कहें कि उसने और रफ्तार पकड़ी.
साइकिल ने मुलायम सिंह यादव के कुनबे को बेलगाम ताकत, धन, जेट प्लेन, ऑडी, टोयोटा, बीएमडब्ल्यू, मर्सिडीज वगैरह दिए. साइकिल मानो कल्पवृक्ष बन गई जिससे मुलायम सिंह यादव का कुनबा कुछ भी मांग और हासिल कर सकता था.
सहनशक्ति की सीमा
यही वजह है जो समाजवादी पार्टी के दोनों धड़े जिसमें बाप और बेटे शामिल हैं दोनों इस बात पर अड़े हैं कि ये नाचीज सी साइकिल का चुनाव-चिह्न उसी के पास रहे. एक धड़े में अपने अतीत के साथ अखाड़े से बाहर कर दिया गया पिता है तो दूसरे धड़े में अपने वर्तमान के साथ अखाड़े में दावा ठोंक रहा पुत्र.
लेकिन सहनशक्ति की भी एक सीमा होती है. जोर दोनों तरफ से लग रहा है और एक-दूसरे की उल्टी दिशा में लग रहा है तो इस खींचतान और भार को ये साइकिल बेचारी आखिर किस हद तक सह सकती है?
संयोग देखिए कि यह खींचतान उस वक्त हो रही है जब साइकिल चुनाव-चिह्न के मालिकान मुलायम सिंह यादव और उनके कुनबे को अपने साथ-संगत की पच्चीसवीं सालगिरह मनाना चाहिए था.
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शुक्रवार के दिन पिता मुलायम सिंह यादव ने बेचैनी के आलम में चुनाव आयोग के आगे साइकिल चुनाव-चिन्ह को अपने पास रखने और बेटे को उससे बेदखल करने की आखिरी बार दलील दी. चुनाव आयोग के मन में भी कुछ तो रहा होगा जो उसने अखिलेश यादव और उनके संगी-साथियों को अपनी दलील पेश करने का एक मौका और दिया कि आखिर साइकिल चुनाव-चिह्न उन्हें ही क्यों दिया जाना चाहिए.
सीधे-सरल शब्दों में कहें तो भारत के चुनाव आयोग को अगर लगे कि मालिकाने के झगड़े के बीच उसका दिया चुनाव-चिह्न दबाव में है और उसपर जोर-आजमाईश हो रही है तो आयोग उसे वापस ले सकता है.
साइकिल की जगह मोटरसाइकिल
नई पीढ़ी के अखिलेश मान चुके हैं कि उम्र और कद के लिहाज से मामूली जान पड़ती साइकिल की सवारी उनपर नहीं फबती. अब वे मोटरसाइकिल हांकना चाहते हैं जो रफ्तार, चाल और मशीनी ताकत का इजहार करती हुई उनके बनाए राजपथ पर हवा से बातें करे और गांव की सड़कों पर अपने सवार के मर्जी के हिसाब से चाल अख्तियार करे.
अखिलेश और उनकी समर्थक जनता अब तक साइकिल से अपना मन भर का मतलब साध चुकी है पर साइकिल और मोटरसाइकिल के बीच तुलना चलती रहेगी.
चुनाव आयोग ने इशारा किया है कि वह साइकिल चुनाव-चिह्न वापस ले सकता है. इसे भांपते हुए पिता मुलायम, चाचा शिवपाल और ‘बाहरी’ अमर सिंह दूसरे विकल्प पर भी विचार कर रहे हैं.
इन लोगों का इरादा यह बन रहा है कि बरसों की भूली-बिसरी, थकी-मांदी, छिन्न-भिन्न हो चली पार्टी ‘लोकदल’ के चुनावी निशान को अपना लिया जाय. यह चिह्न हाथ में हल लेकर खेत जोतते गरीब किसान का है. मतलब मुलायम सिंह एक बार फिर से एक आदमी के बाहुबल के भरोसे हैं जबकि उनके बेटे अखिलेश की नजर नई पीढ़ी की मशीनी ताकत के प्रतीक मोटरसाइकिल पर है.
अस्थिरता से भरा खेल
यहां एक अस्थिरता से भरा खेल चल रहा है जिसमें दोनों खिलाड़ी एक- दूसरे को चित्त करने की कोशिश कर रहे हैं. खेल के शुरुआती दौर में अखिलेश अपनी मजबूत पकड़ और पहुंच के लिहाज से अपने पिता के खिलाफ शुरुआती दौर का मुकाबला जीत चुके हैं, उन्हें खेल का हर दांव पता है. वे बूढ़े हो चले पिता और पिता के पिछलग्गुओं से एक कदम आगे की सोचते हैं.
अखिलेश ने अपना दम दिखाते हुए साबित किया कि पार्टी के ज्यादातर विधायक उनके पाले में हैं, फिर पार्टी का राष्ट्रीय सम्मेलन बुलाया और खुद को पार्टी का अध्यक्ष घोषित किया, पिता को मार्गदर्शक-मंडली वाले बेमानी-मतलब के गलियारे में ला खड़ा किया, ताकतवर शिवपाल यादव को पार्टी के संगठन से बाहर का रास्ता दिखाया और इस सबके बाद पूरे पोथी-पतरे और जरुरी दलील के साथ चुनाव आयोग पहुंच गए कि साइकिल के चुनावी निशान पर हक उनका ही बनता है.
अब हालत यह है कि अखिलेश मजे से लखनऊ में बैठे हैं और उनके पिता, चाचा और परिवार के ‘बाहरी’ चुनाव-आयोग के चक्कर काटने को मजबूर हैं. अखिलेश के प्रतिनिधि के तौर उनके एक और चाचा रामगोपाल यादव दस्तावेजों और कानूनी दलीलों के साथ चुनाव आयोग के दफ्तर पहुंच कर उनका पक्ष रख रहे हैं.
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जबकि मुलायम और उनके संगी-साथी अपने कद और इस विश्वास के भरोसे हैं कि पच्चीस साल पहले पार्टी हमने बनाई थी सो पार्टी पर हुकूमत आज भी हमारी ही चलेगी.
तेवर अखिलेश भी दिखा रहे हैं लेकिन उनका तौर-तरीका थोड़ा हटकर है. उन्होंने कांग्रेस के नेता और बड़े वकील कपिल सिब्बल को चुनाव-आयोग में अपना पैरोकार बनाया है.
साइकिल खुद में ताकतवर नहीं होती लेकिन समाजवादी यह मानकर चल रहे हैं कि साइकिल पार्टी और उसके नायकों को सत्ता तक पहुंचाकर ही रहेगी. लेकिन साइकिल और उसकी जादुई ताकत जल्दी ही उनके लिए अब गए जमाने की बात बनने वाली है.
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