हाल ही में जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फ़ारूख़ अब्दुल्ला ने अलगाववादी हुर्रियत कांफ्रेंस का खुलकर समर्थन किया. इससे एक बात फिर से साफ हो गई कि कश्मीर में मुख्यधारा की पार्टियों और अलगाववादियों के बीच फर्क नाम मात्र का है.
अब्दुल्ला के बयान के तमाम राजनैतिक मायने निकाले जा रहे हैं. हुर्रियत कांफ्रेंस का मानना है कि फ़ारूख़ अब्दुल्ला, लोकसभा उप-चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं.
राज्य की दोनों प्रमुख पार्टियां, नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी, वक्त-वक्त पर लोगों की भावनाओं से खेलती रही हैं. ऐसा करके वे न सिर्फ एक-दूसरे की सरकारों को झटके देती हैं, जैसे कि कथित तौर पर पत्थरबाजों को पैसे देकर हिंसा भड़काती हैं. बल्कि सरकार में रहते हुए वो अफसरों, शिक्षा व्यवस्था, पुलिस, मीडिया और दूसरे माध्यमों से अलगाववाद को बढ़ावा देती हैं.
अगर वाकई फ़ारूख़ अब्दुल्ला की नजर लोकसभा उप चुनावों पर है, तो ये पहली बार नहीं होगा जब, चुनाव में उनकी पार्टी अलगाववादियों की वकालत कर रही है. 1977 में इंदिरा और शेख अब्दुल्ला के बीच समझौते के ढाई साल के भीतर ही ऐसा देखने को मिला था. नेशनल कांफ्रेंस के मिर्जा अफजल बेग और जनता पार्टी के मीरवाइज फारुक ने इस्लामिक विचारधारा और अलगाववाद को अपने चुनाव प्रचार के दौरान बढ़ावा दिया था.
केंद्र के करीब
1984 में जब फ़ारूख़ अब्दुल्ला की सरकार को केंद्र ने बर्खास्त कर दिया था, तो उसके बाद से फ़ारूख़ अब्दुल्ला ने तय किया कि वो केंद्र की सरकार के साथ ही रहेंगे, फिर चाहे वो किसी भी पार्टी की हो. मगर मौजूदा सरकार ने नेशनल कांफ्रेंस को किनारे कर दिया है. इसलिए अब, उप चुनावों से पहले वो अलगाववादियों की जुबान बोल रहे हैं.
अपने ताजा बयान से अलग फ़ारुख़ अब्दुल्ला का राजनीतिक करियर इस बात का प्रतीक रहा है कि उन्होंने अलगाववादियों से दूरी बनाकर रखी. जबकि पीडीपी 1999 में अपने गठन के बाद से ही इस्लामवाद और अलगाववाद के साथ कभी हां, कभी न का रिश्ता बनाती चली आई है. इसीलिए उसने इस्लाम के प्रतीक माने जाने वाले हरे रंग को अपने झंडे का रंग बनाया. ऐसा ही झंडा मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट ने 1987 में अपनाया था.
इस्लामिक पार्टी जमाते इस्लामी ने 2002, 2008 और 2014 के चुनाव में पीडीपी का चुपके चुपके समर्थन किया था. लेकिन ऐसा समर्थन कितना नुकसानदेह हो सकता है, ये बात अब पीडीपी को समझ में आ रही है. कश्मीर में हिंसा के ताजा दौर की अगुआ जमाते इस्लामी ही है.
हुर्रियत कांफ्रेंस में कई पार्टिया हैं. सबकी अपनी अलग राजनीति और अपने अलग हित हैं और सबकी चाभी पाकिस्तान के पास है.
कश्मीर में पिस रहे हैं गरीब
कश्मीर के सियासी खूनी खेल की कीमत गरीब लोग चुका रहे हैं. उनके बच्चे मारे जा रहे हैं. जो लोग इस हिंसा को बढ़ावा देते हैं, उनके बच्चों पर इसकी आंच तक नहीं आती. वो विदेशों में पढ़ते हैं या फिर देश के दूसरे इलाकों में रहते हैं.
कश्मीर में पत्थरबाजों की नई नस्ल आजादी के लिए जुनूनी है. उनके लिए आजादी का मतलब है कश्मीर से फौज का हटना. लेकिन ये लोग भी मानते हैं कि हिंसा से गरीबों को ही ज्यादा नुकसान होता है.
ऐसे लोगों को, आजाद कश्मीर क्या होता है इसकी सही समझ भी नहीं. उन्हें ये भी नहीं पता कि इसकी सीमाएं कहां से कहां तक होंगी. लेकिन, जब उन्हें लद्दाख के बारे में बताया जाता है कि वो भारत के साथ रहना चाहते हैं, तो वो सोच में पड़ जाते हैं. फिर कुछ देर बाद वो कहते हैं कि ठीक है, लद्दाख के लोग जो चाहते हैं वो उन्हें दे दिया जाना चाहिए.
आज के पत्थरबाज नब्बे के दशक में सुरक्षा बलों के साथ खेला करते थे. उनके साथ खाना खाया करते थे. लेकिन 2008 में भड़की हिंसा के बाद से उनकी सोच बदल गई. उन्हें समझाया गया कि भारतीय सुरक्षा बलों ने उनके देश पर कब्जा कर रखा है, उसे गुलाम बना रखा है. लोगों को दबाया जाता है. युवाओं को सुरक्षा बलों के हाथों मारे गए लोगों की कब्रों और सामूहिक बलात्कार के किस्से सुना-सुनाकर बरगलाया गया. यूनिवर्सिटी में, साहित्य उत्सवों में यही पाठ पढ़ाये गए. मीडिया ने भी अलगाववादियों को बढ़ावा दिया है.
हुर्रियत के भी कई नेता मानते हैं कि नई पीढ़ी के लोग कट्टरवाद की तरफ झुक गए हैं. हुर्रियत नेता मीरवाइज उमर फ़ारूक़ ने भी पिछले साल युवाओं में इस्लामिक कट्टरपंथ की बढ़ती पैठ पर फिक्र जताई थी. लेकिन सत्ता में बैठे लोगों ने सोचा कि इसे काबू में रखा जा सकता है. वो अब भी यही सोच रहे हैं कि ऐसे कट्टरपंथियों को काबू में रखा जा सकता है.
सच तो ये है कि कश्मीर की खूनी राजनीति में कई बार अलगाववादी ज्यादा समझदारी वाली सोच जाहिर करते नजर आये हैं. आखिर में सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि किसको क्या सिखाया पढ़ाया गया है और लोग किस चीज में अपना फायदा देखते हैं.
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